समान नागरिक संहिता पर बहस पुनः शुरू हो गयी है, पर समान नागरिक संहिता का प्रारूप क्या होगा और किस प्रकार से एक बहुलतावादी देश मे नाना प्रकार के धर्मो, सम्प्रदाय, जाति, वर्ण, और क्षेत्र के बीच समानता के बिंदु खोजे जाएंगे, इस पर अभी सरकार का कोई प्रारूप नहीं आया है। हमारा संविधान इस मसले पर समान नागरिक संहिता की न केवल बात करता है, बल्कि नीति निर्देशक तत्वो के अध्याय के अनुच्छेद 44 में इसे लागू करने की भी सम्भावना बनाये रखता है।
संविधान के भाग 4 जो राज्य के नीति निर्देशक तत्व के संदर्भ में हैं, के अनुच्छेद 44 में कहा गया है कि
” राज्य , भारत के समस्त राज्यक्षेत्र में नागरिकों के लिए एक समान सिविल संहिता लागू करने का प्रयास करेगा।”
समान नागरिक संहिता (Uniform civil code) का अर्थ होता है –
” भारत में रहने वाले हर नागरिक के लिए एक समान क़ानून होना चाहिए वह किसी धर्म या जाति का क्यों न हो। समान नागरिक संहिता में विवाह, तलाक ,उत्तराधिकार,गोद लेने (Adoption) से सम्बंधित क़ानून सभी धर्मों पर समान रूप से लागू होगा।”
हालाँकि, देश मे, विभिन्न धर्मों के अनुसार, इस तरह के मामलों के लिए वर्तमान में अलग-अलग कानून बने हुए हैं। जैसे, हिंदू विवाह अधिनियम, हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, भारतीय ईसाई विवाह अधिनियम, पारसी विवाह और तलाक अधिनियम आदि। इसके साथ ही, मुसलमानों के लिये मुस्लिम पर्सनल लॉ या मोहम्मडन लॉ, उनके धार्मिक ग्रंथ कुरआन और परम्पराए यानी हदीस पर आधारित हैं।
लेकिन, फ्रांस, यूनाइटेड किंगडम (यूके), संयुक्त राज्य अमेरिका (यूएस), ऑस्ट्रेलिया, जर्मनी आदि कई अन्य देशों में पहले से ही समान नागरिक संहिता (यूसीसी) की तरह ही कानून बने हैं जो एक देश, एक कानून के सिद्धांत पर आधारित हैं। भारत में अक्सर समान नागरिक संहिता बनाये जाने और उसे लागू करने की बात अक्सर लोग करते रहते हैं औऱ भाजपा ने तो, इस बिंदु को अपने संकल्पपत्र मे भी शामिल किया है, तो उसकी प्रतिबद्धता है कि वह इस कानून को ड्राफ्ट कर उसे पारित कराए और लागू करे। लेकिन यह समान नागरिक संहिता किस प्रकार का कानून होगा, इस पर अभी तक इसकी मांग करने वाले और इसके पक्षधर भी बता नहीं पा रहे हैं। जब कानून का प्रारूप सामने आए तो उस पर बहस और चर्चा की जाय। फिलहाल तो यह एक अस्पष्ट सी मांग है।
समान नागरिक संहिता (यूसीसी) की अचानक चर्चा दिल्ली हाईकोर्ट में दायर एक मुक़दमे की सुनवाई के दौरान फिलहाल शुरू हुई है। तलाक़ से जुड़े एक मुक़दमे की सुनवाई करते हुए, दिल्ली उच्च न्यायालय ने कहा है-
” भारतीय युवाओं को विवाह और तलाक के संबंध में विभिन्न व्यक्तिगत कानूनों में आपसी टकराव से उत्पन्न होने वाले मुद्दों से संघर्ष करने के लिए मजबूर होने की आवश्यकता नहीं है। आधुनिक भारतीय समाज धीरे-धीरे एकरूप होता जा रहा है। धर्म, समुदाय और जाति के पारंपरिक अवरोध धीरे-धीरे समाप्त हो रहे हैं। और इस प्रकार यूसीसी को मात्र नीति निर्देशक तत्वों का एक प्राविधान ही नहीं बने रहना चाहिए।”
न्यायमूर्ति प्रतिभा एम सिंह ने 7 जुलाई को दिए गए अपने एक आदेश में कहा है-
“भारत के विभिन्न समुदायों, जनजातियों, जातियों या धर्मों के युवाओं को, जो विवाह आदि करते हैं, उन्हें विभिन्न व्यक्तिगत कानूनों, विशेष रूप से विवाह और तलाक के संबंध में, टकराव के कारण उत्पन्न होने वाले मुद्दों से जूझने के लिए मजबूर नहीं किया जाना चाहिए।”
इसका आशय यह है कि एक सरल और समान कानून ऐसे मामलों के संदर्भ में बनाया और लागू किया जाना चाहिए। अभी विभिन्न समाजो के लिये अलग अलग कानून हैं तो उनके रीतिरिवाजों और परंपराओं के ही आधार पर बने हुए हैं।
दिल्ली हाईकोर्ट की उपरोक्त टिप्पणी, द हिन्दू मैरेज एक्ट 1955 की धारा 2 (2) के संदर्भ में प्रस्तुत एक कानूनी विंदु के परीक्षण के समय की गई थी। मुकदमे का विवरण इस प्रकार है। 24 जून 2012 को राजस्थान के मीणा समुदाय के एक युगल ने विवाह किया और बाद में पति पत्नी में कुछ मतभेद हो गया। पुरूष (पति) ने हिन्दू मैरिज एक्ट 1955 की धारा 13 – 1 ( आईए ) के अंतर्गत तलाक़ के लिये निचली न्यायालय में एक मुकदमा 2 दिसंबर 2015 को दायर किया। महिला (पत्नी) ने तलाक की अर्जी को खारिज करने के लिए अदालत में यह तर्क दिया कि, “एचएमए, 1955 के प्रावधान संबंधित पार्टियों पर लागू नहीं होते क्योंकि वे राजस्थान में एक अधिसूचित अनुसूचित जनजाति (मीणा) के सदस्य हैं। इसलिए एचएमए, 1955 धारा 2 (2) के मद्देनजर उक्त पार्टियों के मामले में लागू नहीं होगा।”
इस आवेदन पर फ़ैमिली कोर्ट द्वारा सुनवाई की गयी और फैमिली कोर्ट ने तलाक की अर्जी को यह कहते हुए खारिज कर दिया गया।
” एचएमए, 1955 के प्रावधान मीणा समुदाय तक विस्तारित नहीं हैं, जो एक अधिसूचित अनुसूचित जनजाति है।” यानी मीणा आदिवासी समाज के विवाह और विवाह विच्छेद के अपने सामाजिक नियम कायदे और कानून हैं जो हिन्दू मैरिज एक्ट 1955 के अंतर्गत उनको आच्छादित नहीं करते हैं।”
उस व्यक्ति ने फैमिली कोर्ट द्वारा व्याख्यायित इस कानूनी विंदु को दिनांक 28 नवंबर 2020 को उच्च न्यायालय में चुनौती दी। इस प्रकार हिन्दू होते हुए भी मीणा समुदाय, अपनी सामाजिक विशिष्टता के कारण हिन्दू विवाह अधिनियम (एचएमए) 1955 की धारा 2 (2) के तहत इस कानून के बाहर है।
दिल्ली उच्च न्यायालय ने फैमिली कोर्ट के आदेश को चुनौती देने और निचली अदालत के फैसलों को रद्द करने की अपील स्वीकार कर ली और यह कहा “अपील की अनुमति है। फैमिली कोर्ट का फैसला कानून के आधार पर टिकाऊ नहीं है अतः तदनुसार उसे रद्द किया जाता है। ट्रायल (फैमिली) कोर्ट को एचएमए, 1955 के 13-1 (ए) के तहत याचिका का निस्तारण, मुक़दमे के गुणदोष (मेरिट) के आधार पर सुनवाई करने और छह महीने के अंतर्गत तदनुसार निर्णय देने का निर्देश दिया गया ।”
अदालत ने 1985 के ऐतिहासिक शाह बानो मामले के संदर्भ में, समान नागरिक संहिता की आवश्यकता पर सुप्रीम कोर्ट के कई फैसलों का उल्लेख करते हुए, कहा, “संविधान के अनुच्छेद 44 में व्यक्त नीतिगत प्राविधान, कि,” राज्य अपने नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता को सुनिश्चित करेगा,” केवल एक नीतिगत अनुच्छेद ही नहीं रहना चाहिए, बल्कि उसे व्यवहारिक रूप से एक कानून बना कर लागू भी करना चाहिए।”
शाह बानो मामले में, शीर्ष अदालत ने भी, कहा था कि” एक समान नागरिक संहिता परस्पर विरोधी विचारधारा वाले कानूनों के प्रति असमान निष्ठा को हटाकर राष्ट्रीय एकता के उद्देश्य में मदद करेगी। यह भी देखा गया था कि राज्य पर देश के नागरिकों के लिए यूसीसी लागू करने का एक संवैधानिक दायित्व भी है।”
अदालत का यह तर्क सही है कि, सुप्रीम कोर्ट द्वारा समय-समय पर यूसीसी की आवश्यकता और उसके प्रति राज्य की संवैधानिक प्रतिबध्दता को बार बार इंगित किया गया है, हालांकि, “यह स्पष्ट नहीं है कि, समान नागरिक संहिता का क्या प्रारूप होगा और सरकार कैसे अनुच्छेद 44 की मंशा को विधिक रूप से पूरा करने में सफल होगी।
शाहबानो का मुकदमा एक बहुचर्चित मुकदमा था जिसमें तलाकशुदा महिला शाहबानो को उनके पति ने धारा 125 सीआरपीसी के अंतर्गत भरण पोषण का खर्च देने से मना कर दिया था। शाह बानो एक 62 वर्षीय मुसलमान महिला और पाँच बच्चों की माँ थीं जिन्हें 1978 में उनके पति ने तालाक दे दिया था। मुस्लिम पर्सनल कानून के अनुसार पति पत्नी की मर्ज़ी के खिलाफ़ ऐसा कर सकता है। अपनी और अपने बच्चों की जीविका का कोई साधन न होने के कारण शाह बानो पति से गुज़ारा लेने के लिये अदालत पहुचीं। उच्चतम न्यायालय तक पहुँचते मामले को सात साल बीत चुके थे। न्यायालय ने अपराध दंड संहिता की धारा 125 के अंतर्गत निर्णय लिया जो हर किसी पर लागू होता है चाहे वो किसी भी धर्म, जाति या संप्रदाय का हो।
न्यायालय ने निर्देश दिया कि, शाह बानो को निर्वाह-व्यय के समान जीविका दी जाय। कुछ रूढ़िवादी मुसलमानों के अनुसार यह निर्णय उनकी संस्कृति और विधानों पर अनाधिकार हस्तक्षेप था। उन्होंने इसका जमकर विरोध किया। तब उनके नेता और प्रवक्ता एमजे अकबर और सैयद शाहबुद्दीन थे। इन लोगों ने ऑल इंडिया पर्सनल लॉ बोर्ड नाम की एक संस्था बनाई और सभी प्रमुख शहरों में आंदोलन की धमकी दी। उस समय के प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने उनकी मांगें मान लीं और इस आधार पर 1986 में, सरकार ने, एक कानून पास किया जिसने शाह बानो मामले में उच्चतम न्यायालय के निर्णय को उलट दिया।
इस कानून के अनुसार
“हर वह आवेदन जो किसी तालाकशुदा महिला के द्वारा सीआरपीसी 1973 की धारा 125 के अंतर्गत किसी न्यायालय में इस कानून के लागू होते समय विचाराधीन है, अब इस कानून के अंतर्गत निपटाया जायेगा चाहे उपर्युक्त कानून में जो भी लिखा हो।” यह कानून, मुस्लिम महिला (तलाक अधिकार सरंक्षण) कानून 1996 कहा जाता है। सरकार का यह कदम प्रतिगामी था और इसी के आधार पर देश मे साम्प्रदायिक राजनीति की शुरुआत भी हुयी।
दिसंबर 2017 में, विधि आयोग के अध्यक्ष न्यायमूर्ति बलबीर सिंह चौहान ने कहा “यूसीसी संभव नहीं है और एक विकल्प भी नहीं है। निजी कानूनों को कभी भी खत्म नहीं किया जा सकता क्योंकि उन्हें संवैधानिक संरक्षण प्राप्त है। संविधान ने ही आदिवासियों आदि जैसे कई लोगों को अलग अलग तरह से विभिन्न संवैधानिक संरक्षण और छूटें दे रखी हैं। कुछ छूटें और अपवाद तो, सिविल प्रक्रिया संहिता और आपराधिक प्रक्रिया संहिता में भी दी गयी हैं। यूसीसी कोई समाधान नहीं है और इस प्रकार का कोई एक समग्र अधिनियम बन भी नहीं सकता है। आप संविधान को भूल नहीं सकते हैं और न ही छठी अनुसूची को हटा सकते हैं।”
अक्टूबर 2016 में, पूर्व कानून मंत्री वीरप्पा मोइली ने भी कहा था कि “भारत जैसे देश में यूसीसी को लागू करना मुश्किल होगा जहां विभिन्न समुदाय और समूह व्यक्तिगत कानूनों द्वारा शासित होते हैं। इस तरह के देश में समान नागरिक संहिता को लागू करना बेहद कठिन है।”
ऐसा नही है कि समान नागरिक संहिता पर आज ही बहस हो रही है। बल्कि समान नागरिक संहिता पर संविधान ड्राफ्ट करते समय भी संविधान सभा में जबरदस्त बहसें और सदस्यों में विचार विनिमय हुआ है। संविधान सभा में इस विषय पर हुयी बहसों के कुछ रोचक किस्सों पर भी चर्चा किया जाना चाहिए। गोवा में उच्च न्यायालय भवन का उद्घाटन करते हुए, भारत के मुख्य न्यायाधीश एसए बोबडे ने कहा, “मैं उन सभी बुद्धिजीवियों से अनुरोध करूंगा कि वे यहां आएं और न्याय के प्रशासन को देखें कि यह क्या होता है।”
“गोवा में वही है जो संवैधानिक निर्माताओं ने भारत के लिए परिकल्पित किया था – एक समान नागरिक संहिता, और मुझे उस संहिता के तहत न्याय करने का बड़ा सौभाग्य मिला है। समान नागरिक संहिता बहस का कोई नया विषय नहीं है क्योंकि यह तब से जारी है जब से संविधान निर्माताओं ने इस पर विचार-विमर्श किया था। अम्बेडकर, जिन्हें अक्सर ‘संविधान का पिता’ कहा जाता है, ड्राफ्ट कमेटी के अध्यक्ष के रूप में, संविधान सभा की बहसों में समान नागरिक संहिता के पक्ष में अपनी बात कहते थे। भारत के संविधान, 1950 के अनुच्छेद 44 के अनुसार, ‘राज्य अपने नागरिकों के लिए भारत के पूरे क्षेत्र में एक समान नागरिक संहिता (यूसीसी) प्रदान करने का प्रयास करेगा।’ एक समान नागरिक संहिता का उद्देश्य विभिन्न धार्मिक समुदायों के धर्मग्रंथों और रीति-रिवाजों पर आधारित व्यक्तिगत कानूनों को देश के प्रत्येक नागरिक को नियंत्रित करने वाले नियमों के एक सामान्य सेट के साथ बदलना है।”
आज तक, इस विचार पर मिली-जुली प्रतिक्रिया ही सामने आयी है। कई राजनीतिक दिग्गजों के साथ, संविधान सभा मे डॉ बीआर अम्बेडकर समान नागरिक संहिता के समर्थक थे। जबकि नज़ीरुद्दीन अहमद सहित कई सदस्य समान नागरिक संहिता के विचार से सहमत नहीं थे। “विभिन्न समुदायों के धार्मिक कानूनों को उनकी सहमति के बिना, किसी समान नागरिक संहिता जैसे कानून से बदला या प्रभावित नहीं किया जाना चाहिए।”
ऐसा नहीं है कि, यूसीसी का विरोध केवल कुछ मुस्लिम नेताओं ने ही किया, बल्कि, इस विंदु पर रूढ़िवादी हिंदुओं के भी विचार, रूढ़िवादी मुस्लिम समाज से अलग नहीं थे। रूढ़िवादी हिंदुओ ने भी यह तर्क दिया और महसूस किया कि, “यूसीसी उनके व्यक्तिगत कानूनों को प्रभावित करेगा, जो उनके अनुसार, शास्त्रों और स्मृतियों द्वारा अनुशासित होते हैं।”
अम्बेडकर का विचार था कि-
“धर्म पर आधारित कतिपय कानून घोर भेदभावपूर्ण थे जहाँ महिलाओं को बहुत कम या कोई अधिकार नहीं दिया गया था।”
संविधान सभा की बहस के दौरान, केएम मुंशी, अल्लादी कृष्णास्वामी और अम्बेडकर ने यूसीसी का बचाव किया, जबकि मुस्लिम नेताओं ने तर्क दिया कि यह असामंजस्य को बढ़ावा देगा।हालाँकि, अल्लादि कृष्णास्वामी का विचार था कि
“यह लोगों के बीच एकता और एकता की भावना पैदा करेगा।”
केएम मुंशी ने यूसीसी का समर्थन करते हुए यह भी कहा कि
“राष्ट्र की सामाजिक साख को बनाए रखना महत्वपूर्ण है।”
संविधान सभा की बहस के दौरान अल्लादि कृष्णास्वामी के विचारों का समर्थन करते हुए, डॉ अम्बेडकर ने कहा था कि,
“समान नागरिक संहिता के बारे में कुछ भी नया नहीं है। विवाह, विवाह विच्छेद, विरासत आदि निजी क्षेत्रों को छोड़कर देश में पहले से ही एक समान नागरिक संहिता मौजूद है, जो संविधान के ड्राफ्ट में समान नागरिक संहिता के लिए मुख्य आधार के रूप में है।”
हालांकि, अम्बेडकर ने यह भी महसूस किया कि यूसीसी वैकल्पिक होना चाहिए। डॉ बीआर अम्बेडकर ने एक महत्वपूर्ण तर्क यह दिया कि “यूसीसी की अनुपस्थिति सामाजिक सुधारों पर सरकार के प्रयासों में बाधा उत्पन्न करेगी।”
संविधान सभा के डिबेट, (सीएडी 7.65.178) के खंड 7 में उन्होंने कहा कि, “मैं व्यक्तिगत रूप से यह नहीं समझता कि धर्म को इतना विशाल, विस्तृत अधिकार क्षेत्र क्यों दिया जाना चाहिए ताकि पूरे जीवन को कवर किया जा सके और विधायिका को उस क्षेत्र पर अतिक्रमण करने से रोका जा सके। आखिर हमें यह आजादी किस लिए मिल रही है ? हमें यह स्वतंत्रता अपनी सामाजिक व्यवस्था को सुधारने के लिए मिल रही है, जो असमानताओं से भरी है। इतनी असमानताओं, भेदभावों और अन्य चीजों से भरी है, जो हमारे मौलिक अधिकारों के साथ नितन्तर टकराव करती रहती है। इसलिए, किसी के लिए भी यह कल्पना करना बिल्कुल असंभव है कि पर्सनल लॉ को राज्य के अधिकार क्षेत्र से बाहर रखा जाएगा।”
द हिन्दू कोड बिल के समय भी समान नागरिक संहिता पर भी चर्चा हुयी। अम्बेडकर के यूसीसी के दृष्टिकोण को हिंदू कोड बिल की उनकी मांग में भी देखा जा सकता है। हिंदू कोड बिल का उद्देश्य हिंदू पर्सनल लॉ के निकाय के स्थान पर एक समान नागरिक संहिता का स्वरूप प्रदान करना था, जिसे ब्रिटिश शासकों द्वारा एक सीमित सीमा तक ही, ब्रिटिश काल मे संशोधित किया गया था। इस कोड बिल पर भी कई हिंदुओ के नेताओं, जिनमें ज्यादातर उच्च वर्ग के ही थे, ने विधेयक का तब पुरजोर विरोध किया था। विरोध इतना बढ़ गया कि, संसद ने विवाह, विरासत आदि में समानता की मांग करने वाले विधेयक के अनेक ड्राफ्ट प्राविधान को स्थगित कर दिया था। जिसके परिणामस्वरूप डॉ अम्बेडकर ने 1951 में मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया। इस प्रकार, डॉ अम्बेडकर यूसीसी के समर्थन में सदैव मुखर रहे। संविधान सभा में तमाम उच्चवर्ग के हिंदुओं के कड़े प्रतिरोध के बावजूद, डॉ अम्बेडकर, एक समान नागरिक संहिता जो धर्म की जकड़न से समाज को मुक्त करती है के पक्ष में खड़े रहे।
जैसे तीन तलाक़ में बदलाव की मांग को कट्टरपंथी धड़ा इस्लाम में दख़ल बताता था, कुछ वैसा ही आज़ादी के बाद हिंदू रूढ़ियों में बदलाव किए जाने पर अतिवादियों ने उसे हिंदू धर्म पर हमला बताया था। 11 अप्रैल 1947 को डॉक्टर भीमराव आंबेडकर ने हिंदू कोड बिल पेश किया था। इस बिल में बिना वसीयत किए मृत्यु को प्राप्त हो जाने वाले हिंदू पुरुषों और महिलाओंं की संपत्ति के बंटवारे के संबंध में कानूनों को संहिताबद्ध किए जाने का प्रस्ताव था। यह विधेयक मृतक की विधवा, पुत्री और पुत्र को उसकी संपत्ति में बराबर का अधिकार देता था। इसके अतिरिक्त, पुत्रियों को उनके पिता की संपत्ति में अपने भाईयों से आधा हिस्सा प्राप्त होता। यह दो प्रकार के विवाहों को मान्यता देता था, सांस्कारिक व सिविल. इसमें हिंदू पुरूषों द्वारा एक से अधिक महिलाओं से शादी करने पर प्रतिबंध और अलगाव संबंधी प्रावधान भी थे। यह बिल ऐसी तमाम कुरीतियों को हिंदू धर्म से दूर कर रहा था जिन्हें परंपरा के नाम पर कुछ कट्टरपंथी जिंदा रखना चाहते थे। इसका जोरदार विरोध हुआ। डॉ आंबेडकर के तमाम तर्क और नेहरू का समर्थन भी बेअसर साबित हुआ और यह बिल 9 अप्रैल 1948 को सेलेक्ट कमेटी के पास भेज दिया गया।
बाद में 1951 को डॉ आंबेडकर ने हिंदू कोड बिल को संसद में दुबारा पेश किया। सनातनी धर्मावलम्बी से लेकर आर्य समाजी तक आंबेडकर के विरोधी हो गए। संसद में तीन दिन तक बहस चली। संसद में जहां जनसंघ समेत कांग्रेस का हिंदूवादी धड़ा इसका विरोध कर रहा था तो वहीं संसद के बाहर हरिहरानन्द सरस्वती उर्फ करपात्री महाराज के नेतृत्व में बड़ा प्रदर्शन चल रहा था। अखिल भारतीय राम राज्य परिषद की स्थापना करने वाले करपात्री का कहना था कि यह बिल हिंदू धर्म में हस्तक्षेप है. यह बिल हिंदू रीति-रिवाजों, परंपराओं और धर्मशास्त्रों और स्मृतियों के विरुद्ध है। करपात्री महाराज के साथ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, हिंदू महासभा और दूसरे हिंदूवादी संगठन हिंदू कोड बिल का विरोध कर रहे थे।
देश के पहले लोकसभा चुनाव के बाद नेहरू ने हिंदू कोड बिल को कई हिस्सों में तोड़ दिया। जिसके बाद 1955 में हिंदू मैरिज एक्ट बनाया गया, जिसके अंतर्गत तलाक को कानूनी दर्जा, अलग-अलग जातियों के स्त्री-पुरूष को एक-दूसरे से विवाह का अधिकार और एक बार में एक से ज्यादा शादी को गैरकानूनी घोषित कर दिया गया। इसके अलावा 1956 में ही हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, हिंदू दत्तक ग्रहण और पोषण अधिनियम और हिंदू अवयस्कता और संरक्षकता अधिनियम लागू हुए। ये सभी कानून महिलाओं को समाज में बराबरी का दर्जा देने के लिए लाए गये थे. इसके तहत पहली बार महिलाओं को संपत्ति में अधिकार दिया गया. लड़कियों को गोद लेने पर जोर दिया गया।
पर्सनल कानून की समस्या केवल मुसलमानों में ही नही है बल्कि यह सभी समाजो में है। हाईकोर्ट के जिस मुक़दमे का जिक्र किया गया है वह मीणा समाज का है जो आदिवासी तो है , पर खुद को हिन्दू विवाह अधिनियम के अंतर्गत तलाक़ के सवाल पर अलग कर लेता है। भारत एक बहुलतावादी देश है। हिन्दू समाज मे भी अलग अलग सामाजिक स्वीकृतियां औऱ सामाजिक वर्जनाएं हैं, जो कहीं कहीं परस्पर विरोधी भी है। ऐसी स्थिति में यूसीसी यानी समान नागरिक संहिता का एक सर्वमान्य ड्राफ्ट तैयार करना आसान नहीं होगा। सरकार ने अभी तक ड्राफ्ट तैयार करने का दायित्व विधि आयोग को नहीं दिया है। जब ड्राफ्ट सामने आए, तभी उस पर कुछ टिप्पणी की जा सकती है।
संविधान निर्माता, इस संहिता की इस जटिलता को समझते थे और इसीलिए उन्होंने पहले, समान नागरिक संहिता (यूसीसी) को पहले अनुच्छेद 35 में शामिल किया था, लेकिन इसे संविधान के अनुच्छेद 44 में बाद में स्थान दिया गया। डॉ अम्बेडकर का मानना था-
” धर्म को दिया गया व्यापक क्षेत्राधिकार विधायिका को सामाजिक न्याय लाने से रोकेगा।”
डॉ आंबेडकर, धर्म के इस प्रतिगामी स्वरूप से परिचित ही नहीं बल्कि धर्म के इस स्याह पक्ष को भुक्तभोगी भी थे। इस कारण समान नागरिक संहिता लागू न कर सकने के कारण, इसे नीति निर्देशक तत्वों के अंतर्गत स्थान दिया गया। संविधान सभा के सदस्य, यूसीसी पर, न तो एकमत थे और न ही बहुमत से सहमत। तब यह सोचा गया कि बाद में जब समय के साथ साथ मान्यताएं और विचार परिवर्तित होंगे तो इस बिंदु पर भविष्य में विचार किया जाएगा। आज जब इस विंदु पर चर्चा शुरू हो गयी है तो यह सवाल भी खड़ा हो जाता है कि, क्या यह उचित समय है कि हम, यूसीसी के विकल्पों पर बहस और चर्चा करें ? ऐसे समय मे, भारत जैसे बहुलतावादी देश मे, धर्मांध और रूढ़िवादी तत्वों और अपनी अपनी सामाजिक परंपराओ, मान्यताओं और रीतिरिवाजों के श्रेष्ठतावाद से जकड़ा हुआ समाज, क्या एक उदार और समान नागरिक संहिता को स्वीकार करने का जोखिम उठा लेगा ?