ज्ञानेन्द्र पाण्डेय: केरल , तमिलनाडु असम और पश्चिम बंगाल के साथ ही केंद्र शासित क्षेत्र पुदुचेरी विधानसभा के ताजा चुनाव परिणाम आने के बाद सभी की जुबान से एक ही बात सुनाई दे रही है और वो यह कि कांग्रेस तो अब निपट गई। काफी हद तक ये बात ठीक भी है। बंगाल में कांग्रेस नहीं जीती कोई बात नहीं लेकिन उसके चक्कर में वाम मोर्चे का भी खाता नहीं खुला यह और परेशान करने वाली बात है।
ममता के खिलाफ मोर्चा बनाने के बाद भी न कांग्रेस एक सीट जीत सकी और न ही वाममोर्चा अपने लिए एक सीट का इंतजाम कर सका। इस राज्य में कांग्रेस समेत सभी गैर भाजपा दलों को एक तरह के संदेह का लाभ भी दिया जा सकता है कि भाजपा को सत्ता में आने से रोकने के लिये यह एक तरह की रणनीति थी जिसमें कांग्रेस और वाम मोर्चे को नुकसान उठाना ही था। माना कि बंगाल में ममता को बचाने के लिए ऐसा करना जरूरी हो गया था लेकिन पड़ोसी राज्य असम में क्या हुआ ? इस सीमान्त राज्य में तो इस बार कांग्रेस के पक्ष में हवा भी बहने लगी थी और भाजपा को सरकार विरोधी नाराजगी का भी सामना करना पड़ रहा था फिर भी वो वापस सरकार बनाने की हेसियत में आ गई । फिर केरल में क्या हो गया ? वहाँ तो बार कायदे में कांग्रेस नेतृत्व वाले संयुक्त लोकतांत्रिक मोर्चे की सरकार बननी चाहिए थी। पिछले कई दशकों से यही तो परंपरा बनी थी इस समुद्र तटीय दक्षिण भारतीय राज्य में कि एक बार वाम मोर्चा सरकार में तो अगली बार संयुक्त मोर्चा सरकार में। इस बार इस परंपरा का भी निर्वहन नहीं हुआ और सत्तारूढ़ वाममोर्चे की फिर सरकार में वापसी हो गई।
ये तीन राज्य तो राजनीति के लिहाज से कांग्रेस के लिए दुखदाई ही साबित हुए चौथे राज्य तमिलनाडु में जरूर द्रमुक के नेतृत्व वाला वह गठबंधन सरकार बनाने की हैसियत में आया जिसकी एक घटक कांग्रेस भी है लेकिन यहाँ भी कांग्रेस को जितनी भी सीटों पर जीत मिली है उसमें कांग्रेस से ज्यादा योगदान गठबंधन का नेतृत्व रहे दल द्रमुक को जाता है। रहा केंद्र शासित क्षेत्र पुदुचेरी तो उसे कोई पूछने वाला नहीं है फिर भी भाजपा ने 40 सदस्यीय विधानसभा वाले इस छोटे राज्य से कांग्रेस का प्रभाव चुनाव से पहले ही ख़त्म कर दिया था। चुनाव से करीब एक महीने पहले बनी यह स्थिति चुनाव बाद भी वैसी ही बनी रही ।
2021 के इस मिनी आम चुनाव में कांग्रेस की जो दुर्गति हुई वो किसी से भी छिपी नहीं है। इन राज्यों में कांग्रेस पहले भी सत्ता में नहीं थी लेकिन इस चुनाव के बाद कांग्रेस इन राज्यों में सत्ता से और दूर हो गई है। सवाल केवल सत्ता से दूर होने का ही नहीं है , सवाल इस बात का ही है कि अगर राज्यों में क्षेत्रीय दलों के राजनीतिक प्रभुत्व का यह सिलसिला इसी तरह बना रहा तो आने वाले समय में कांग्रेस के लिए बंगाल की तरह देश के किसी भी राज्य में जहां क्षेत्रीय दलों का प्रभुत्व है अपने लिए विधान सभा की एक भी सीट निकालना बहुत मुश्किल का काम हो जाएगा। देश की सबसे पुरानी और किसी समय केंद्र से लेकर सभी राज्यों में एकछत्र राज करने वाली कांग्रेस जैसी पार्टी के लिए यह एक शर्मनाक स्थिति होगी। इस बीच इस चुनाव के इस तरह के आंकड़े भी कम दिलचस्प नहीं लगते जिनके मुताबिक़ असम से लेकर तमिलनाडु , केरल , बंगाल और पुदुचेरी तक जितने राज्यों में भी पिछले दिनों विधान सभा के चुनाव हुए वहाँ विधानसभा की कुल 824 सीटों में से कांग्रेस ने सर्वाधिक 262 सीट पर विजय हासिल की है जबकि पूरे देश में चुनावी अश्वमेघ दौडाने वाली केंद्र और देश के सर्वाधिक राज्यों में सत्तासीन भाजपा ने इस चुनाव में कांग्रेस से भी कम 239 सीट जीती हैं।
ममता को भी कांग्रेस से कम 214 विधान सभा सीट जीत कर ही संतोष करना पड़ा है और वाम दलों को सिर्फ 93 सीटों पर ही जीत मिल सकी , फिर भी यह हमारे लोकतंत्र की ही एक खूबी है कि कांग्रेस कहीं भी सत्ता में नहीं आ सकी और उससे कम सीट पाने वाली ममता की तृणमूल कांग्रेस , भाजपा और वाममोर्चा क्रमशः बंगाल , असम और केरल में दुबारा सत्तासीन हुई हैं। बहरहाल सच बात तो यह है कि कांग्रेस आज काफी पिछड़ गई है और अपने इस पिछड़ेपन के लिए वो खुद जिम्मेदार है। बंगाल का चुनाव एक अपवाद हो सकता है लेकिन असम में कांग्रेस भाजपा को शिकस्त इसलिए नहीं दे सकी क्योंकि वहाँ पूर्व केन्द्रीय मंत्री संतोष मोहन देव और राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री तरुण गोगोई की बेटी सुष्मिता देव और गौरव गोगोई आपस में ही एक दूसरे को निपटाने में लगे हुए थे। कांग्रेस पार्टी के शीर्ष नेतृत्व ने हालांकि चुनाव से कुछ माह पहले ही छत्तीसगढ़ के कांग्रेसियों की एक टीम को चुनाव सञ्चालन की जिम्मेदारी सौंपी थी लेकिन यह जिम्मेदारी अधूरी थी ..
इस टीम के पास कोई अधिकार नहीं थे और न ही उम्मीदवारों का चयन ही इस टीम की सहमति से किया गया था. पार्टी के सभी उम्मीदवार भी सुष्मिता बनाम गौरव खेमों द्ववारा ही तय किये गए थे. और इन खेमों के नेता छत्तीसगढ़ टीम की कोई भी बात सुनने को तैयार नहीं थे ऐसे में तमाम उम्मीदों के बावजूद नतीजे तो ऐसे ही आने थे, हाँ अगर किसी बाहरी प्रदेश की टीम को पूरी आजादी के साथ एक साल पहले ही यह जिम्मेदारी सौंप दी गई होती तो असम के परिणाम भी वैसे ही होते जैसे कुछ साल पहले पंजाब , राजस्थान , मध्य प्रदेश , छत्तीसगढ़ , महाराष्ट्र और झारखंड जैसे राज्यों में देखने को मिले थे . इसी तरह केरल में कांग्रेस ने यह समझते हुए खुद को धोखा दिया कि इस बार तो एलडीऍफ़ का हारना तय ही है इसलिए उसने कोई मेहनत नहीं की चुनाव से कुछ माह पहले ही पार्टी के एक राष्ट्रीय नेता पीसी चाको का पार्टी छोड़ना और क्षेत्रीय नेतृत्व को महत्त्व न देना भी इस बार कांग्रेस के खिलाफ गया तमिलनाडु में कांग्रेस एक पिछलग्गू पार्टी की तरह द्रमुक के साथ लगी रही जिसका उसे लाभ भी मिला। पुदुचेरी में भी कांग्रेस को कोरे आत्मविश्वास और स्थानीय पार्टी नेताओं के थोथे दंभ के चलते नुकसान उठाना पड़ा है। प्रसंगवश जो लोग यह मान कर चलते हैं कि अब कांग्रेस ख़त्म हो गई है , उन्हें इस तथ्य पर भी गौर करना चाहिए कि 2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद देश के जितने भी राज्यों में विधान सभा के चुनाव हुए हैं उनमें कई राज्यों में न केवल कांग्रेस की सरकारें बनी हैं बल्कि गुजरात जैसे भाजपा शासित राज्यों में कांग्रेस ने पहले के मुकाबले अपनी स्थिति बहुत मजबूत भी की है। एक दिक्कत कांग्रेस के साथ यह भी है कि इस पार्टी के सभी नेता आज भी इसी गुमान में रहते हैं कि वो सत्तारूढ़ पार्टी के नेता हैं। पूर्व प्रधान मंत्री इंदिरा गाँधी जैसा कोई भी नेता आज कांग्रेस में नहीं है जो सत्ता के नशे को एकदम झटक दे और विपक्ष के यथार्थ को समझ कर काम करे। इंदिरा गाँधी ने इसी गुण के चलते 1977 की करारी और शर्मनाक हार के बाद 1980 में जोरदार वापसी कर ली थी .पार्टी के नेता आज भी इतनी ठसक से रहते कि आम आदमी तो छोडो पार्टी के छोटे नेताओं तक से मिलना उनको गवारा नहीं है .इन हालात में कांग्रेस के साथ वही होना था जो इस चुनाव में हुआ है लेकिन अगर पार्टी के नेता समय से चेत गए तो स्थिति बेहतर भी हो सकती है।