सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को कहा कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता एक स्वस्थ सभ्य समाज का “अभिन्न अंग” है। शीर्ष अदालत ने कांग्रेस सांसद इमरान प्रतापगढ़ी के खिलाफ सोशल मीडिया पर अपलोड की गई एक कविता को लेकर दर्ज की गई एफआईआर को रद्द कर दिया। गुजरात पुलिस के खिलाफ सख्त टिप्पणी करते हुए शीर्ष अदालत ने कहा कि दुश्मनी को बढ़ावा देने के अपराध का आकलन “असुरक्षित लोगों” के मानकों से नहीं किया जा सकता है, जो हर चीज को खतरे या आलोचना के रूप में देखते हैं।
न्यायमूर्ति ए एस ओका और न्यायमूर्ति उज्जल भुयान की पीठ ने कहा, “विचारों और दृष्टिकोणों की स्वतंत्र अभिव्यक्ति स्वस्थ सभ्य समाज का अभिन्न अंग है। इसके बिना संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत गारंटीकृत गरिमापूर्ण जीवन जीना असंभव है। कविता, नाटक, कला, व्यंग्य सहित साहित्य जीवन को समृद्ध बनाता है।”
कोर्ट ने कहा कि एक स्वस्थ्य लोकतंत्र में किसी व्यक्ति या समूह द्वारा व्यक्त विचारों का जवाब किसी अन्य दृष्टिकोण से दिया जाना चाहिए। भले ही बड़ी संख्या में लोग किसी विचार से असहमत हों, लेकिन विचार प्रकट करने के व्यक्ति के अधिकार का सम्मान और संरक्षण किया जाना चाहिए। साहित्य, जिसमें कविता, नाटक, फिल्म, व्यंग्य और कला शामिल हैं, मनुष्य के जीवन को अधिक सार्थक बनाते है।
जस्टिस ओका ने अपने फैसले में कहा कि कोई अपराध नही हुआ। जब आरोप लिखित रूप में हो तो पुलिस अधिकारी को इसे पढ़ना चाहिए, जब अपराध बोले गए या बोले गए शब्दों के बारे में हो। कोर्ट ने कहा कि न्यायाधीशों को बोले गए या लिखे गए शब्द पसंद नहीं आ सकते हैं, फिर भी हमें इसे संरक्षित करने और संवैधानिक सुरक्षा का सम्मान करने की आवश्यकता है। जब पुलिस इसका पालन नही करती है। संवैधानिक न्यायालयों को संवैधानिक अधिकारों की रक्षा के लिए सबसे आगे रहना चाहिए और मुक्त भाषण सबसे अधिक पोषित अधिकार है।
वही जस्टिस उज्ज्वल भुइयां ने अपने फैसले में कहा कि नागरिक होने के नाते पुलिस अधिकारी अधिकारों की रक्षा करने के लिए बाध्य है। जब धारा 196 बीएनएस के तहत अपराध होता है तो इसे कमजोर दिमाग या उन लोगों के मानकों के अनुसार नहींआंका जा सकता है, जो हमेशा हर आलोचना को अपने ऊपर हमला मानते है।
मामले की सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने पुलिस द्वारा दर्ज एफआईआर पर कहा था कि संविधान लागू होने के 75 साल बाद कम से कम पुलिस को अब अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को समझनी चाहिए।
जस्टिस ओका ने कहा था कि जब अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की बात आती है तो इसकी रक्षा की जानी चाहिए। उन्होंने कहा था कि पुलिस को एफआईआर दर्ज करने से पहले कुछ संवेदनशीलता दिखानी चाहिए। उन्हें (संविधान के अनुच्छेदों को)पढ़ना चाहिए और समझना चाहिए। इमरान प्रतापगढ़ी पर कथित तौर पर भड़काऊ गाना शेयर करने के आरोप में उनके खिलाफ दर्ज प्राथमिकी को रद्द करने की मांग की गई थी।
यह फैसला हास्य कलाकार कुणाल कामरा से जुड़े विवाद की पृष्ठभूमि में महत्वपूर्ण है, जो एक पैरोडी के दौरान शिवसेना प्रमुख एकनाथ शिंदे को “देशद्रोही” कहने के लिए मानहानि के मुकदमे का सामना कर रहे हैं।
एफआईआर को रद्द करने से इनकार करने के लिए गुजरात उच्च न्यायालय की आलोचना करते हुए पीठ ने अदालतों और पुलिस को संवैधानिक अधिकारों की रक्षा करने के उनके कर्तव्य की याद दिलाते हुए कहा कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता “सबसे प्रिय अधिकार” है।
शीर्ष अदालत ने कहा, “अदालतें मौलिक अधिकारों को बनाए रखने और लागू करने के लिए कर्तव्यबद्ध हैं। कभी-कभी हम न्यायाधीशों को बोले गए या लिखे गए शब्द पसंद नहीं आते हैं, लेकिन… हम संविधान और संबंधित आदर्शों को बनाए रखने के लिए भी बाध्य हैं।”
सर्वोच्च न्यायालय ने पुलिस को यह सुनिश्चित करने का निर्देश दिया कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर “उचित प्रतिबंध” “उचित रहें, काल्पनिक और अवरोधक न हों”।
क्या है मामला?
गुजरात में कांग्रेस सांसद प्रतापगढ़ी के खिलाफ मामला दर्ज किया गया था, जब उन्होंने सोशल मीडिया पर एक कविता शेयर की थी, जिसके बैकग्राउंड में ‘ऐ खून के प्यासे बात सुनो’ गाना बज रहा था। इसे भाजपा शासित सरकार पर कटाक्ष माना गया था।
17 जनवरी को गुजरात हाई कोर्ट ने एफआईआर रद्द करने से इनकार कर दिया था। जनवरी में मामले की सुनवाई के बाद सुप्रीम कोर्ट ने अपना फैसला सुरक्षित रख लिया था।
सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि कविता धर्म विरोधी या राष्ट्र विरोधी नहीं है और पुलिस को संवेदनशीलता दिखानी चाहिए और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मतलब समझना चाहिए।