कर्नाटक के यादगीर, चिद्रदुर्ग और विजयपुरा जिलों में बड़े पैमाने पर धर्मांतरण की खबरें मिली हैं। इस सम्बन्ध में राज्य के पिछड़ा वर्ग और अल्पसंख्यक कल्याण संबंधी विधायी समिति द्वारा अधिकृत और अनधिकृत चर्च तथा उनके पुजारियों के सर्वेक्षण करने और दोषी लोगों एवं संस्थाओं के खिलाफ मामले दर्ज करने का आदेश दिया जा चुका है। कर्नाटक की इस ताज़ातरीन घटना के बाद एक बार फिर से देश में धर्मान्तरण का मुद्दा जोर पकड़ता दिख रहा है। उल्लेखनीय है कि सितम्बर महीने में राज्य के दस कैथोलिक बिशप का एक शिष्टमंडल मुख्यमंत्री बसवराज बोम्मई से मिल कर यह सफाई दे चुका है कि ईसाई समुदाय राज्य भर में स्कूल, कॉलेज और अस्पताल चलाता है, लेकिन कभी भी किसी एक छात्र या मरीज को ईसाई धर्म में परिवर्तित होने की सलाह नहीं दी गयी है और न ही किसी को मजबूर किया गया है।
शिष्टमंडल ने जोर देकर कहा था कि ‘ईसाई समुदाय पूरी नैतिक जिम्मेदारी लेता है कि वे जबरन धर्मांतरण में शामिल न हो।’ जबकि विधानसभा में बहस के दौरान होसदुर्गा के विधायक गूलीहट्टी शेखर राज्य के बिगड़ते हालात पर चिंता जाहिर करते हुए यह जानकारी दी है कि ‘…. हाल के दिनों में उनके विधानसभा क्षेत्र में 20,000 से कहीं ज्यादा लोगों का धर्मांतरण किया गया है।’ इस सम्बन्ध में देश भर से जुटाए गए पुख्ता सबूतों से स्पष्ट हो चुका है कि राष्ट्रव्यापी धर्मान्तरण के लिए सैकड़ों गैर- सरकारी संगठनों, शिक्षण संस्थानों, चर्च और कुछ नामचीन विदेशी फंडिंग एजेंसीज के जरिये पैसे और अन्य सुविधाओं का प्रलोभन जरूरतमंदों के बीच परोसा जाता है। ख़ास तौर से आदिवासी बहुल झारखण्ड-ओडिशा और छत्तीसगढ़ में हाल के सालों में विकास के नाम पर विभिन्न मुल्कों से भेजे गए फण्ड का इस्तेमाल धर्मान्तरण के लिए किया जाता रहा है। तभी तो हाल में छत्तीसगढ़ राज्य में एक पुलिस सर्कुलर में कहा गया कि सुकमा जिले के अंदरूनी इलाकों में जिले के आदिवासियों का धर्मांतरण मिशनरी कर रहे हैं। जिला पुलिस ने दावा किया कि ऐसे तमाम प्रयासों को उन्होंने रोक दिया गया है। वास्तविकता यही है कि सुकमा जैसे राज्य के दर्जन भर जिले ‘सेवा के नाम पर सौदा’ के मुहिम के सॉफ्ट टारगेट हैं।
सुकमा की यह खबर साधारण कतई नहीं है बल्कि इस बात की पुष्टि करती है कि धार्मिक समुदायों को अपने धर्म के प्रचार की मिली छूट का किस कदर गलत इस्तेमाल उनके द्वारा किया जा रहा है। अन्यथा पुलिस को यह कहने की नौबत क्यों आती कि ‘ईसाई मिशनरियों’ के साथ-साथ परिवर्तित आदिवासी लगातार अंदरूनी इलाकों की यात्रा कर रहे हैं और स्थानीय आदिवासियों को ईसाई धर्म स्वीकार करने के लिए प्रलोभन देकर उन्हें प्रभावित कर रहे हैं। प्रलोभनों की सूची में जरूरतमंदों की ज़िन्दगी में नियमित आर्थिक सहायता, उज्ज्वल भविष्य के लिए रोजगार की बेशुमार संभावनाएं और यहाँ तक कि विदेशी नौकरी दिए जाने की बातें की जाती हैं। और इससे भी कहीं ‘महत्वपूर्ण आनंदमय यौन जीवन’ के वादों के माध्यम से हिंदू लड़कों, लड़कियों और महिलाओं को लुभाने के लिए पुरअसर कोशिश की जा रही है। ‘लालच’ और ‘प्रलोभन’ जैसे शब्दों के हो रहे खूब इस्तेमाल के इस दौर में भारत की सामाजिक बनावट और बुनावट पर नजर डालिये कि आखिर में कहाँ और कैसे बड़ी संख्या में धर्मांतरण का खेल रचा जा रहा है।
देश के गोबरपट्टी राज्यों में ख़ास तौर से नट समुदाय के लोग, जिनमें संपेरा , बाजीगर (जादूगर), कलाबाज, लोक संगीतकार, नर्तक, मदारी / कलंदर (जो तमाशे के लिए बंदरों या भालुओं को प्रशिक्षित करते हैं) जो आज भारत के सबसे गरीब लोगों में से एक हैं, उन्हें धर्मान्तरण के गिरफ्त में सुविधाओं का प्रलोभन देकर फंसाया जाता रहा है।
हालाँकि, ब्रिटिश शासन के आगमन से पहले, ऐसे परिवारों को स्थानीय ज़मींदारों ने गाँव के एक छोर पर बसने या डेरा डालने की अनुमति दी थी। उनमें से कई जातियां सुरक्षित जजमानी प्रथा से जुड़कर सुरक्षित जीवन जी रहीं थीं। कई जातियां रजवाड़ों (शाही दरबारों) द्वारा संरक्षित थीं। लेकिन भारत की ग्रामीण अर्थव्यवस्था के बिखरने के बाद सामाजिक असंतुलन बड़ा होता चला गया। आजादी के बाद जातियों को लेकर जो अवधारणाएं और मान्यताएं विकसित हुईं उनके मूल में वोट की राजनीति के अपने सरोकार रहे हैं। विचित्र संयोग देखिये, नट आमतौर पर हिंदू हैं, लेकिन बिहार, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश में कुछ मुस्लिम भी हैं। ऐसे हिंदू राम, शिव और अन्य हिंदू देवी-देवताओं की पूजा करते हैं। कुछ लोग भाग्य बताने वाले, ओझा या मरहम लगाने वाले होने का दावा करते हैं। वे मुख्य हिंदू त्योहार मनाते हैं और उनमें से कई पूर्वजों की पूजा भी करते हैं। यानी जो मुस्लिम बन गए वे पहले हिन्दू थे और ऐसी ही जातियां या जनजातियां, जिनके सामाजिक अधिकार सदियों से छीजते चले आये, वे सब की सब मिशनरियों के निशाने पर आ गयीं। यदि अगरिया मध्यप्रदेश में प्रिमिटिव ट्राइब हैं तो झारखण्ड में उन्हें आदिवासी का दर्जा नहीं देकर संपन्न मान लिया गया। नतीजतन, सरकारी सुविधाओं का लाभ नहीं मिलने से पत्थरों से लोहा निकालनेवाली यह जनजाति आज भी प्रागैतिहासिक ज़िन्दगी जी रही है। अगरिया की तरह देश की सैकड़ों जातियों और जनजातियों ने मुफलिसी में मिले मिशनरी प्रलोभनों के चलते बहुत आसानी से अपनी आदिवासियत और हिन्दू धर्म से तौबा कर लिया।
बिहार के रोहतास जिले बिश्रामपुर नट टोला में नट परिवार की अलग कहानी है। स्थानीय सरकारी स्कूल में नामांकित अधिकांश बच्चों को एक मिशनरी सोसाइटी के साथ नामांकित थे। इस मिशनरी ने शिक्षा के नाम पर सुविधाएं परोसकर बच्चों के मन में बाइबल पढ़ने का दवाब डाला। मिशनरी ने हिंसा का सहारा लिया और बच्चों पर अनैतिक दबाव रणनीति के तहत उनके अभिभावकों को ईसाई धर्म में परिवर्तित करने के लिए मजबूर किया। कई बच्चों को निष्कासित कर दिया गया था क्योंकि उन्होंने अपने पैतृक विश्वास को छोड़ने से इनकार कर दिया था। सामाजिक कार्यकर्ता मधु किश्वर की रिपोर्ट के मुताबिक़ ‘….. उन बच्चों को बेरहमी से पीटा गया क्योंकि पुजारियों को पता चला कि वह अपने माता-पिता के साथ देवी मंदिर में गए थे । उन्हें स्कूल से निष्कासित कर दिया गया। चूँकि वहां उन्हें उन्नत सुविधाएं मिल रहीं थीं तो लाचार होकर उन बच्चों के माता-पिता ने मिशनरियों से बार-बार अपने बेटे को माफ करने का निहोरा किया और यह वादा किया कि वे अब कभी मंदिर नहीं जायेंगे।’
मंदिरों से दूर रखे जाने, रविवार के दिन चर्च की प्रार्थना में शामिल होने और बाइबल पढ़ने के लिए जोर डाले जाने जैसी खबरें यदा-कदा अखबारों की सुर्खियां बनती रहीं हैं। न सिर्फ ऐसे हस्तक्षेपों और दखलदांजी से समाज की सहजता प्रभावित हो रही है बल्कि स्वभाव से स्वच्छंद आदिवासियों को अपने जंगल और अपनी ज़मीन से जुडी संस्कृति के सामने तमाम लोकलुभावन सुविधाएं रह-रहकर छोटी लगने लगतीं हैं। इस धर्मान्तरण की तीव्रता को भले ही एक सिरे से ख़ारिज क्यों किया जाए लेकिन इससे हो रहे बदलावों से इंकार नहीं किया जा सकता। अकेले ओडिशा में पिछले 50 वर्षों में ईसाई आबादी में वृद्धि दर में 478 प्रतिशत की रही है, जबकि मुस्लिम और हिंदू आबादी के मामले में क्रमशः 323 प्रतिशत और 130 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। ईसाइयों की जनसंख्या में सर्वाधिक वृद्धि बौध जिले (118.41 प्रतिशत) में दर्ज की गई है। खबर है कि ओडिशा में पिछले 30 साल से वे इस क्षेत्र के गरीब और अनपढ़ लोगों को अपना निशाना बनाकर धोखे, धोखे और लालच देकर उनका धर्मांतरण कर रहे हैं। लेकिन इस वृद्धि को एक सिरे से देश के आला ईसाई संगठन इंकार करते हैं।
जनगणना के आंकड़ों की खूबसूरती देखिये-
साल 1951 (2.30%), 1961 (2.44%), 1971 (2.60%), 1981 (2.44%), 1991 (2.32%), 2001 (2.34%) और 2021 (2.30%) के आंकड़ों के अनुसार ईसाइयों की आबादी में कोई ज्यादा इजाफा नहीं आया है तो इनके विश्लेषण की गुंजाइश नहीं बचती। अब सोचना होगा कि क्या सच में देश की ईसाई जनसंख्या में इजाफा नहीं हो रहा है ? जाने-माने शिक्षाविद नरेश कुमार वैद्य कहते हैं कि ‘यहाँ जन्म दर से कोई मतलब नहीं। ईसाईयों की जनसंख्या में जमकर वृद्धि हो रही है। चर्च में ईसाईयों के दो तरह की सूचियां संभाली जाती हैं, पहली जो मूल ईसाई हैं जिसे दुनिया देखती है और दूसरी सूची कनवर्टेड ईसाइयों की होती है जिन्हें एफिलिएटिंग क्रिश्चियन कहते हैं । ऐसे में कनवर्टेड क्रिश्चियन की जनसंख्या का पता नहीं चल पाता।’ वैद्य बताते हैं कि अब तो धर्मान्तरण के बाद नाम और पदवी (टाइटल) भी बदले नहीं जाते। मतलब धर्मांतरण की यह नयी स्ट्रेटेजी है।
ओडिशा के कंधमाल जिले की कुल 6,50,000 लोगों में 1,18,000 ईसाईयों की मौजूदगी वैद्य की बातों को सच साबित करती है। उनके मुताबिक़… देश में ईसाइयों की वास्तविक आबादी 6 फीसदी से कहीं ज्यादा है और कोरोना काल में जिस तरह धर्मान्तरण का खेल हुआ है, आप इसे 8 फीसदी भी मान कर चल सकते हैं।” क्या सच में एफिलिएटिंग क्रिश्चियन की जनसंख्या इतनी ज्यादा है ?
एक बात और भी मायनेखेज है। साल 1991 से 2001 की जनगणना दर्शाती है कि कंधमाल जिले की हिंदू आबादी में 2% और ईसाइयों में 66% की वृद्धि हुई है। यहाँ ज्यादातर अनुसूचित जातियां ईसाई बन गयीं हैं। सवाल है कि इस भयावह धर्मांतरण को रोकने की दिशा में राज्य सरकार ने क्या किया ? बताते हैं कि राज्य में 1967 का बना उड़ीसा धार्मिक स्वतंत्रता अधिनियम लागू है, जो लोगों को किसी भी धर्म को बदलने या अपनाने की अनुमति देता है। ओडिशा में जब धार्मिक स्वतंत्रता क़ानून पारित हुआ तो उस समय स्वतंत्र पार्टी और जन कांग्रेस की गठबंधन सरकार थी। यह क़ानून धर्मांतरण पर पूरी तरह रोक तो नहीं, लेकिन कुछ हद तक अंकुश ज़रूर लगाता है। क्योंकि इस क़ानून के तहत प्रत्येक धर्मांतरण की ‘सूचना’ जिलाधिकारी को देना जरूरी कर दिया गया। कानून के प्रावधानों के अनुसार ऐसे सभी व्यक्तियों को जिला मजिस्ट्रेट को एक फॉर्म जमा करने की जरुरत होती है।
ईसाई मिशनरियों को इस प्रावधान पर गहरा ऐतराज था और मामला कोर्ट तक ले जाया गया। साल 1972 में उड़ीसा हाई कोर्ट ने 1967 के इस कानून को असंवैधानिक करार दिया क्योंकि उनमें ‘प्रलोभन’ शब्द की ‘अस्पष्ट’ परिभाषा भी एक वजह थी। इसी कारण साल 1968 में मध्यप्रदेश में भी संयुक्त विधायक दल की सरकार ने ऐसा ही एक कानून बनाया जिसमें ‘प्रलोभन’ की जगह ‘लालच’ शब्द का जिक्र किया। लेकिन राज्य की एक बड़ी आबादी के सामने धर्मान्तरण सामाजिक और संजातीय चुनौती बनने लगी थी। जिस क़ानून से मिशनरियों को ख़ास ऐतराज था उसे लेकर 1977 में दिए गए फ़ैसले में संविधान पीठ ने एकमत से धर्मांतरण विरोधी क़ानून को बरकरार रखा।
जैसा कि ऊपर जिक्र किया गया है कि जिला मजिस्ट्रेट को एक फॉर्म जमा करने की बाध्यता को लेकर मिशनरियों का रवैया असहयोग और अवमानना का रहा। खबरों के अनुसार साल 1989 और 2018 के बीच 29 साल की अवधि में महज दो आवेदन जिला प्रशासन को मिले। उसके बाद के आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं। इसका आशय स्पष्ट है कि उड़ीसा धार्मिक स्वतंत्रता अधिनियम, 1989 को दरकिनार करते हुए धर्मान्तरण का खेल चल रहा है। लेकिन ईसाई मिशनरियों का कहना है कि ‘धर्म परिवर्तन सम्बंधित की फॉर्म भरकर जिलाधिकारी को दिए जाने के सालों बाद भी कोई जवाब नहीं आता।’
भारत में कई राज्यों ने पहले ही धर्मान्तरण को रोकने के लिए कानून बनाए हैं और कर्नाटक में इसी तरह के कानून का प्रस्ताव रखा गया है। इसी बात का ऐतराज कर्नाटक के कैथोलिक विशपों को है कि इस तरह के कानूनी प्रावधानों से ईसाई समुदाय बदनाम हो जाएगा। वैसे तो ऐसा पहली बार नहीं है जब पिछड़े इलाकों और जरुरत मंद लोगों के बीच चर्च और मिशनरियों के कथित करतूतों को लेकर सवाल और विरोध उभरा हो। बल्कि कर्नाटक की तरह देश के कई हिस्सों में मुहीम के तहत बेरोकटोक लोगों को बुनियादी सुविधाएं देकर एक सुखद भविष्य के सब्जबाग़ दिखाए जाते हैं।
पिछले साल कोरोना के लॉकडाउन के दौरान सोशल मीडिया पर एक वीडियो वायरल हुआ था। इस वीडियो में झारखण्ड के जमशेदपुर के करीब परसुडीह रिहायशी इलाके से एक संताल आदिवासी युवक रमेश हांसदा ने खुलकर बताया कि एक ईसाई पुजारी उनके घर आया था और उन्हें उसने ईसाई धर्म अपनाने के लिए मनाने की कोशिश की थी। और इसके लिए उक्त पादरी ने अच्छा खाना और पैसे देने की पेशकश की। इसी तरह हालांकि 14 लाख की ईसाई आबादी वाले इस राज्य में धर्मांतरण विरोधी कानून साल 2017 से लागू है और इसके अंतर्गत लालच या जबरन धर्मांतरण के प्रयास के लिए तीन साल तक की कैद और 50,000 रुपये के जुर्माने का प्रावधान है। लेकिन किसे परवाह है ऐसे क़ानून की ?
धर्मान्तरण की कहानी का एक अकेला किरदार रमेश हांसदा नहीं है। बल्कि धर्मांतरण पर जारी राजनीतिक बहस के बीच, पिछले एक महीने में बिहार के गया जिले में महादलित समुदाय के कई लोगों ने ईसाई धर्म अपना लिया है। यह घटना जिले के नैली पंचायत के बेलवाडीह गांव की है जहाँ के लोगों ने यह दावा किया है कि उनकी मर्जी से धर्मांतरण हो रहा था और किसी ने उन्हें ईसाई धर्म अपनाने के लिए मजबूर या लालच नहीं दिया था। मगर धर्मान्तरण को लेकर बिहार में व्यापक रोष का माहौल है। मिशनरियों और कुछ विदेशी विकास संस्थाओं की बढ़ती गतिविधियों के चलते धर्मांतरण विरोधी कानून की मांग वहां सालों से की जा रही है। बिहार में धर्मान्तरण की कहानी इतनी सतही नहीं है। बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर वित्त पोषित एक ख़ास प्रोजेक्ट ‘सेवा के नाम पर सौदा’ का अनैतिक उपयोग कर रही है।
इसी तरह पश्चिम बंगाल के हालात भी संतोषजनक नहीं दिख रहे हैं। वहां बांग्लादेशी आबादी के सुनियोजित घुसपैठ और उन्हें भारत की नागरिकता दिए जाने का मसला चुनावी मौसम में भले की गहराता हो लेकिन वहां ईसाई मिशनरियों की गतिविधियां भी खासा आपत्तिजनक हैं। चर्च ने पिछले तीन या चार वर्षों में बड़े पैमाने पर राज्य के दक्षिण और उत्तरी क्षेत्रों को अपना निशाना बनाया है। अधिकांश ग्रामीण या शहरी इलाकों में ईसाई मिशनरी अपने प्रार्थना घरों को शुरू करने के लिए भारी मात्रा में धन का उपयोग कर रहीं हैं। गिरजाघरों, प्रार्थना घरों, प्रशिक्षण संस्थानों या बुक स्टालों, मेडिकल दुकानों या किराए के कमरों या परिसरों के लिए विशाल संरचनाएं बनाने के बाद, यीशु और बाइबिल के ये बाहरी प्रचारक कई इलाकों में गरीब हिंदू लोगों को एक से एक लुभावने प्रलोभनों के जरिये प्रभावित कर रहे हैं। एक बात मायनेखेज है कि पश्चिम बंगाल-बिहार और झारखण्ड के जिन इलाकों में बांग्लादेशियों को बसाये जाने की ‘वृहोत बांग्लादेश’ जैसी भविष्य की ‘महान योजना’ पर काम चल रहा है उन इलाकों में मिशनरियों के कार्यकलाप भी धड़ल्ले से जारी है।
बंगाल के डायमंड हार्बर से लेकर दक्षिण 24 परगना जैसे कुछ ख़ास हिस्से का यह अजीबोगरीब माहौल रोंगटे खड़े कर देता है। आलम यह है कि काकद्वीप, बरुईपुर, अलीपुर और कैनिंग अनुमंडल को ‘धर्मांतरण भूमि’ के रूप में बदल दिया गया है जहाँ हजारों गरीब और अज्ञानी हिंदू बहुत तेजी से और सूत्रबद्ध तरीके से ईसाई धर्मांतरण की साजिश के अबूझ शिकार हो रहे हैं। ईसाई मिशनरियों ने इस राज्य को बनाने के लिए ‘ऑपरेशन पिन कोड’ (ओपीसी) या ‘ऑपरेशन मोबिलाइजेशन’ (ओएम) कार्यक्रम का ख़ास अभियान चलाया है। इस मुहिम के तहत ‘यीशु की भूमि’ के रूप में पश्चिम बंगाल में सभी पिन कोड क्षेत्रों और उप-डाकघर क्षेत्रों में चर्च, प्रार्थना घर या साप्ताहिक मंडलियां स्थापित करने की योजना बनाई गयी है।
कोलकाता के सामाजिक कार्यकर्ता नकुल सी. जेना के मुताबिक ‘ईसाई मिशनरी केवल हिंदू क्षेत्रों का पता लगाते हैं और कभी भी किसी मुस्लिम इलाके में कोशिश नहीं करते हैं।’ धर्मान्तरण के मामले में झारखंड या पश्चिम बंगाल में कोई बड़ा अंतर नहीं है। यह बात दूसरी है कि बंगाल की सच्चाइयां खुलकर सामने नहीं आतीं। लेकिन झारखण्ड का आंकड़ा कितना डरावना है, यह पिछली जनगणना से पता कहलता है। इसके मुताबिक़ अकेले झारखण्ड में ईसाइयों की संख्या में 29.7% की वृद्धि हुई जबकि हिंदुओं की आबादी में 21.1% की वृद्धि हुई। आगे का आंकड़ा और भी दिलचस्प है– ईसाईयों के बाद आबादी में 28. 4% की वृद्धि मुसलमान धर्मावलम्बियों के बीच दर्ज की गयी है। झारखंड के आंकड़े राष्ट्रिय आंकड़ों के बिल्कुल विपरीत रहे हैं, जिसने सभी प्रमुख धर्मों में दशकीय विकास दर में तेज गिरावट दिखाई गयी है।
धर्मान्तरण के मूल में दो कारणों की ओर समाजविज्ञानी इशारा करते हैं– पहला गरीबी और दूसरा सामाजिक अधिकारों से वंचना। गरीबी के चलते होने वाले पलायन ने भी धर्मान्तरण की परिस्थितियां पैदा की हैं। आर्थिक सम्पन्नता के नाम की जागती संवेदना का मुलम्मा विदेशी धन इकट्ठा किये जाने का एक बड़ा जरिया झारखण्ड की राजधानी रांची के जिन चर्चों ने अपनाया है, उसके नतीजे भारत सरकार के गृह मंत्रालय के बेवसाइट दर्शाते हैं। राज्य के ग्रामीण विकास से संबंधित दस्तावेजों के अनुसार पिछले चार सालों में, झारखंड के चर्च से जुड़े 100 से अधिक ईसाई धार्मिक समूहों और गैर सरकारी संगठनों को विदेशी योगदान विनियमन अधिनियम (एफसीआरए) के माध्यम से 310 करोड़ रुपये का विदेशी धन मिला, जिसका उपयोग धर्मांतरण के लिए किया गया था। झारखण्ड के सामाजिक कार्यकर्ता बैद्यनाथ मांझी राज्य के चर्च और मिशनरियों पर निशाना साधते हुए कहते हैं कि वित्तीय वर्ष 2012-2013 से लेकर कोरोना आने तक आठ सालों की अवधि में झारखण्ड की 441 गैर-सरकारी संस्थाओं-चर्च और मिशन के खाते में शिक्षा- विकास और अधिकारों के मुद्दों पर भारतीय मुद्रा में 18 अरब से कहीं ज्यादा (INR 188831743621) की राशि विदेशों से आयी है। इनमें बड़ी हिस्सेदारी रांची के चर्च और मिशनरियों की है।
नकुल सी. जेना बताते हैं कि ‘ईसाई धर्मांतरण की साजिश पहाड़ी जनजातियों के बीच ज्यादा गंभीर दिखती है।’ वह दार्जिलिंग और जलपाईगुड़ी के टी गार्डन वाले इलाकों में खुद रहकर देखकर बताते हैं कि ‘ऐसे महत्वपूर्ण इलाकों में मिशनरी ईसायत के प्रचार और प्रसार में ऐड़ी-छोटी का पसीना एक कर देते हैं। जेना सुंदरबन की बाघ विधवाओं पर पुराने समय से पुनर्वास के काम में सक्रिय हैं। वह खुलासा करते हैं कि ‘दक्षिण बंगाल के सुंदरबन डेल्टा और तटीय क्षेत्रों में सीमांत मछुआरे परिवारों और अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लोगों के बीच बहुत सक्रिय हैं।’ बंगाल और झारखण्ड की तरह तेलंगाना का यथार्थ भी चिंताजनक है। जून महीने में कुछ दलितों के धर्मांतरण पर राज्य के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव पश्चाताप करते सुने गए कि दलितों के ईसाई धर्म में धर्मांतरण से उन्हें दुख हुआ है। उन्होंने कहा कि एक हिंदू के रूप में उन्हें बुरा लगता है कि दलित गरीबी के कारण पीड़ित हैं। यह दावा करना कि यह दलितों का ईसाई धर्म में धर्मांतरण था, समाज की गलती है क्योंकि वे उनकी रक्षा करने में असमर्थ थे और उन्हें दलितों के रूप में सम्मान से वंचित किया जा रहा था।
शिक्षाविद नरेश कुमार वैद्य आदिवासी इलाकों के अलावा पंजाब और देश के अन्य मैदानी इलाकों में किये जा रहे धर्मान्तरण पर बेहद साफगोई से अपना पक्ष रखते हैं। धर्मान्तरण के इतिहास में झांकते हुए वह बताते हैं कि देश भर में पांच लाख ऐसे मंदिर हैं जिन पर सरकार का नियंत्रण है। ये सारे मंदिर कमाई वाले हैं। लेकिन चर्च-मिशन और मस्जिद ऐसे किसी भी नियंत्रण में नहीं हैं। जब कोरोना के दौरान देश की भूख बेहिसाब हो गयी तो ईसाई और मुस्लिम संगठनों ने अपनी कमाई का एक बड़ा हिंसा भूख मिटाने में लगाकर लोगों की दिल ‘जीत’ लिया। नतीजतन पंजाब की बहुत बड़ी आबादी आज धर्मान्तरित हो चुकी है। “खुद पंजाब के वर्तमान मुख्यमंत्री मूलतः दलित पृष्ठभूमि के हैं और आज धर्मान्तरित ईसाई हैं”, नरेश कुमार वैद्य की यह सूचना राज्य के तमाम सामाजिक ताने-बाने का खुलासा कर रही है। उनका सवाल है कि ‘क्या हमारे मंदिरों के पास पैसे होते तो क्या लोगों की जरूरतें पूरी नहीं की जाती ?’
चर्च जनविरोधी के नियामक हैं। जनता के हितों का मुद्दा उभारकर जन सहानुभूति बटोरकर चर्च ने आदिवासियों और दलितों के बीच समर्थन जुटाया है। भले ही यह खबर नहीं है कि झारखंड में 1973 से चल रहे 710 मेगावाट क्षमता के कोयलकारो विद्युत परियोजना के व्यापक जन विरोध की वजह क्या है ? क्या बाढ़ बनने से उनके गाँव डूबेंगे तो उन आदिवासियों को अपना सांस्कृतिक पक्ष दिख रहा है ? क्या उन्हें टोला-टप्परों से गहरा लगाव है ? क्या उन्हें उचित मुआवजा नहीं मिलने जा रहा है ? ऐसे तमाम सवालों के बीच एक बड़ा सच यह भी है कि ज्यादातर प्रभावित परिवार ईसाई धर्मावलम्बी हैं और उनका बिखराव मिशनरियों और चर्चों की बेचैनी का सबव है।
तो उपाय क्या है ? झारखण्ड ट्राइबल रिसर्च इंस्टिट्यूट के पूर्व निदेशक डॉ० प्रकाशचंद्र ऊरांव आदिवासियों की भावनाओं और परम्पराओं के अनुरूप विकास की बात करते हैं। लेकिन परम्पराओं के सम्मान से रोटी-कपड़ा और मकान मिलना मुमकिन है ? क्या बेहतर शिक्षा की उम्मीद किया जाना संभव है ? नरेश कुमार वैद्य कहते हैं कि ‘विकास के प्रारूप और उसकी अवधारणा आज बदले जाने की जरूरत है। जिन लोगों का विस्थापन होता हो उन्हें सम्बंधित प्रोजेक्ट का स्टेक-होल्डर बनाइये। बिजली पैदा होती है उत्तराखंड में, दिल्ली रौशन होती है लेकिन जो लोग उजाड़ गए, उन्हें मुआवजे के अलावा क्या मिला ? डॉ० प्रकाश चंद्र उरांव के शब्दों में “नक्सली भी इसी वजह से आदिवासियों-दलितों और अन्य जातियों को इस बात की तसल्ली देते हैं कि सरकार उनका नहीं सुनती तो भला क्यों व्यवस्था का समर्थन करें?” विकास से आमजनों को जोड़कर, विकास कार्यक्रमों को और भी सटीक और सुचारु बनाकर अंतिम आदमी तक इसकी पहुँच बनाकर धर्मान्तरण रोका जा सकता है।
विदेशी अनुदान रोके जाने या विदेशी अनुदान पर नजर रखे जाने से धर्मांतरण रुक जाए– ऐसी कल्पना भी बेमानी है। हाल के सालों में कई संस्थाओं के एफसीआरए रद्द किये जाने या ढेर सारी विकास संस्थाओं को अपना बोरिया बिस्तर समेटकर अपने देश जाने के लिए भले ही मोदी सरकार ने बाध्य किया है लेकिन मिशन या चर्च का धर्मान्तरण का खेल रुका नहीं है। “जानकर आश्चर्य होगा कि मुंबई के ईसाई मिशनरियों द्वारा संचालित क्रिश्चियन विद्यालयों की सालाना आमदनी लगभग दो हजार करोड़ है। ये रकम किसकी जेब से जा रहा है?” नरेश कुमार वैद्य बताते हैं।
धर्मान्तरण का विवाद सुलझने के बजाय उलझता दिख रहा है। इसके लिए जरूरी है एक मजबूत और मुकम्मल राष्ट्रीय नीति की। लेकिन सवाल है कि आर्थिक गरीबी और सामाजिक वंचना के साथ जातीय उपेक्षा के दंश से भारत के समाज को मुक्ति कब मिलेगी ? जबतक इस ज़मीनी सवाल और सरोकार का समाधान नहीं हो जाता, समाज और देश का यह उलझाव सुलझने वाला नहीं है।
(लेखक का 28 साल का पत्रकारीय अनुभव है। विकास पत्रकारिता का एक चिर-परिचित चेहरा। फील्ड रिपोर्टिंग के लिए भारत के अलावा इंडोनेशिया-बांग्लादेश के दुर्गम इलाकों की साहसिक यात्राएं। ओडिशा की अनब्याही माताओं और सुंदरबन की बाघ विधवाओं जैसे संवेदनशील मुद्दों पर सतत लेखन। आदिवासी मुद्दों पर मुल्क की मीडिया को दिशा दी है। जन सरोकारों से जुड़े सरकार की नीतियों और कार्यक्रमों के विश्लेषक। इन दिनों धर्मान्तरण के मुद्दे पर काम कर रहे हैं)