देश के संविधान में महिला पुरुष दोनों एक बराबर है पर समाज शायद ऐसा नहीं मानता। देश में विगत कुछ सालों में सामाजिक और परिस्थितियों में बदलाव ऐसा आया है कि आज महिलाएं भी अपने परिवार के साथ खड़े होने लिए कंधे से कंधा मिलाकर काम कर रही है। ऐसे में ये उनके सम्मान और सुरक्षा के लिए भी जरूरी हैं।
लेकिन सरकारी और निजी संस्थानों में महिलाओं की सुरक्षा को लेकर भारत का कानून सख्ती से कुछ नियमों के पालन के लिए कहता है जिसमें विशाखा गाइडलाइंस और हालिया निर्भया कांड के बाद कुछ नये सुझाव का पालन किया जाना चाहिए। पर होता असल में उल्टा है सुनने वाला नहीं जिनके कंधों पर इसे पालन करवाने का भार है वो खुद अपराध करने में व्यस्त है। उत्तराखंड की घटना में ये बात साफ होती है-
इसी संदर्भ में भारत का स्वर्ग कहा जानेवाला प्रदेश उत्तराखण्ड कलंकित हुआ है जहां पर लोकनिर्माण विभाग (PWD) देहरादून के वरिष्ठ अधिकारी एजाज़ अहमद द्वारा अपने अधीनस्थ महिला कर्मचारी के साथ बदसलूकी का मामला और शोषण करने का मामला प्रकाश में आया है ।
दिल्ली के अधिवक्ता व सामाजिक कार्यकर्ता के पास इस घटना की सूचना मिलने पर राष्ट्रीय महिला आयोग में इसकी शिकायत भी की गई, जांच में ये पता चला कि उस विभाग के अन्य अधिकारियों के साथ सांठगांठ से ये मामला दबाने की कोशिश जारी है।
कानून में महिलाओं की सुरक्षा को लेकर पहले भी काफी सतर्कता बरती गयी है, किन्तु फिर भी इन घटनाओं पर अंकुश लगाया जाना संभव नहीं हो पाया है। इस सम्बन्ध में उच्चतम न्यायालय का ”विशाखा बनाम राजस्थान राज्य एआईआर 1997 एससीसी 3011” का निर्णय विशेष महत्व रखता है। इस केस में सुप्रीम कोर्ट के तीन न्यायाधीशों की खंडपीठ ने महिलाओं के प्रति काम के स्थान में होने वाले यौन उत्पीड़न को रोकने के लिए विस्तृत मार्गदर्शक सिद्धांत दिए थे।
सभी नियमों को ताक पर रख करके महिला शोषण के खिलाफ न ही किसी प्रकार की कारवाई की गई अपितु अपने सहयोगी हरिओम शर्मा के समर्थन से एजाज अहमद ने लीपापोती कर के खुद को बचाने की कोशिश की।
यह विषय कितना गंभीर है इसका अंदाज़ा लगाया जा सकता है, कि जहां पर रक्षक ही भक्षक है फिर किसी सामान्य पीड़िता के लिए यह कितना मुश्किल होगा कि उसे न्याय मिल सके जब सारा सिस्टम ही एक असामाजिक किस्म के पदाधिकारी को नियंत्रित करने के बजाय उसे और बढ़ावा दे रहा हो ।