ऋचा साकल्ले: बॉम्बे हाईकोर्ट की जस्टिस पुष्पा गनेडीवाला के फैसले ने यह साबित कर दिया है कि अदालतों में स्त्रियों के प्रति संवेदना का स्तर क्या है। पिछले साल से लगातार अदालतें अपनी स्त्री विरोधी और मर्दवादी सोच दिखा रही हैं।
इस ताजा फैसले में जिसमें यौन शोषण के आरोपी को पॉस्को से राहत दी गई यह कहकर कि “सिर्फ वक्षस्थल को जबरन छूना मात्र यौन उत्पीड़न नहीं माना जाएगा, इसके लिए यौन मंशा के साथ स्किन टू स्किन कॉन्टेक्ट होना ज़रूरी है.” साफ बता रहा कि माननीय न्यायमूर्ति की महिलाओं के लिए संवेदना का आलम क्या है।
इससे पहले माननीय सुप्रीम कोर्ट भी कह चुका है कि किसान आंदोलन में महिलाओं का क्या काम।चीफ़ जस्टिस बोबडे ने सुनवाई के दौरान सवाल किया था कि ‘इस विरोध प्रदर्शन में महिलाओं और बुज़ुर्गों को क्यों शामिल किया गया है’।
माननीय मुख्य न्यायाधीश का ये सवाल और सोच शाहीन बाग के प्रदर्शन की सुनवाई के दौरान सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता की याद दिलाते हैं जिन्होंने कहा था कि ‘प्रदर्शनकारियों ने अपने आंदोलन में महिलाओं और बच्चों को सुरक्षा कवच बनाया हुआ है.’
अब याद करिए मध्य प्रदेश हाईकोर्ट की इंदौर बेंच का भी ऐसा ही अजीबोगरीब फैसला जहां माननीय जज साहब ने महिला से छेड़छाड़ और आपत्तिजनक व्यवहार के एक आरोपी को 50000 के मुचलके पर जमानत पर रिहा करते हुए कहा कि अब आरोपी महिला के घर जाकर उससे राखी बंधवाएगा और आजीवन उसकी रक्षा का वचन देगा। मतलब भक्षक एक झटके में रक्षक बन जाएगा जैसे ये कोई केस नहीं है कोई फिल्म है जिसकी हैप्पी एंडिंग कर दी गई। हद है।
थोड़ा और पीछे आएं तो जून के महीने में गुवाहाटी हाईकोर्ट में जस्टिस अजय लांबा और जस्टिस सौमित्र सैकिया ने एक तलाक के एक केस की सुनवाई करते हुए कहा है कि अगर पत्नी ‘शाखा’ (कौड़ियों से बनी चूड़ियां) और सिंदूर पहनने से मना करे तो मतलब उसे शादी मंजूर नहीं है। ऐसा आदर्श गुवाहाटी कोर्ट ने सेट करने की कोशिश की कि स्त्री अगर सिंदूर न लगाए तो वह शादीशुदा जिंदगी से खुश नहीं.
जी हां अब अदालतें बता रहीं हैं आदर्श भारतीय नारी की परिभाषा। कर्नाटक हाई कोर्ट ने इस परिभाषा को ही स्पष्ट कर दिया था और कहा था कि आदर्श भारतीय स्त्री वह है, जो बलात्कार के बाद सोए नहीं तुरंत इस अपराध की सूचना दे। माननीय कोर्ट की समझ और आम समझ में क्या अंतर है कि आखिर आदर्श भारतीय स्त्री बलात्कार के बाद सो कैसे सकती है?
कुल मिलाकर जैसे फैसले सामने आ रहे हैं वो साबित कर रहे हैं कि हमारी अदालतें खाप की तरह हो गई हैं और जज गली-मोहल्ले के दादा। जिनमें पुरुष जज भी शामिल हैं और महिला जज भी। दरअसल मुझे लगने लगा है कि मामला अब सिर्फ प्रतिनिधित्व का नहीं रह गया है कि महिला जज होती तो वो समझती, महिलाओं के लिए थोड़ी संवेदनशील होती। जिसकी डिमांड चल भी रही है कि अदालतों में महिला जजों की संख्या बढ़े। निस्संदेह बढ़े, लेकिन उससे आप ये मान लें कि फैसलों में महिलाओं के लिए संवेदना का स्तर भी बढ़ जाएगा तो यह इस समाज के लिए अभी तो संभव नहीं लगता।
सच्चाई यही है कि कोई महिला जज हो या पुरुष जज सब इसी मर्दवादी समाज से आए हैं तो उनकी सोच मर्दवादी होगी ही जो उनके फैसलों में झलकेगी ही।इसलिए वकालत की जाए अदालतों में जजों के जेंडर सेंसेटाइजेशन की। ताकि समानता और न्याय जैसे मूल्य वास्तविक रूप में स्थापित हों।
सम्यक विश्लेषण