सत्रहवीं लोकसभा चुनाव से पहले सुप्रीम कोर्ट के तब चीफ जस्टिस रंजन गोगोई तथा दो अन्य न्यायाधीशों – जस्टिस दीपक गुप्ता और जस्टिस संजीव खन्ना की पीठ ने चुनावी बॉन्ड के खिलाफ कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया माकसिस्ट (सीपीएम) और एक गैर-सरकारी स्वैच्छिक संगठन ,एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) की दाखिल जनहित याचिकाओं पर अंतरिम आदेश में इन पर तत्काल रोक लगाने से इंकार कर दिया था। पर सुप्रीम कोर्ट ने सभी पंजीकृत राजनीतिक पार्टियों को इन बॉन्ड के जरिये उन्हें चंदा देने वाले लोगों की पहचान का विवरण सीलबंद लिफाफे में निर्वाचन आयोग को 30 मई 2019 तक सौंपने का निर्देश दिया था। चुनावों के बारे में 12 जनवरी 2019 को जनचौक न्यूज पोर्टल पर प्रकाशित हमारी रिपोर्ट में 2019 का लोकसभा चुनाव सबसे खर्चीला होने का व्यक्त हमारा आँकलंन सच साबित हुआ है।
सीपीएम के मुताबिक उसने कभी इन बांड से चंदे नहीं लिए हैं। किसी भी अन्य पार्टी ने निर्धारित तिथि तक आयोग को ये विवरण नहीं दिए। इस पर आयोग ने सभी पार्टियों को पत्र भेज कर सुप्रीम कोर्ट के आदेश की तामील करने कहा। अदालती आदेश की तामील नहीं करने पर आयोग और खुद कोर्ट क्या कर सकता है, यह भविष्य के गर्भ में है। वैसे, आयोग चाहे तो इन पार्टियों का पंजीकरण रद्द भी कर सकता है।
इस बीच, एडीआर की हालिया रिपोर्ट में आयोग से पंजीकृत और मान्यता प्राप्त दलों की आय, सम्पत्ति और देनदारियों का विवरण दिया गया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) चुनावी चन्दा लेने में सबसे आगे है। उसकी घोषित सम्पत्ति आयोग से मान्यता प्राप्त सात राष्ट्रीय पार्टियों की कुल घोषित सम्पत्ति का 70 फीसद है। रिपोर्ट में 44 क्षेत्रीय दलों की सम्पत्ति आदि का भी ब्योरा है। ये ब्योरा इन पार्टियों के 2019-20 में स्वघोषित सम्पत्ति के आधार पर है। उनकी अघोषित संपत्ति का अता-पता शायद ही किसी को हो। राष्ट्रीय पार्टियों की कुल 6988 करोड़ 57 लाख रुपये की घोषित सम्पत्ति में भाजपा का हिस्सा 4847 करोड़ 78 लाख रुपये है। 2017 में भाजपा की घोषित सम्पत्ति 1213 करोड़ 13 लाख रुपये ही थी जो 2018 में बढ़कर 1483 करोड़ 35 लाख रुपये हो गई। उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती की बहुजन समाज पार्टी ( बसपा ) की घोषित संपत्ति 698 करोड़ 33 लाख रुपये है। संपत्ति के मामले में भाजपा के बाद उसी का बोलबाला है। कांग्रेस की कुल घोषित सम्पत्ति 588 करोड़ 16 लाख रुपये है।राष्ट्रीय पार्टियों में शामिल कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया मार्क्सिस्ट (सीपीएम) और कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया ( सीपीआई) से ज्यादा संपत्ति पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की आल इंडिया तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) और पूर्व रक्षा मंत्री शरद पवार के राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) की है।
2014 के लोकसभा चुनाव के बाद केन्द्रीय सत्ता में कांग्रेस की जगह भाजपा के दाखिल हो जाने के सात बरस में उसे ही सबसे अधिक चन्दा मिला है। भाजपा ने आयोग को सौंपी लिखित रिपोर्ट में कबूल किया है कि उसे कॉर्पोरेट और व्यक्तिगत स्तर पर भी 2019-20 में 785 करोड़ रुपये चन्दा मिला। ये कांग्रेस को मिले 139 करोड़ के चन्दे से पाँच गुणा ज्यादा है। पूँजीपतियों द्वारा राजनीतिक दलों को चन्दा देने के गोरखधंधा में मदद के लिए मोदी सरकार ने 2017 में चुनावी बॉड्स की योजना शुरू की थी। उन बॉंडस की चुनिंदा बैंक शाखाओं से खरीद से मिला धन पार्टियों की आय का अब प्रमुख ज़रिया हो गया है। चन्दा देने वाले के विवरण आम लोगों के बीच जारी नहीं किये जाते हैं। इन बॉन्ड की खरीद करने वाली कंपनियों आदि को आय कर में आकर्षक छूट दी जाती है। 2019-20 में चुनावी बॉण्ड्स से 3429 करोड़ 56 लाख रुपये चन्दा की आमद हुई थी। इसका 87.29 फ़ीसदी हिस्सा चार पार्टियों को मिला जिनमें भाजपा अव्वल है। चुनावी बॉन्ड से भाजपा को 2555 करोड़ रु और कांग्रेस को 317 करोड़ 86 लाख रु के चंदे मिले।
भारत में पूंजीपति वर्ग का कमाया काला धन उनके धन्धों में लगता है जो स्विटजरलैंड , पनामा, मॉरिसस आदि देशों की टैक्स-फ्री व्यवस्था के केंद्रों से घूम फिर कर प्रत्यक्ष विदेशी पूंजीनिवेश (एफडीआई ) के रूप में भारत में लौट वैध बन सफ़ेद हो जाता है। हमारी किताब, न्यू इंडिया में चुनाव में इसका उल्लेख है कि काला से सफेद हुए धन की ताकत और ज्यादा होती है।
2019-20 में सात राष्ट्रीय चुनावी दलों की सम्पत्ति का कुल योग 6988 करोड़ 57 लाख रु है। 2016-17 में इनकी सम्पत्ति कुल 3260 करोड़ 81 लाख रु थी। 44 क्षेत्रीय पार्टियों की सम्पत्ति कुल 2129 करोड़ 38 लाख रु थी। 2018 में 92 फीसद चन्दा भाजपा और कांग्रेस को मिला। सीपीएम की कुल घोषित सम्पत्ति 569 करोड़ 52 लाख रु और सीपीआई सम्पत्ति 29 करोड़ 78 लाख रु है। 2020 में सीपीएम को 93 करोड़ दो लाख रु और सीपीआई को तीन करोड़ दो लाख रु चन्दा मिला।
ऑक्सफैम की हालिया रिपोर्ट के मुताबिक भारत में 2021 में 84 फीसद घरों की आय बहुत घटी है। पर देश के 100 सबसे अधिक अमीर परिवारों की आमदनी बेतहाशा बढ़ी है। भारत में स्वघोषित खरबपतियों की संख्या 102 से बढ़कर 142 हो गयी है। ऐसे व्यवस्था करने की मांग लगातार उठ रही है कि कोई भी चन्दा दाता , सार्वजनिक रूप से पहचाना जा सके। अभी हर प्रत्याशी उसके निर्वाचन क्षेत्र में 70 लाख रु तक खर्च कर सकता है। पर चुनाव प्रत्याशियों के अधिकतम खर्च की निर्वाचन आयोग द्वारा तय सीमा का अब कोई सेंस ही नहीं रहा। क्योंकि चुनावी प्रचार आदि में सियासी पार्टियों और उनके नेताओं के खर्च की कोई सीमा ही नहीं है। 2019 के लोक सभा चुनाव में घोषित रूप से 1264 करोड़ रु और कांग्रेस ने 820 करोड़ रु खर्च किये थे। चन्दा देने और लेने पर आयकर कानून, कम्पनीज एक्ट ऑफ इंडिया और विदेशी मुद्रा नियमन अधिनियम (एफसीआरए) आदि की जो भी बंदिशें थीं उन्हें चुनावी बॉंडस के प्रावधानों ने हटा दिया।
2019 -20 में सात राष्ट्रीय पार्टियों द्वारा घोषित कुल संपत्ति में से 69.37 फीसद भाजपा के थे। भाजपा ने अपनी संपत्ति 4847 करोड़ 78 लाख करोड़ रु घोषित की थी जो सबसे अधिक थी। बसपा ने 698.33 करोड़ रु, कांग्रेस ने 588 करोड़ 16 लाख रु की संपत्ति घोषित की थी। इन सात दलों में भाजपा , बसपा , कांग्रेस , सीपीएम, सीपीआई , एनसीपी और टीएमसी शामिल है। 44 क्षेत्रीय पार्टियां है। इन सभी राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दलों की संपत्ति में बैंकों में जमा फिक्स डिपॉजिट भी है। भाजपा के 3253 करोड़ रु, बसपा के 618.86 करोड़ रु और कांग्रेस के 240.90 करोड़ रु के फिक्स डिपॉजिट थे।
एडीआर की सितंबर 2021 में जारी रिपोर्ट के मुताबिक क्षेत्रीय दलों में से उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव और अखिलेश सिंह यादव की समाजवादी पार्टी (सपा) के 563.47 करोड़ रु, तेलंगाना के मुख्यमंत्री कल्वाकुंतला चंद्रशेखर राव ( केसीआर ) की पार्टी तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस ) के 301.47 करोड़ रु और तमिलनाडु की दिवंगत पूर्व मुख्यमंत्री जे जयललिता की आल इंडिया द्रविड मुनेत्र कषगम ( एआईएडीएमके ) के 267.61 करोड़ रु के फिक्स डिपॉजिट थे। 2019-20 में भाजपा को अज्ञात स्त्रोत से 2,642.63 करोड़ रु मिले। अज्ञात स्त्रोतों से सातों राष्ट्रीय दलों में से सबसे ज्यादा 78.24 फीसद चंदे भाजपा को ही मिले।
चुनावी बांड की खरीद-फरोख्त की अधिसूचना जारी होने के बाद फरवरी 2018 में सीपीएम और एडीआर ने सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिकाएं दाखिल कर इसकी वैधता को चुनौती दी थी। याचिका में यह दलील देकर चुनावी बांड्स पर अंतरिम रोक लगाने की याचना की गई थी कि चुनाव से पहले आम तौर पर चुनावी फंडिंग में तेजी आ जाती है। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने अंतरिम रोक लगाने से इंकार कर दिया। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में अंतरिम आदेश जारी कर कहा कि ऐसे सभी दल, जिनको चुनावी बॉन्ड के जरिए चंदा मिला है वो सील कवर में निर्वाचन आयोग को 30 मई 2019 तक ब्योरा दे दें जो इसे सेफ कस्टडी में रखेगा.सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि वह मामले की विस्तृत सुनवाई की तारीख बाद में तय करेगा. नई तारीख आज तक नहीं की गई है। इस दौरान जस्टिस गोगोई की जगह जस्टिस शरद अरविन्द बोबड़े और उनकी जगह नूतलपाटि वॆंकटरमण चीफ जस्टिस बन चुके है।
सुप्रीम कोर्ट के के आदेश से याचिकाकर्ता संतुष्ट नहीं हैं. एडीआर के प्रोफेसर जगदीप चोकर के मुताबिक इसकी गारंटी नहीं है कि राजनीतिक दल सारी जानकारी चुनाव आयोग को देंगे। उन्होंने कहा सरकार कहती रही है कि इलेक्टोरल बॉन्ड गुमनाम हैं। इन पर किसी का नाम नहीं है. ऐसे में राजनीतिक दल ये कह सकते हैं कि बॉन्ड , पोस्ट के माध्यम से उनके पास आए और इन पर भेजने वाले का नाम नहीं है. उनकी राय में सुप्रीम कोर्ट को स्टेट बैंक ऑफ इंडिया से पूछना चाहिए कि इलेक्टोरेल बॉन्ड किसने खरीदे और कितने रुपये में खरीदे. स्टेट बैंक को इलेक्टोरल बॉन्ड से जुड़ी सारी जानकारी सार्वजनिक करना चाहिए.
क्या है ये बांड्स-
इलेक्टोरल बांड्स एक तरह से बैंक नोट है जो उसका धारक बिना किसी ब्याज के भुना सकता है।इसे भारत का कोई भी व्यक्ति खरीद सकता है।देश में पंजीकृत कोई संस्था भी इसे खरीद सकती है. ये बांड्स स्टेट बैंक ऑफ़ इण्डिया की चुनिंदा शाखाओं से एक हज़ार रु , 10 हज़ार रूपये ,एक लाख रु और एक करोड़ रु के गुणक में जारी किये जाते है। कोई भी चन्दा दाता, केवायसी ( नो योर कस्टमर ) की शर्तें पूरी करने वाले अपने बैंक खाता के जरिये इसे खरीद सकता है। वो दाता ये बांड्स अपनी पसंद की राजनीतिक पार्टी को दान दे सकता है. बांड्स के धन की निकासी उक्त पार्टी के निर्वाचन आयोग द्वारा वेरिफाइड बैंक खाता से 15 दिनों के भीतर की जा सकती है. हर राजनीतिक पार्टी को जो लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम(1951) के सेक्शन 29 ए के तहत पंजीकृत है और जिसने लोकसभा या विधान सभा चुनाव में दर्ज कुल वोट का न्यूनतम एक प्रतिशत प्राप्त किया हो निर्वाचन आयोग एक वेरिफाइड खाता खोलने की अनुमति देता है। चुनावी बांड्स के लेन-देन इसी खाता के जरिये किये जा सकते हैं.ये बांड्स केंद्र सरकार द्वारा निर्दिष्ट प्रत्येक तिमाही जनवरी , अप्रैल , जुलाई और अक्टूबर के प्रथम 10 दिनों तक खरीदे जा सकते है।जिस वर्ष लोकसभा चुनाव होने हैं उस वर्ष केंद्र सरकार द्वारा निर्दिष्ट अतिरिक्त 30 दिनों में भी ये बांड्स ख़रीदे जा सकते हैं। बांड पर दाताओं के नाम नहीं होते। लेकिन बैंक के पास दाताओं और उन पार्टी के विवरण उपलब्ध होते हैं जिसे ये बांड्स दान दिए गए है। जरुरी नहीं कि राजनीतिक दलों को दाताओं का विवरण पता चले। सरकारी के मुताबिक इसका उद्देश्य ये है कि बांड्स के दान का ब्योरा पार्टियों के वेरिफाइड बैंक खाता की बैलेंस शीट में होगा। लेकिन ये सब गोपनीय रखा जाएगा। खुरपेंच इसी गोपनीयता को लेकर है जो लोकतांत्रिक चुनाव में चंदों के बतौर धन के लेन-देन की पारदर्शिता को रोकता है।
2017 में तत्कालीन केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली ने केंद्रीय बजट भाषण में था कि इलेक्टोरल बांड्स स्कीम का उद्देश्य नगदी विहीन अर्थव्यवस्था की तरफ कदम बढ़ाना और देश में राजनीतिक फंडिंग की व्यवस्था को ” साफ सुथरा ” करना है। किसी भी राजनीतिक दल को नगद में अधिकतम दो हज़ार रूपये का ही चन्दा दिया जा सकता है। लेकिन वे इससे अधिक चन्दा इलेक्टोरल बांड्स के अलावा चेक अथवा डिजिटल रूप में प्राप्त कर सकते है। चन्दा देने और लेने वाले को भी कर में छूट मिलेगी बशर्ते वे अपना आय कर रिटर्न भरें।
बांड्स की बिक्री में उछाल-
पूर्व मुख्य निर्वाचन आयुक्त एस वाय कुरेशी के अनुसार चुनावी बांड ने देश में लम्पट (क्रोनी) पूंजीवाद को वैधता प्रदान कर दी है. इसके कारण राजनीतिक दलों को दिए जाने वाले चंदों में पारदर्शिता ख़त्म हो गई है. इससे सरकार को तो यह पता चल जाता है कि किसने किस दल को कितने धन दिए. लेकिन नागरिकों को अँधेरे में रखा जाता है. उनके मुताबिक भाजपा के नेशनल डेमोक्रेटिक अलायंस की सरकार ने जनवरी 2018 में चुनावी बांड्स स्कीम शुरू करते समय वादा किया था कि इससे राजनीतिक दलों को धन देने में पारदर्शिता आएगी। लेकिन जो हुआ वो ठीक उलटा है। कुरैशी का कहना है कि राजनीतिक दलों को लम्पट पूंजीपतियों द्वारा इस तरह धन देने के लोकतांत्रिक व्यवस्था में दूरगामी खतरनाक अंजाम हो सकते है। उन्होंने दो टूक कहा कोई पूंजीपति मुफ़्त में धन नहीं देता है। किसी पूंजीपति ने धन दिया है तो वह उसके एवज में कुछ न कुछ लेगा ही और इससे राजकाज में उसकी दखल का रास्ता बढ़ेगा. 2010 से 2012 तक मुख्य निर्वाचन आयुक्त रहे कुरैशी ने सुप्रीम कोर्ट में इस स्कीम का विरोध करने के लिए निर्वाचन आयोग की सराहना की। लेकिन सरकार ने आयोग के रूख का विरोध किया।
17वीं लोकसभा चुनाव के ठीक पहले चुनावी बांड्स की बिक्री में भारी उछाल आ गया। पुणे के विहार दुर्वे को सूचना के अधिकार (आरटीआई) के तहत दाखिल उनकी अर्जी पर सूचित किया गया कि सार्वजानिक क्षेत्र के स्टेट बैंक ऑफ़ इण्डिया ने 2019 के चुनावी वर्ष में पिछले वर्ष की तुलना में 62 फीसद से अधिक चुनावी बांड्स बेचे। इस बैंक ने पिछले वर्ष मार्च, अप्रैल , मई , जुलाई, अक्टूबर और नवम्बर में कुल 1056.73 करोड़ रु के बांड्स बेचे थे। उस वर्ष जनवरी और मार्च में ही इनकी बिक्री 1716.05 करोड़ रु तक पहुँच गयी। सबसे ज्यादा करीब 500 करोड़ रु के बांड्स भारत की वित्तीय राजधानी माने जाने वाले मुंबई में बिके। कोलकाता में 370 करोड़ रु , हैदराबाद में 290 करोड़ रु, दिल्ली में 205 करोड़ रु और भुवनेश्वर में 194 रु के बांड्स बिके। स्टेट बैंक ऑफ़ इण्डिया इन बांड्स की बिक्री की केंद्रीय वित्त मंत्रालय द्वारा जारी अधिसूचना के बाद अपनी निर्दिष्ट शाखाओं में निर्धारित अवधि में करती है। मध्य प्रदेश के नीमच के सामाजिक कार्यकर्ता चंद्रशेखर गौड़ की आरटीआई अर्जी से जानकारी मिली कि मार्च 2018 से जनवरी 2019 तक राजनीतिक दलों को बॉन्ड के जरिये जो चंदा मिला उनमे 99.80 फीसद चंदा 10-10 लाख रु और एक–एक करोड़ रु मूल्य के थे. करीब दस माह में चन्दा दाताओं ने कुल 1407.09 करोड़ रु के इलेक्टोरल बांड्स खरीदे जिनमें से 1403.90 करोड़ रु के बांड्स 10 लाख रु और एक करोड़ रु मूल्य के थे.ये जानकारी नहीं दी गयी कि कितने राजनितिक दलों ने इलेक्टोरल बांड्स को भुनाया है। चन्दादाताओं ने 10-10 लाख रु के 1459 इलेक्टोरल बांड्स, एक –एक करोड़ रु के 1,258 बांड्स, एक -एक लाख रु के 318 बांड्स, दस–दस हज़ार रु के 12 बांड्स और एक -एक हज़ार रु के कुल 24 बांड्स खरीदे।
चुनावी वर्ष में इलेक्टोरल बांड्स की बिक्री में आये उछाल से राजनीतिक चंदों के लेन-देन के ‘ गोरखधंधा ‘ ही नही बल्कि चुनाव में अपार खर्च की वास्तविकता को समझने में भी आसानी हो सकती है. कांग्रेस प्रवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी के अनुसार चुनावी बॉन्ड भ्रष्टाचार का जरिया हो गया है और इसका 94.4 फीसदी हिस्सा भाजपा के पास गया है।
सरकार और निर्वाचन आयोग में मतभेद चुनावी बांड्स की वैधता को चुनौती देने की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई में केंद्रसरकार की तरफ से पेश तब महान्यायवादी के.के. वेणुगोपाल ने गजब दलील दी कि नागरिकों को इन बांड्स के लेन-देन की जानकारी देने की कोई आवश्यकता ही नहीं है।उनका कहना था चुनावी बॉन्ड का मकसद राजनीतिक वित्तपोषण में कालाधन समाप्त करना है। क्योंकि सरकार की ओर से चुनाव के लिए धन नहीं दिया जाता है और राजनीतिक दलों को उनके समर्थकों, अमीर लोगों आदि से धन मिलता है।धन देने वाले चाहते हैं कि उनका राजनीतिक दल सत्ता में आए। ऐसे में अगर उनकी पसंद की पार्टी सत्ता में नहीं आती है तो उनको इसका परिणाम भुगतना पड़ सकता है, इसलिए गोपनीयता जरूरी है। सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय में यह भी कहा कि कई कंपनियां विभिन्न कारणों से अपना नाम अज्ञात रखना चाहती हैं। उदाहरण के लिए अगर कोई कंपनी किसी दल को धन देती है और वह सत्ता में नहीं आती है तो कंपनी को उसके शेयरधारक दंडित कर सकते हैं। महान्यायवादी ने कहा कि चुनावी बांड द्वारा दिया गया दान सफेद धन होता है।अगर एजेंसियां धन के स्रोत को सुनिश्चित करना चाहती हैं तो वे बैंकिंग चैनलों के माध्यम से जांच कर सकती हैं।
चुनाव आयोग के वकील ने कहा कि सरकार चुनावी बॉन्ड में दानदाताओं के नाम अज्ञात रखने के पक्ष में है पर निर्वाचन आयोग की राय इसके विपरीत है। आयोग चुनावी बॉन्ड के खिलाफ नहीं हैं लेकिन वह इसकी गोपनीयता के खिलाफ है।आयोग राजनीतिक वित्तपोषण में पारदर्शिता चाहता है क्योंकि फंड देने और लेने वाले की पहचान का खुलासा लोकतंत्र के लिए अनिवार्य है। लोगों को अपने प्रतिनिधियों और राजनीतिक दलों के बारे में जानने का अधिकार है।
एडीआर के वकील प्रशांत भूषण के मुताबिक चुनावी बांड अधोगामी कदम है। यह लोकतांत्रिक व्यवस्था में स्वतंत्र एवं पारदर्शी चुनाव के खिलाफ है। याचिका में सुप्रीम कोर्ट से याचना की गई कि चुनावी बॉन्ड पर रोक लगाई जाए या चन्दादाता का नाम सार्वजनिक किया जाए।
चुनाव खर्च-
अब लगभग सभी स्वीकार कर चुके है कि 2019 का लोक सभा आम चुनाव अब तक का भारत का ही नहीं दुनिया भर का का सबसे मंहगा चुनाव रहा। राजकीय और अराजकीय कुल मिलाकर कितना खर्च हुआ इसका तत्काल निश्चित आंकलन नहीं है। चुनाव पर जो खर्च होते हैं उनमे सिर्फ प्रत्याशियों और उनके दलों तथा समर्थकों के ही नहीं बल्कि तरह-तरह के राजकीय और विभिन्न पक्षों के ‘ गैर-हिसाबी ‘ खर्च भी शामिल हैं , जिनका आम तौर पर कोई पारदर्शी लेखा-जोखा नहीं रखा जाता है। लोकसभा पर होने वाले खर्चों को केंद्र सरकार वहन करती है। विधान सभा चुनाव के खर्च सम्बंधित राज्य की सरकार वहन करती है।लोकसभा के साथ ही राज्यों के विधान सभा चुनाव भी होते तो केंद्र और राज्य दोनों बराबर रूप से चुनाव पर हुए खर्चों का वहन करते हैं।
राजकीय चुनावी खर्चों में वोटरों की उंगुली पर लगने वाली स्याही से लेकर वोटिंग मशीन और हर बूथ पर तैनात कर्मचारियों का दैनिक भत्ता , सुरक्षा बंदोबस्त आदि शामिल है। आधिकारिक तौर पर भारत में कोई प्रत्याशी लोकसभा चुनाव में 50 से 70 लाख रु और विधान सभा चुनाव में 20 से 28 लाख रु तक खर्च कर सकता है। प्रत्याशी के खर्च में यह अंतर इस पर निर्भर है कि वह किस राज्य का है। पर यह वास्तविक खर्च से बहुत ही कम है. 2014 के लोक सभा चुनाव में कुल खर्च करीब 5 अरब डॉलर और 2009 के आम चुनाव में खर्च दो अरब डॉलर आंका गया था।
संसदीय लोकतंत्र में राजनीतिक दलों को अपना खर्च पार्टी के बाहर से ही जुटाना पड़ता है। यह खर्च , चुनावों में बेतहाशा बढ़ जाता है.इसके लिए धन उपलब्ध कराने सरकार से सांविधिक व्यवस्था की मांग के बावजूद ठोस उपाय नहीं किये गए हैं। ऐसे में ये पार्टियां पूंजीपति वर्ग से घोषित-अघोषित चन्दा लेती हैं.
भाजपा के पूर्व अध्यक्ष अमित शाह यह कहते नहीं अघाते कि ये 11 करोड़ सदस्यों की साथ भारत ही नहीं दुनिया की भी सबसे बड़ी पार्टी है. उन्होंने कभी यह सत्य नहीं बताया कि भाजपा भारत की सबसे अमीर पार्टी भी है और उसे यह अमीरी राजसत्ता में रहने से मिली है। माना जाता है कि भारत के पूंजीपति वर्ग ने 2014 में मोदी जी को सत्ता में लाने में बहुत मदद की थी। यह भी माना जाता है कि भाजपा द्वारा किये चुनावी वादों के अनुरूप मोदी सरकार द्वारा जीएसटी , दिवालिया कानून जैसे किये गए तमाम आर्थिक उपायों से पूंजीपति वर्ग प्रसन्न है।
चुनावी खर्च जुटाने के वैकल्पिक माध्यम कारगर नहीं हो सके हैं। 2019 के आम चुनाव में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय छात्र संघ के पूर्व अध्यक्ष कन्हैया कुमार ने बिहार के बेगूसराय लोक सभा सीट से सीपीआई प्रत्याशी बतौर चुनाव लड़ने के वास्ते अपना 70 लाख रूपये का खर्च जुटाने के लिए चन्दा लेने की इंटरनेट के माध्यम से ‘ क्राउड फंडिंग ‘ तरकीब का सहारा लिया। लेकिन हर उम्मीदवार के क्राउड फंडिंग से खर्च जुटाना संभव नहीं लगता है। प्रसंगवश , कन्हैया कुमार इतनी धनराशि जुटाने के बावजूद हार गए।
आंकलन-
वित्तीय खबरों के न्यूज पोर्टल, मनीकंट्रोलडॉटकॉम के एक अध्ययन के अनुसार केंद्र सरकार के बजट में चालू वित्तीय वर्ष में निर्वाचन आयोग के लिए 2.62 अरब रु आवन्टित किये। नई दिल्ली के सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज (सीएमएस ) ने 2019 के लोकसभा चुनाव पर करीब 60 हजार करोड़ रूपये खर्च होने का अनुमान लगाया। गौरतलब है कि 2015-16 में अमेरिकी राष्ट्रपति और वहाँ की संसद (कांग्रेस) के चुनाव पर 11.1 अरब डॉलर खर्च हुए थे। यह भी विश्लेषण सामने आया है कि जहां 2014 के चुनाव में सोशल मीडिया पर सिर्फ 250 करोड़ रूपये खर्च हुए थे जबकि 2019 में यह खर्च करीब 5 हजार करोड़ रूपये होने का अनुमान है।
निर्वाचन आयोग के अनुमानों के मुताबिक़ 2014 के चुनाव में दो प्रमुख पार्टियों , भाजपा और कांग्रेस ने टीवी और अखबारों में विज्ञापन पर 1200 करोड़ रूपये खर्च किये थे। इन विज्ञापनों के स्लॉट का प्रबंध करने वाली कम्पनी , जेनिथ इण्डिया के अनुसार 2019 में इस मद में 2600 करोड़ रु खर्च होने का आंकलन है।
फेसबुक कम्पनी की रिपोर्ट के अनुसार उसे फरवरी 2019 में भारत में चार करोड़ रूपये के चुनावी विज्ञापन मिले। बाद के माह में उसे मिले चुनावी विज्ञापन का अधिकृत ब्योरा उपलब्ध नहीं है।
हिंदी दैनिक अमर उजाला ने 7 मई को खबर दी 2019 के चुनाव पर जितना पैसा खर्च हुआ उससे ज्यादा इस चुनाव में खड़े 60 सबसे ज्यादा रईस प्रत्याशीयों की संपत्ति है जो 10 हजार 75 करोड़ रु है. अखबार के मुताबिक़ 2019 के लोकसभा चुनाव का खर्च 2014 के लोकसभा चुनाव से 40 फीसदी बढ़ गया। पिछले चुनाव में 3 हजार 870 करोड़ रु खर्च हुए थे। इस बार चुनाव खर्च करीब 5 हजार 418 करोड़ रु हैं। अखबार ने 2019 के लोक सभा चुनाव पर खर्च के अपने अनुमान का आधार नहीं बताया। इतना ही लिखा कि देश में जैसे ही चुनावी बिगुल बजता है अवैध शराब और काले पैसों का कारोबार बढ़ जाता है।
1951-52 के चुनाव का खर्च 10.45 करोड़ रु था जो अब 518 गुना बढ़कर 5418 करोड़ हो गया है। आजादी के बाद प्रथम आम चुनाव 1951-52 में कुल 17 करोड़ 32 लाख मतदाता थे। तब देश के हर वोटर पर चुनाव खर्च का बोझ 60 पैसे पड़ता था। 2019 के आम चुनाव में 90 करोड़ वोटर थे और चुनाव खर्च का बोझ बढ़कर प्रति व्यक्ति 60 रु. का अनुमान लगाया गया। यह राशि 2014 के खर्च से 13.86 रु. अधिक थी। इस अखबार के मुताबिक़ 1952 के पहले चुनाव में 10.45 करोड़ का बजट रखा गया था।1971 में आम चुनाव का खर्च 11.61 करोड़ था जो आपातकाल के बाद 1977 में हुए लोक सभा चुनाव में बढ़कर 23.03 करोड़ रु तक पहुंच गया।
भारत के 2019 के आम चुनाव के खर्च के बारे में अमर उजाला , सीएमएस , लाइवमिंट , ब्लूमबर्ग और इकोनॉमिक टाइम्स के अलग-अलग अनुमान है। इंण्डिया टुडे की एक रिपोर्ट के अनुसार 2019 के आम चुनाव में 3456 करोड़ रूपये की नगदी , शराब और नशीले पदार्थ जब्त किये गए जो भारत के चुनावी इतिहास में सर्वाधिक है। निर्वाचन आयोग को धनबल के दुरूपयोग के कारण पहली बार किसी लोक सभा सीट पर चुनाव रद्द करना पड़ा. यह तमिलनाडु का वेल्लोर लोकसभा क्षेत्र था जहां मुख्यमंत्री एम के स्टालिन के द्रविड मुनेत्र कषगम ( डीएमके ) के एक कार्यकर्ता के गोदाम से करीब करोड़ रु की नगदी के बंडल बरामद हुए। अंदाजा लगाया जा सकता है जब उस चुनाव में जब्त नगदी 3456 करोड़ रु थी तो पार्टियों -प्रत्याशियों के वास्तविक खर्च कई गुना अधिक ही होगी।
बॉन्ड को लेकर केंद्र सरकार एवं निर्वाचन आयोग में मतभेद
चुनावी बांड्स की वैधता को चुनौती देने वाली स्वयंसेवी संगठन ‘ एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स ‘ (एडीआर) की एक याचिका पर सुप्रीम कोर्ट में हाल में संपन्न सुनवाई में केंद्र सरकार की तरफ से पेश महान्यायवादी के.के. वेणुगोपाल ने अजीब दलील दी कि नागरिकों को इन बांड्स के लेन -देन की जानकारी देने की कोई आवश्यकता ही नहीं है। उनका कहना था कि , “ चुनावी बॉन्ड का मकसद राजनीतिक वित्तपोषण में कालेधन को समाप्त करना है. क्योंकि सरकार की ओर से चुनाव के लिए कोई धन नहीं दिया जाता है और राजनीतिक दलों को उनके समर्थकों, अमीर लोगों आदि से धन मिलता है। धन देने वाले चाहते हैं कि उनका राजनीतिक दल सत्ता में आए। ऐसे में अगर उनकी पसंद की पार्टी सत्ता में नहीं आती है तो उनको इसका परिणाम भुगतना पड़ सकता है, इसलिए गोपनीयता जरूरी है।” सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय में यह भी कहा कि कई कंपनियां विभिन्न कारणों से अपना नाम अज्ञात रखना चाहती हैं। उदाहरण के लिए अगर कोई कंपनी किसी दल को धन देती है और वह सत्ता में नहीं आती है तो कंपनी को उसके शेयरधारक दंडित कर सकते हैं। महान्यायवादी ने कहा कि चुनावी बांड द्वारा दिया गया दान सही मायने में सफेद धन होता है। उन्होंने कहा कि अगर एजेंसियां धन के स्रोत को सुनिश्चित करना चाहती हैं तो वे बैंकिंग चैनलों के माध्यम से जांच कर सकती हैं।
चुनाव आयोग के वकील ने कहा कि सरकार हालांकि चुनावी बॉन्ड में दानदाताओं के नाम को अज्ञात रखने के पक्ष में है, लेकिन निर्वाचन आयोग की राय इसके विपरीत है। उन्होंने कहा, “ हम चुनावी बॉन्ड के खिलाफ नहीं हैं। हम सिर्फ इससे जुड़ी गोपनीयता का विरोध करते हैं।” उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि निर्वाचन आयोग राजनीतिक वित्तपोषण में पारदर्शिता चाहता है। उन्होंने कहा कि फंड देने वाले की और फंड लेने वाले की पहचान का खुलासा लोकतंत्र के लिए अनिवार्य है। लोगों को अपने प्रतिनिधियों और राजनीतिक दलों के बारे में जानने का अधिकार है।
याचिकाकर्ता एडीआर के वकील प्रशांत भूषण ने कहा कि चुनावी बांड योजना प्रतिगामी कदम है। यह लोकतांत्रिक व्यवस्था में स्वतंत्र एवं पारदर्शी चुनाव की अवधारणा के विपरीत है। याचिका में सुप्रीम कोर्ट से याचना की गई थी कि या तो चुनावी बॉन्ड पर रोक लगाई जाए या फिर चुनावी प्रक्रिया में पारदर्शिता सुनिश्चित करने के लिए दानदाता का नाम सार्वजनिक किया जाए।
अंतरिम आदेश-
सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में अंतरिम आदेश जारी कर कहा कि ऐसे सभी दल, जिनको चुनावी बॉन्ड के जरिए चंदा मिला है वो सील कवर में निर्वाचन आयोग को 30 मई 2019 तक ब्योरा दे दें जो इसे सेफ कस्टडी में रखेगा, सुप्रीम कोर्ट मामले की विस्तृत सुनवाई की तारीख बाद में तय करेगा।
सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश से याचिकाकर्ता खुश नहीं हैं। एडीआर के प्रोफेसर जगदीप चोकर ने कहा कि इस बात की कोई गारंटी नहीं है की राजनितिक दल सारी जानकारी चुनाव आयोग के साथ साझा करेंगे। उन्होंने कहा कि सरकार ये कहती रही है कि इलेक्टोरल बॉन्ड गुमनाम हैं, इन पर किसी का नाम नहीं है। ऐसे में राजनीतिक दल ये कह सकते हैं कि बॉन्ड पोस्ट के माध्यम से उनके पास आए और इन पर भेजने वाले का नाम नहीं है। उन्होंने कहा कि सुप्रीम कोर्ट को स्टेट बैंक ऑफ इंडिया से पूछना चाहिए कि इलेक्टोरेल बॉन्ड किसने खरीदे और कितने रुपये में खरीदे।
स्टेट बैंक को इलेक्टोरल बॉन्ड से जुड़ी सारी जानकारी सार्वजनिक करना चाहिए। कांग्रेस प्रवक्ता अभिषेत मनु सिंघवी ने कहा कि चुनावी बॉन्ड भ्रष्टाचार का जरिया हो गया है और इसका 94.4 फीसदी हिस्सा भारतीय जनता पार्टी के पास गया है।
चुनावी चंदों के गोरखधंधा को और बेहतर समझने के लिए राजनीतिक पार्टियों के चंदे से संबंधित एफसीआरए अर्थात विदेशी चंदा नियमन कानून ( 2010 ) संशोधन विधेयक के निहितार्थ पर भी ध्यान देना होगा। वित्तीय वर्ष 2018 -19 में केंद्र की मोदी सरकार द्वारा लोक सभा में कई अलग अलग विधेयक वित्त एवं विनियोग विधेयक में समावेश कर हंगामों के बीच बिना किसी बहस के’ गिलोटिन ‘ के जरिए ध्वनि मत से पारित घोषित कर दिया गया। राज्य सभा ने बजट प्रस्ताव बिन कुछ किये -धिये उसे 14 दिन की सांविधिक रूप से निर्धारित अधिकतम समय -सीमा के भीतर लोकसभा को नहीं लौटाया तो उसे स्वतः पारित घोषित कर दिया गया। यह भारत के संसदीय इतिहास में शायद पहला मौका था जब पूरा बजट लोकसभा में बिना चर्चा के गिलोटिन के ‘ छू छू मंतर ‘ से पारित कर दिया गया। राजनीतिक पार्टियों के चंदे से संबंधित एफसीआरए अर्थात विदेशी चंदा नियमन कानून ( 2010 ) संशोधन विधेयक को भी केंद्रीय बजट से सम्बंधित वित्त विधेयक की तरह बिना बहस के गिलोटिन के मंतर से पारित कर दिया गया. जिस अधिनियम में संशोधन किया गया है वह राजनीतिक दलों को विदेशी कंपनियों द्वारा दिए जाने वाले चंदे पर अंकुश लगाता था। भारत सरकार ने वित्त विधेयक (2016 ) के जरिए एफसीआरए में संशोधन कर राजनीतिक दलों के लिए विदेशी चंदा लेने को आसान बनाया था। इस संशोधन से राजनीतिक पार्टियों को वर्ष 1976 से मिले सारे के सारे विदेशी चंदे पूर्वकालिक प्रभाव से बिलकुल वैध हो गए हैं . सरकार ने विदेेेश कंपनी की परिभाषा में भी बदलाव किया। इसके अनुसार , किसी भी कंपनी में 50 फीसदी से कम शेयर -पूंजी विदेशी इकाई के पास है तो वह विदेशी कंपनी नहीं कही जाएगी। इस संशोधन को भी पूर्वकालिक प्रभाव से सितंबर 2010 से ही लागू किया गया है. सरकार ने वित्त विधेयक के जरिए एफसीआरए में जो संशोधन किया उसकी बदौलत राजनीतिक दलों के लिए विदेशी चंदा लेना और भी आसान हो गया. यही नहीं अब 1976 के बाद से मिले किसी भी प्रकार के विदेशी चंदे की जांच संभव नहीं है। संशोधन के अनुसार, ‘ वित्त अधिनियम ( 2016 ) की धारा 236 के पहले पैरा में 26 सितंबर 2010 की जगह पर 5 अगस्त 1976 पढ़े जाएंगे. एफसीआरए कानून में संशोधन के बाद 2014 के दिल्ली हाईकोर्ट के उस फैसले से भाजपा और कांग्रेस को बचने में मदद मिलेगी जिसमें उन्हें एफसीआरए कानून के उल्लंघन का दोषी पाया गया था।बजट के संसद में पेश होते ही तत्काल प्रभाव से लागू कुछेक प्रावधान को छोड़ शेष सभी प्रावधान को समुचित बहस के उपरान्त ही पारित कराने की संसदीय परंपरा रही है जिसका निर्वाह नही किया गया ।
प्रकाश कारात-
मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के पूर्व महासचिव प्रकाश कारात के अनुसार सबसे ज्यादा हैरान करने वाली बात यह रही कि इतना महत्वपूर्ण कानून लोकसभा में बिना किसी चर्चा के पारित कर दिया गया. उन्होंने कहा कि संसद में हंगामे के बीच इसको छद्म से वित्त विधेयक में परिणत कर पारित करवा लिया गया. उन्होंने बताया कि 2016 में भी ऐसा ही कानून बना था। लेकिन तब हाईकोर्ट ने कांग्रेस और भाजपा को विदेशी चंदा लेने के मामले में दोषी पाया गया था और उसी से बचने के लिए मोदी सरकार इस विधेयक को 1976 के ही पूर्वकालिक प्रभाव से लागू करवाने के लिए ले आई। करात का कहना है कि उनकी पार्टी इस कानून का विरोध करती हैं. वित्त विधेयक होने के नाते राज्यसभा में इस कानून को रोका नहीं जा सकता. उनका कहना है कि अब कोई भी विदेशी कंपनी भारत में अपनी एक शाखा खोलकर राजनीतिक दलों को चंदा दे सकती है जिसकी जांच नहीं होगी। सरकार ने वित्त विधेयक 2018 में 21 संशोधनों को मंजूरी दे दी, उन्हीं में से एक संशोधन विदेशी चंदा नियमन कानून 2010 था। यह कानून अब तक भारत की राजनीतिक पार्टियों को विदेशी कंपनियों से चंदा लेने से रोकता था। उनका आरोप है कि मोदी सरकार ने इस कानून के जरिए भाजपा और कांग्रेस दोनों के चंदे के खिलाफ 2014 में आए दिल्ली हाईकोर्ट के आदेश से बचा लिया है। 2014 में दिल्ली हाईकोर्ट ने बीजेपी और कांग्रेस को विदेशी चंदों के मामले में एफसीआरए के मामले के तहत दोषी पाया था और केंद्र सरकार को इन दोनों पार्टियों के खिलाफ कार्रवाई करने के आदेश भी दिए थे। कार्रवाई से बचने के लिए केंद्र सरकार वित्त विधेयक 2016 लेकर आई थी जिसमें विदेशी चंदा नियमन कानून यानी एफसीआरए में संशोधन कर दिया गया था. अब इस नए कानून के जरिए 1976 से ही राजनीतिक दलों को मिलने वाले हर चंदे की जांच की संभावना को खत्म कर दिया गया है।
वित्त विधेयक 2018-
एडीआर की याचिका में संसद द्वारा पारित वित्त विधेयक 2018 के सेक्शन 217 और सेक्शन 236 को निरस्त करने की भी याचना की गई है , जिनके तहत विदेशी चंदे के क़ानून में नियमन को लुंज -पुंज बना दिया गया है। केंद्र सरकार के पूर्व सचिव ई ऐ एस सर्मा इस स्वैच्छिक संस्था जुड़े हुए हैं। ऐडीआर के अनुसार एफसीआरए कानून में संशोधन दिल्ली हाई कोर्ट के मार्च 2014 के उस निर्णय को नकारने के लिए किया गया जिसमें भाजपा और कांग्रेस , दोनों को विदेशी चंदे लेने में क़ानून का उल्लंघन करने का दोषी ठहराया गया था। हाई कोर्ट के आदेश में निर्वाचन आयोग से इन दोनों पार्टियों के खिलाफ कार्रवाई करने का निर्देश दिया गया था।
कांग्रेस ने अपनी कुल आय से 96.30 करोड़ रु अधिक 321.66 करोड़ रु का खर्च दिखाया है। एडीआर के विश्लेषण से पता चलता है कि 1914 में मोदी सरकार के गठन के बाद से भाजपा का खज़ाना खूब भरा है। 2015-16 से सिर्फ एक बरस में भाजपा का खज़ाना 570.86 करोड़ रु से 81.18 फीसद बढ़ 1034.27 करोड़ रु हो गया। इसी दरम्यान कांग्रेस का खज़ाना 261.56 करोड़ रु से 14 फीसद घटकर 225.36 करोड़ रु रह गया।
निर्वाचन आयोग से राष्ट्रीय राजनीतिक पार्टी की मान्यता प्राप्त सात दलों , भाजपा , कांग्रेस , बसपा , माकपा , भाकपा और तृणमूल कांग्रेस ने वित्त वर्ष 2016-17 में बैंकों में जमा अपनी धनराशि और सावधिक जमा पर ब्याज से कुल 128 करोड़ रु की आमदनी स्वीकार की है। एडीआर ने सुप्रीम कोर्ट के 13 सितम्बर 2013 के एक निर्णय का हवाला देते हुए कहा निर्वाचन आयोग प्रभावी नियम लागू करे कि कोई भी राजनीतिक दल फॉर्म 24 बी में 20 हज़ार रु से अधिक के मिले चंदे का ब्योरा देने का कॉलम का कोई भी भाग खाली नहीं छोड़े।साथ ही, अमरीका , जापान , जर्मनी , फ़्रांस , ब्राजील , इटली , बुल्गारिया , नेपाल और भूटान की तरह ही भारत में भी राजनीतिक पार्टियों को प्राप्त चंदा का पूर्ण विवरण सूचना के अधिकार के तहत सार्वजनिक रूप से उपलब्ध कराना अनिवार्य हो। उपरोक्त देशों में किसी में राजनीतिक दलों को प्राप्त धन का 75 फीसद हिस्सा छुपाया नहीं रखा जा सकता है।
वर्ष 2017 के वित्त विधेयक में आयकर अधिनियम के सेक्शन 13 ए में संशोधन कर पंजीकृत राजनीतिक पार्टियों को पूर्वकालिक प्रभाव से आय कर से इस शर्त पर माफी दे दी गई कि वे सेक्शन 139 के सब सेक्शन 4 बी के तहत पूर्व वित्त वर्ष की अपनी आय का पूरा ब्योरा निर्धारित तिथि तक दाखिल कर दें। कोई पार्टी ऐसा नहीं करती है तो निर्वाचन आयोग उसकी मान्यता रद्द कर सकती है। लेकिन ये सारी बातें चुनावी लोकतंत्र का ढकोसला लगती हैं। चुनावी चंदा के हमाम में नंगी राजनीतिक पार्टियां, कानून को धता बताकर चुनाव लड़ती रहती हैं।
इन बॉन्ड का मामला सुप्रीम कोर्ट के समक्ष अर्से से लंबित है। सियासी पार्टियों के जरिए ही लोक नीतियों तय होती हैं इसलिए वोटर को कानूनी हक है कि इन पार्टियों की फंडिंग कौन करता है। अमेरिकी वोटरों को पता होता है कौन धनी दाता डेमोक्रेट और रिपब्लिकन पार्टी को धन देते है। भारत के भी वोटरों को पता लगना चाहिए कि भाजपा , कांग्रेस और अन्य सियासी दलों के दाता कौन हैं। बाहरहाल ,अमेरिका की अगुवाई में पूंजीवादी देशों और पूर्ववर्ती समाजवादी व्यवस्था के देश रूस के बीच शीत युद्ध के बारे में ब्रिटिश पत्रकार उपन्यासकार इयान फ्लेमिंग के थ्रिलर में एक ब्रिटिश खुफिया एजेंट का तकिया कलाम है: माई नेम इज बॉन्ड , जेम्स बॉन्ड। भारत के मौजूदा संदर्भ में कहा जा सकता है माई नेम इज बॉन्ड , एलेक्टोराल बॉन्ड ।