उच्चतम न्यायालय ने मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के उस आदेश पर नाराजगी व्यक्त की है, जिसमें कहा गया था कि सजा के निलंबन के लिए दोषी की याचिका को तभी स्वीकार किया जा सकता है, जब उसने अपनी सजा की आधी अवधि पूरी कर ली हो। न्यायमूर्ति अभय एस ओका और न्यायमूर्ति उज्जल भुइयां की पीठ ने एक व्यक्ति को जमानत प्रदान करते हुए कहा कि यदि लंबित मामलों की बड़ी संख्या के कारण उच्च न्यायालयों में निकट भविष्य में दोषसिद्धि के खिलाफ अपील की सुनवाई की कोई संभावना नहीं है, तो दोषी को जमानत प्रदान की जानी चाहिए।
पीठ ने 17 अप्रैल को कहा, “हमें आश्चर्य है कि उच्च न्यायालय ने कानून का एक नया प्रस्ताव तैयार किया है जिसका कोई आधार नहीं है।”
शीर्ष अदालत ने कहा कि उच्च न्यायालय को मौजूदा कानून को लागू करना चाहिए था और याचिकाकर्ता को जमानत के लिए उसके समक्ष जाने के लिए मजबूर नहीं किया जाना चाहिए था।
उच्च न्यायालय के आदेश में कहा गया है, “इस तथ्य को देखते हुए कि अपीलकर्ता की पैंट की जेब से दागदार नोट बरामद किए गए हैं और इसके लिए कोई स्पष्टीकरण नहीं दिया गया है, सजा को निलंबित करने और जमानत देने का कोई मामला नहीं बनता है।”
इसमें कहा गया है, “दूसरा आवेदन दायर किया गया है…पहले आवेदन को खारिज किए जाने के दो महीने से भी कम समय बाद। तदनुसार, यह स्पष्ट किया जाता है कि अपीलकर्ता छूट सहित जेल की सजा की आधी अवधि पूरी करने के बाद सजा के निलंबन के लिए अपनी प्रार्थना को पुनर्जीवित कर सकता है।”
सर्वोच्च न्यायालय ने इस बात पर भी आपत्ति जताई कि उसके कई फैसलों के बावजूद ट्रायल कोर्ट और उच्च न्यायालयों ने कानून के सामान्य उल्लंघन से जुड़े मामलों में भी आरोपियों को जमानत देने से इनकार कर दिया।