भारतवर्ष में कभी राजतंत्र भी होता था। यह तीनों युगों सतयुग-द्वापर-त्रेता से लेकर चौथे चरण कलयुग तक रहा। इतिहास पलट कर देखेंगे तो राजतंत्र चाहे राजा सीतारामचन्द्र जी का रहा हो या राजा हरिश्चंद्र और राजा परीक्षित या द्वारिकाधीश का इन युगों में राजा के दरबार में नियुक्त महामंत्री,मंत्री,वेदाचार्य,गुप्तचर राजा को उसके दरबार में पीड़ित और अत्याचारी-व्यभिचारी अथवा यश-अपयश के साथी जनों की सही जानकारी देकर कार्यवाही का सुझाव देते थे।
राजा अपने वरिष्ठ सहयोगियों, गुरुओं से विचारविमर्श कर पीड़ितों को संदेशवाहक द्वारा संदेश देकर राजसभा में आमंत्रित करता और समस्या का जानकारी होने पर त्वरित न्याय करता था। इसी देश मे ऐसे त्यागी और प्रतापी राजा हुए जिन्होंने वचन के लिए अपना सर्वस्व-सर्वश्रेष्ठ-सर्वप्रिय तक त्याग कर दिया लेकिन न्यायधीश राजा,लोककल्याणकारी राज्य की अवधारणा पर कलंक नहीं लगने दिया फिर भले ही निज संतान की आहुति हो या अपने प्राणों का दान लेकिन प्रजा में कष्ट व्याप्त न हो और कोई अपलोक न लगाएं यह सर्वोपरी बात थी। वहीं इसी राष्ट्र में दुर्दांत,विलासी,राक्षसी प्रवृत्ति के शासक भी हुए जिनका हश्र इसी देश के इतिहास में वर्णित है।
आज निर्वाचन प्रणाली से चुनी गई पंचवर्षीय लोकतांत्रिक सरकार भी निर्वाचित राजसत्ता की तरह काम करती है। आजाद भारत से पहले हिंदुओ और मुगलों के तमाम राजा-नवाब-बादशाह भी न्यायप्रिय रहे जिन्होंने जनता के हितों को सर्वोपरि रखा और चाटूकार मंत्रियों,गुप्तचरों पर पैनी नजर से निगरानी कर अपने वैभव को बचाया था। विडम्बना है आज इक्कीसवीं सदी में अंतरिक्ष फ़तेह करने वाला परमाणु सम्पन्न देश लोकतंत्र को खत्म करने पर आमादा है। सच बोलने और लिखने वाले को व्यवस्था नकारात्मक समझती है।
वहीं लोकतंत्र के चौथे स्तंभ में बैठे चारणभाट-पीत पत्रकारों की सहयोगी स्वामिभक्ति से सत्ता व ब्यूरोक्रेसी दोनों पतनशीलता के चर्मोत्कर्ष पर आसीन है। मौजूदा भारत में निर्वाचित सरकारों मसलन राज्य और केंद्र के सांसद-विधायक-मंत्रिमंडल के वेतन-पेंशन-भत्ता और विलाषित जीवन में अग्रणी माननीयों की बमुश्किल 3 हजार आबादी करीब 2 अरब जनता पर हाबी है। क्या मजाल कि आज पीड़ित प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री / आला अफसरों के दरबार में अपनी याचिका को याचना में तब्दील कर न्याय की गुहार लगा सकें अथवा उसके निवेदन पत्र को उचित मंच तक माननीयों / प्रोटोकॉल युक्त वीआईपी जनों के समक्ष प्रस्तुत करने में सहयोग करते हो। ऐसा इसलिए कि नेताओं से अधिक देश की नौकरशाही चाल-चलन व कार्यशैली में पथभ्रष्ट है। जनता को गुलाम समझने वाली यह व्यवस्था चंद मुट्ठीभर या बाहुबली, रसूखदारों को वजन देती है।
इनके लिए वाजिब किसान, पीड़ित परिवार, मजदूर, वंचित समुदाय और हासिये पर खड़ी महिलाओं की बड़ी जनसंख्या महज उपभोग व शोषण की वस्तु है। यह वह भारत है जहां इतिहास के सैकड़ों दानवीर, कर्मशील और न्यायप्रिय राजाओं ने सारे जहां से अच्छा हिंदुस्तान हमारा के शब्दार्थ को ज़मीन पर साकार किया था। आज प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री की सुरक्षा में लैस सरकारी कर्मचारियों की फौज / सुरक्षा टुकड़ियों के तमाम वर्ग पीड़ितों के शोषक बन चुके है और माननीय आत्ममुग्ध निर्वाचित लोकसेवक जनप्रतिनिधियों का ढकोसला मात्र है।