नोटबंदी पर सुप्रीम कोर्ट ने 2 जनवरी को 4:1 के बहुमत से फैसला सुनाया। सुप्रीम कोर्ट द्वारा सुनाया गया फैसला सरकार और आरबीआई के फैसले को सही ठहराता है लेकिन 5 जजों की पीठ में एक जज ने बांकी जजों से अलग अपनी राय रखी और सरकार के फैसले के प्रति असहमति जताई। लाइव लॉ के मुताबिक जस्टिस बी.वी. नागरत्ना ने नोटबंदी के फैसले को सही नहीं ठहाराया और उनका माना ये है कि नोटबंदी को लागू करते समय कानूनी प्रक्रिया का पालन नहीं किया गया।
जस्टिस बीवी नागरत्ना ने कहा कि “हालांकि नोटबंदी पहले से राय-विचार करके लिया गया फैसला था, लेकिन इसे कानूनी आधार पर गैरकानूनी घोषित किया जाना चाहिए।”
मालूम हो कि सुप्रीम कोर्ट की 5 जजों की संविधान पीठ ने, जिसमे जस्टिस एस अब्दुल नज़ीर, बीआर गवई, एएस बोपन्ना, वी रामासुब्रमण्यन और बीवी नागरत्ना शामिल थे, ने 7 दिसंबर, 2022 को नोटबंदी की याचिकाओं पर अपना फैसला सुरक्षित रख लिया था।
जस्टिस अब्दुल नजीर की अध्यक्षता वाली 5 जजों की संवैधानिक बेंच ने कहा कि आर्थिक फैसलों को बदला नहीं जा सकता। जस्टिस बीआर गवई ने कहा कि नोटबंदी का उन उद्देश्यों (कालाबाजारी, आतंकवाद के वित्तपोषण को समाप्त करना आदि) के साथ एक उचित संबंध था जिसे प्राप्त करने की मांग की गई थी। उन्होंने कहा कि यह प्रासंगिक नहीं है कि उद्देश्य हासिल किया गया था या नहीं। पीठ ने आगे कहा कि नोटों को बदलने के लिए 52 दिनों की निर्धारित अवधि को अनुचित नहीं कहा जा सकता है।
शीर्ष अदालत ने अपने फैसले में कहा कि, “RBI को स्वतंत्र शक्ति नहीं है कि वह बंद किए गए नोट को वापस लेने की तारीख बदल दे। केंद्र सरकार RBI की सिफारिश पर ही इस तरह का निर्णय ले सकती है”।
अदालत ने कहा कि कोर्ट, आर्थिक नीति पर बहुत सीमित दखल दे सकता है। जजों की बेंच ने कहा कि, “नोटबंदी को लेकर केंद्र और आरबीआई के बीच 6 महीने तक चर्चा की गई थी, इसलिए निर्णय प्रक्रिया को गलत नहीं कहा जा सकता है। जहां तक लोगों को हुई दिक्कत का सवाल है, यहां यह देखने की जरूरत है कि उठाए गए कदम का उद्देश्य क्या था।”
हालांकि, जस्टिस बी वी नागरत्ना ने बाकी जजों की राय से अपनी असहमति व्यक्त की। उन्होंने कहा कि “500 रुपये और 1000 रुपये के नोटों की नोटबंदी एक गंभीर मामला है और यह केवल गजट अधिसूचना जारी करके केंद्र द्वारा नहीं किया जा सकता है। इसे कानूनी आधार पर (न कि उद्देश्यों के आधार पर) गैरकानूनी घोषित किया जाना चाहिए। केंद्र सरकार के इशारे पर नोटों की सभी श्रृंखलाओं का विमुद्रीकरण बैंक द्वारा विशेष श्रृंखलाओं के विमुद्रीकरण की तुलना में कहीं अधिक गंभीर विषय है। इसलिए, इसे कानून के माध्यम से किया जाना चाहिए।” उन्होंने आगे कहा कि, “आरबीआई ने स्वतंत्र रूप से, अपने मस्तिष्क का इस्तेमाल नहीं किया और केवल विमुद्रीकरण के लिए केंद्र की इच्छा को अपनी मंजूरी दे दी”। आरबीआई द्वारा प्रस्तुत रिकॉर्ड को देखने पर, उन्होंने कहा “आरबीआई ने नोटबंदी की सिफारिश में स्वतंत्र रूप से दिमाग नहीं लगाया, 24 घंटे में पूरी कवायद कर दी गई।”
जस्टिस नागरत्ना की यह टिप्पणी, आरबीआई अधिनियम की धारा 26(2) के तहत केंद्र सरकार की शक्तियों के बिंदु पर बहुमत के फैसले से भी अलग थी।
लाइव लॉ के मुताबिक जस्टिस बी.वी. नागरत्ना ने कहा, “जब नोटबंदी का प्रस्ताव केंद्र सरकार से आता है, तो यह भारतीय रिजर्व बैंक अधिनियम की धारा 26 (2) के तहत नहीं आता है। यह कानून बनाकर ही लाया जा सकता है और अगर गोपनीयता की जरूरत है, तो फिर अध्यादेश ही सिर्फ रास्ता बचता है। धारा 26(2) के अनुसार नोटबंदी का प्रस्ताव आरबीआई का केंद्रीय बोर्ड ही ला सकता है”।
उन्होंने कहा, “अगर यह मान लिया जाए कि आरबीआई के पास ऐसी पावर है। लेकिन इस पावर का कोई महत्व नहीं है, क्योंकि धारा 26(2) के तहत उसे पावर सिर्फ करेंसी नोटों की किसी विशेष सीरीज के लिए मिली है। सारे करेंसी नोटों की पूरी सीरीज के लिए नहीं”।
इससे पहले नोटबंदी की याचिकाओं पर फैसला सुरक्षित रखते हुए शीर्ष अदालत ने केंद्र सरकार और भारतीय रिजर्व बैंक से संबंधित रिकॉर्ड पेश करने को कहा था। भारत के अटॉर्नी जनरल आर वेंकटरमणि ने कहा था कि दस्तावेजों को सीलबंद लिफाफे में पेश किया जाएगा। सुनवाई के दौरान, पीठ ने कहा था कि वह सिर्फ इसलिए हाथ जोड़कर नहीं बैठेगी क्योंकि यह एक आर्थिक नीति का फैसला है और कहा था कि कोर्ट, उस तरीके की जांच कर सकती है जिसमें फैसला लिया गया था।
मामले की सुनवाई के शुरूआती दिनों में संविधान पीठ ने कहा था कि, “यह मुद्दा “प्रशासनिक” था। 12 अक्टूबर को, वरिष्ठ वकील पी चिदंबरम द्वारा दिए गए तर्कों के बाद, सुप्रीम कोर्ट की बेंच गुण-दोष के आधार पर मामले की सुनवाई के लिए सहमत हुई। पीठ ने केंद्र सरकार और भारतीय रिजर्व बैंक को निर्णय से संबंधित संबंधित दस्तावेज और फाइलें पेश करने को कहा।
याचिकाकर्ताओं की ओर से वरिष्ठ वकील पी चिदंबरम ने दलीलें देते हुए कहा कि नोटबंदी के निर्णय के प्रभावों को पूर्ववत नहीं किया जा सकता है। कोर्ट को भविष्य के लिए कानून बनाना चाहिए, ताकि ऐसी चीज़ें भविष्य की सरकारों द्वारा ना दोहराया जाए। अन्य याचिकाकर्ताओं की तरफ से वरिष्ठ वकील श्याम दीवान, प्रशांत भूषण ने भी दलीलें रखीं। बाद में भी कुछ लोगों द्वारा याचिकाएं दायर की गई, जिनमें नोट बदलने की समय सीमा बढ़ाने की मांग की गई थी।
भारत के अटॉर्नी जनरल आर वेंकटरमणी केंद्र सरकार के नोटबंदी के फैसले के बचाव में केंद्र सरकार की ओर से पेश हुए। एजी ने कोर्ट को बताया कि फेक करेंसी, काले धन और आतंकी गतिविधि को रोकने के लिए ये निर्णय लिया गया था। उन्होंने कोर्ट में तर्क दिया कि आर्थिक नीतिगत फैसलों में न्यायिक समीक्षा का दायरा लगभग ना के बराबर है। उन्होंने कहा- यहां तक कि अगर यह मान भी लिया जाए कि नोटबंदी अनुरूप परिणाम देने में सफल नहीं हुई है, तो भी न्यायिक रूप से इस निर्णय को अमान्य करार देने का कारण नहीं हो सकता है, क्योंकि यह उचित प्रक्रिया का पालन करते हुए लिया गया फैसला है। भारतीय रिज़र्व बैंक की ओर से पेश वकील जयदीप गुप्ता ने कोर्ट को बटगया कि केंद्रीय बैंक ने केंद्र सरकार द्वारा दी गई सिफारिश के आधार पर निर्णय लिया।