बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्ष ( सुप्रीमो ) और उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती की गिनती देश के कुछ गिने – चुने ऐसे नेताओं में होती है जिनको राजनीति विरासत में नहीं मिलती बल्कि वो राजनीति में अपनी जगह खुद बनाते हैं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के एक गरीब दलित परिवार में जन्मी पेशे से स्कूल की शिक्षिका इस महिला ने परिस्थितियों से समझौता करने के बजाय अपने संघर्ष से परिस्थितियाँ ही अपने इतने अनुकूल बना ली कि उनमें आसानी से फिट भी हो गयी।
मायावती ने दलित राजनीति की शुरुआत मास्टर कांशीराम के शिष्यत्व में की थी लेकिन कांशीराम जहाँ थे वहीं रह गए और मायावती उनसे कहीं आगे निकल गईं। डॉक्टर भीमराव आंबेडकर स्थापित नीतियों के अनुपालन में देश में दलित राजनीति की परंपरा को जारी रखना आसान काम नहीं था। लेकिन मायावती मास्टर कांशीराम की अनुपस्थिति में भी न केवल उस परंपरा को आगे तक बढ़ाने में सफल रहीं बल्कि दलित राजनीती के इस सिद्धांत पर अमल करते हुए देश के उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य में अपने बूते सरकार भी बनाई। मजेदार बात यह है कि अपनी राजनीतिक प्यास बुझाने के लिए उन्होंने वामपंथी दलों को छोड़ कर देश की कमोबेस सभी छोटी – बड़ी , किसी भी पार्टी के साथ समझौता करने से भी समझौता नहीं, किया चाहे वो एक दूसरे की धुर राजनीतिक प्रतिद्वंदी पार्टियां कांग्रेस और भाजपा हों या फिर उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव और उनके बेटे अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी हो या फिर महाराष्ट्र मध्य प्रदेश अथवा देश के किसी भी दूसरे राज्य में सक्रिय और स्थापित कोई मान्यता प्राप्त क्षेत्रीय पार्टी ही क्यों न हो , मायावती अलग – अलग राजनीतिक परिस्थितियों में अलग – अलग राजनीतिक पार्टियों के साथ तालमेल करने में इसलिए भी कामयाब रही हैं, क्योंकि मायावती की बहुजन समाज पार्टी का जो दलित वोट बैंक आधार है , उसकी जरूरत राष्ट्रीय और क्षेत्रीय स्तर की हर पार्टी को जरूरत होती है।
मायावती और उनके राजनीतिक गुरु मान्यवर कांशीराम ने सवर्णों को सरेआम अपमानित कर दलित समाज में अपनी एक ख़ास जगह बनाई थी जिसकी जरूरत वक़्त के मुताबिक़ हर राजनीतिक पार्टी को होती थी और दलित वोट बैंक का समर्थन जुटाने के काम में मायावाती जैसा दलित नेतृत्व उनकी मदद करता रहा है।
मायावती और उनके राजनीतिक संगठन ने परस्पर लेनदेन की राजनीतिक शर्तों के आधार पर अलग – अलग राजनीतिक दलों के साथ स्वार्थपरक क्षेत्रीय राजनीतिक सहमति पर हस्ताक्षर भी किए हैं। बसपा के गठन के करीब चार दशक बाद तक मायावती और उन जैसे तथाकथित दलित नेताओं को यह लगता रहा कि “तिलक तराजू और तलवार , इनको मारो जूते चार “जैसे नारे देकर देश के दलित समाज का जरूरत से ज्यादा भरोसा और समर्थन हासिल किया जा सकता है।
इन नेताओं की यह सोच काफी हद तक सफल भी रही क्योंकि इस देश का इतिहास गवाह है की यहाँ समाज के दलित और दबे कुचले तबकों को तिलक, तराजू और तलवार की प्रतीक कथित सभी और श्रेष्ठ जातियों ने काफी शोषण भी किया है। गौरतलब है कि वर्ण व्यवस्था के हिसाब से समाज को ब्राह्मण – क्षत्रिय – वैश्य और शूद्र चार वर्णों में बांटा गया है। इस हिसाब से तिलक ब्राह्मण तबके का, तराजू वैश्य तबके का और तलवार क्षत्रिय तबके का प्रतीक माना जाता है। इस एक नारे से मायावती की पार्टी ने समाज के तीन तबकों को नाराज जरूर कर लिया था लेकिन जातीय समीकरण का गणित कुछ इस तरह का बन गया था कि.अगर ये तीनों जातियां नाराज हो जाएँ और इस नाराजगी के चलते दलित वोट मायावती की पार्टी के समर्थन में एकजुट हो जाती हैं तो इस पार्टी को फायदा ही होगा।
शुरू में ऐसा हुआ भी लेकिन बाद में स्थितियां बदलने लगी। इन्हीं बदलती राजनीतिक परिस्थितियों के सन्दर्भ में मायावती की पार्टी को बाद के दौरा में अपना नारा बदलना भी पड़ा था और हाथी के सन्दर्भ को कुछ इस तरह बदला भी गया , “हाथी नहीं गणेश है , ब्रह्मा विष्णु महेश है”यही नहीं इसके आगे बसपा के ही नारे में यह भी जोड़ा गया , “ब्राह्मण शंख बजाएगा, हाथी आगे बढ़ता जाएगा “एक ही पार्टी जब दो अलग – अलग वक़्त में अपनी सोच में इस तरह का परस्पर विरोधी नीतिगत बदलाव करती है तो इसके मायने बहुत स्पष्ट होते हैं। इस तरह की पार्टियां (कांग्रेस और वामपंथी पार्टियों को छोड़ कर) छोटे स्वार्थ की खातिर जाति, धर्म, समुदाय और क्षेत्र के नाम पर अस्थायी ध्रुवीकरण करने की कोशिशों में लगी रहती हैं।
कभी तो ये कोशिशें भाजपा की तरह धर्म के नाम पर एकजुट होकर देश की राजनीती का स्थायी भाव बन जाती हैं या फिर बसपा अथवा ऐसी ही दूसरी जाति, समुदाय और क्षेत्र आधारित पार्टियां हरेक दशक के बाद अपने लिए नए राजनीतिक नारी खोजने की कोशिश में लग जाती हैं।
भारत विविधताओं में एकता वाला देश है। यह किसी व्यक्ति विशेष या संस्था द्वारा दिया हुआ नारा नहीं है बल्कि यह इस देश का सांस्कृतिक, एतिहासिक सच है इसे कोई बदल नहीं सकता। इस भारत के लोग विरासत में मिले इस सच को दिल से मानते हैं। इसीलिए यहाँ कभी भी ऐसी कोई कोशिश कामयाब नहीं हो पाती जो लोगो को धर्म के नाम पर, जाति -क्षेत्र या फिर समुदाय के नाम पर आपस में लड़ाने के लिए , एक – दूसरे से दूर करने के लिए की जाती हैं। इस देश का सांस्कृतिक,धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक सच यही है कि यहाँ हर समुदाय , क्षेत्र , जातिऔर धर्म के लोगों को अपने काम के लिए दूसरों की मदद की जरूरत पड़ती है।
उदाहरण के लिए हिन्दू जिस मंदिर में पूजा करते हैं और जिस मूर्ती की पूजा करते हैं उसके निर्माण में मुस्लिम कारीगरों की भी बहुत बड़ी भूमिका होती है। उसी तरह दलित समाज के जिस व्यक्ति को मंदिर में प्रवेश नहीं करने दिया जाता उसी समाज के हजारों मजदूर उसी मंदिर के निर्माण कार्य से जुड़े रहते हैं। इसी तरह यहाँ का हर नागरिक चाहे वो किसी धर्म, जाति, क्षेत्र और समुदाय से सम्बन्ध क्यों न रखता तो वक़्त जरूरत दूसरे धर्म , जाति, क्षेत्र और समुदाय के लोगों की मदद जरूर करता है और उसके सुख – दुःख का भागीदार भी बनता है। राजनीति भी इसका अपवाद नहीं है।
अंग्रेजों की दो सौ साल से ज्यादा की गुलामी से मुक्ति के काम में भी देश के किसी एक तबके ने नहीं बल्कि पूरब से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण तक देश के सभी लोगों ने मिल कर किया था। देश की आजादी के इस काम में जिसे स्वाधीनता संग्राम भी कहा जाता है उसमें हिन्दू , मुस्लिम , सिख , इसाई , बौध और पारसी सभी धर्मों के लोगों के साथ ही ब्राह्मण , ठाकू , वैश्य और शूद्र समेत सभी सामाजिक तबकों की बराबर की भागीदारी थी . कांग्रेस ने देश की आजादी के बाद सबको साथ लेकर चलने के इसी मंत्र को अपना आधार बनाया था। बाद के दौर में जाति , धर्म , क्षेत्र और समुदाय के नाम पर अन्नाद्रमुक से लेकर द्रमुक , तेलुगु देशम , तेलंगाना राष्ट्र समिति , समाजवादी पार्टी , बहुजन समाज पार्टी जैसी तमाम पार्टियां गठित तो जरूर हुईं लेकिन किसी एक जाति , धर्म , समुदाय – सम्प्रदाय , क्षेत्र के भरोसे टिक कर रह पाना किसी के लिए संभव नहीं हो सक और सभी को सभी की जरूरत भी होने लगी। सुश्री मायावती का ब्राह्मण और सवर्ण हिन्दू प्रेम भी इसी सत्य की तरफ इशारा करता है। इसी तरह भाजपा को भी मुस्लिम नेताओं की जरूरत पड़ती है।