ज्ञानेन्द्र पाण्डेय: आम भारतीय की पहचान का प्रतीक है आधार लेकिन यही आधार भारतीय भाषाओं को बना रहा है निराधार। बात हिंदी या किसी एक भारतीय भाषा की नहीं है बल्कि सम्पूर्ण भारतीय भाषा जगत की है। इस जगत की किसी भी सदस्य भाषा को अभी तक यह सम्मान प्राप्त नहीं हुआ है कि उसे आधार आवेदन पत्र अथवा इससे जुड़े किसी भी सरकारी दस्तावेज की भाषा बन पाने का मौका मिल सका हो। भारतीय पहचान के प्रतीक इस विभाग के तमाम दस्तावेज एक मात्र अंगरेजी भाषा में हैं जिसे भारत तो दूर भारतीय उपमहाद्वीप के किसी देश की भाषा नहीं माना और कहा जाता। इसके विपरीत यह भाषा पूरब की संस्कृति से पलट पश्चिमी संस्कृति के उस देश से विकसित हुई है जिसे ब्रिटेन या , इंग्लैंड कहा जाता था। एक जमाने में यह कहा भी जाता था कि ब्रिटेन की सत्ता का सूर्य कभी अस्त नहीं होता। इस कहावत यह थी कि तब दुनिया के ज्यादातर देश इंग्लैंड के गुलाम थे।
ये देश यूरोप में भी थे और एशिया समेत दुनिया के अन्य महाद्वीपों में भी। सूर्य और चन्द्र की कलाओं की वजह से 24 घंटे में कहीं दिन तो कहीं रात होती है और ब्रिटेन की राजनीतिक वाले ये देश दोनों ही श्रेणियों में वर्गीकृत थे। मतलब यह कि दुनिया में चारों तरफ चौबीस घंटे ब्रिटेन का ही डंका बजा करता था . इस वजह से उनकी भाषा अंगरेजी का भी पूरी दुनिया में फैलाव हो गया। बाद के वर्षों में जब पूरी दुनिया के राजनीतिक हालात बदले और एक – एक कर अंग्रेजों को दुनिया के अधिकाँश देशों को किसी न किसी वजह से आजादी देनी ही पड़ी तो ज्यादातर पूर्व गुलाम देशों ने राजनीतिक रूप से आजाद होने के बाद अपने आप को सांस्कृतिक और भाषाई आधार पर भी आजाद कर लिया था, लेकिन भारत और इसकी मानसिकता से मेल खाने वाले ऐसे आजाद देशों की भी आज कोई कमी नहीं है जो वैचारिक रूप के साथ ही खुद को आज भी सांस्कृतिक रूप से भी अंग्रेज और अंगरेजी का गुलाम ही मानते हैं।
इन देशों की यह सांस्कृतिक गुलामी की मानसिकता कई तरीके से सामने आ ही जाती है। राष्ट्रीय पहचान के प्रतीक समझे जाने वाले भारत सरकार के प्रतिष्ठान भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण के दस्तावेजों की भाषा और प्राधिकरण के सामान्य कामकाज की भाषा में भी साफ़ दिखाई देती है। भाषाई गुलामी की मानसिकता के इसी सन्दर्भ को लेकर मुंबई स्थित एक भाषाई संस्थान वैश्विक हिंदी सम्मेलन ने सरकार से एक शिकायत की है। भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण द्वारा जनता से भाषाई आधार पर भेदभाव करने के सन्दर्भ में की गई इस लोक शिकायत में वैश्विक हिंदी सम्मेलन ने कहा है कि भारत सरकार के इस प्रतिष्ठान में जनता के साथ भाषाई आधार पर भेदभाव किया जा रहा है। मुंबई के इस भाषा संगठन की तरफ से मध्य प्रदेश के रायसेन जिले के एक भारतीय भाषा प्रेमी नागरिक अभिषेक कुमार द्ववारा की गई इस लोक शिकायत में भारतीय भाषाओं के महत्त्व को उद्घाटित करते हुए यह बात ख़ास तौर पर रेखांकित की गई है कि भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण ने देश की जनता को सभी सुविधाएं और जानकारियाँ केवल उन पांच प्रतिशत लोगों का हित ध्यान रख कर में उपलब्ध कराई जा रही हैं जिनको अंगरेजी भाषी कहा जाता है।
ऐसा करके यह राष्ट्रीय प्राधिकरण देश की 95 प्रतिशत जनता की खुलेआम अवहेलना और उपेक्षा कर रहा है। इसे किसी भी हाल में राष्ट्रहित में एक अच्छा कदम नहीं कहा जा सकता। अभिषेक कुमार की इस लोक शिकायत के मुताबिक़ पहली शिकायत यही है जो एकदम सही भी है कि प्राधिकरण के सभी आधार केन्द्रों पर केवल अंगरेजी भाषा को ही प्राथमिकता दी जा रही है । प्राधिकरण के अधिकारियों और कर्मचारियों का ऐसा करना राजभाषा नियमावली 1976 के नियाआम 11 का स्पष्ट उल्लंघन करने की श्रेणी का अपराध है।
राजभाषा क़ानून के इस प्रावधान का उल्लंघन करने का ही नतीजा है कि। भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण के लगभग सभी आधार केन्द्रों में सभी नामपट , स्टेशनरी और रबर की मुहर से लेकर सभी आवेदन पत्रों और अन्य सम्बंधित प्रपत्रों की भाषा केवल अंगरेजी ही होती है जबकि नियम के अनुसार होना यह चाहिए कि अंगरेजी के साथ ही क्षेत्रीय जरूरत के अनुरूप देश की विभिन्न भारतीय भाषाओं में यह सुविधा उपलब्ध होनी चाहिए पर व्यवहार में ऐसा नहीं हो रहा है। ऐसा होना बहुत ही दुखद और चिंताजनक भी है।
जिस देश में अपनी भाषा के लिए इस तरह की तिरस्कार की भावना हो उसमें किसी तरह के रचनात्मक विकास की उम्मीद कैसे की जा सकती है। इसके अलावा आधार केन्द्रों में भारतीय भाषाओं के मिजाज के अनुरूप काम करने के माहौल का भी अभाव देखा जाता है। आधार की वेब साईट भी पूरी तरह से अंगरेजी में ही है। ऐसा कोई व्यक्ति जिसे वेबसाईट संचालित करना तो आता है लेकिन अंगरेजी में उसका हात तंग है तो वह कैसे इस सुविधा का इस्तेमाल कर पायेगा। वेबसाईट ही नहीं ई मेल की सुविधा भी आंग्रेजी में ही उपलब्ध है। ऐसे में जो लोग जो अंग्रेजी नहीं जानते सरकार के किसी आदेश की भी जानकारी नहीं ले पाते। अंगरेजी के जानकार ज्यादातर लोग शहरों में रहने वाले होते हैं जबकि गाँव में रहने वाले ज्यादातर लोग अंगरेजी नहीं जानते इसलिए ऐसे लोगों को सरकार की महत्वपूर्ण जानकारी भी नहीं मिल पाती।
देश के करोड़ों लोगों को ऐसे आधार कार्ड जारी किये जा रहे हैं जिनमें अंगरेजी के अलावा हिंदी अथवा स्थानीय क्षेत्रीय भाषा में कोई विवरण प्रकाशित नहीं होता। इस पृष्ठभूमि में जब आधार कार्ड की सभी जानकारियाँ केवल अंगरेजी में ही मिल रही हों तब ये उम्मीद कैसे की जा सकती है कि देश की सभी सरकारी सोच्नाएं जनता की पहुँच में हैं। ऐसा मानना किसी अन्य को नहीं खुद अपने आप को धोखे में रखना ही होगा .इस प्रवृत्ति से बचने की सख्त जरूरत है।