‘बाल विवाह अधिनियम पर व्यक्तिगत कानून हावी नहीं हो सकते’: शीर्ष अदालत ने जारी किए दिशानिर्देश
सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को माना कि व्यक्तिगत कानून और परंपराएं बाल विवाह निषेध अधिनियम पर हावी नहीं हो सकती हैं और कानून के “संपूर्ण उद्देश्य” को प्राप्त करने के लिए कई दिशानिर्देश जारी किए। भारत के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने कहा कि बच्चों से जुड़े विवाह, पसंद का जीवन साथी पाने की स्वतंत्र इच्छा का उल्लंघन करते हैं। सुप्रीम कोर्ट एक याचिका पर सुनवाई कर रहा था जिसमें देश में बाल विवाह में वृद्धि और कानून को “शब्दशः” लागू न करने का आरोप लगाया गया था।
समुदाय-संचालित दृष्टिकोण का आह्वान करते हुए अदालत ने कहा कि निवारक रणनीतियों को विभिन्न समुदायों के अनुरूप बनाया जाना चाहिए। सीजेआई ने कहा, “कानून तभी सफल होगा जब बहु-क्षेत्रीय समन्वय होगा। कानून प्रवर्तन अधिकारियों के प्रशिक्षण और क्षमता निर्माण की जरूरत है।”
कोर्ट ने कहा कि लोगों इसके नफा और नुकसान के बारे में बताना होगा। कोर्ट ने कहा फैसले की कॉपी गृह मंत्रालय सहित अन्य विभागों को भेजा जाए। कोर्ट ने कहा कि बाल विवाह निषेध अधिनियम, 2006 सभी पर्सनल लॉ पर प्रभावी होगा। कोर्ट ने माना है कि बाल विवाह निषेध कानून में कुछ खामियां है।बाल विवाह आए जीवनसाथी चुनने का विकल्प छिन जाता है।
सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस मनोज मिश्रा की बेंच ने यह फैसला सुनाया। कोर्ट ने सभी पक्षों की जिरह के बाद 10 जुलाई को फैसला सुरक्षित रख लिया था।
शीर्ष अदालत ने कहा कि अधिकारियों को अंतिम उपाय के रूप में अपराधियों को दंडित करते समय बाल विवाह की रोकथाम और नाबालिगों की सुरक्षा पर ध्यान देना चाहिए।
हालाँकि, अदालत ने बताया कि बाल विवाह निषेध अधिनियम में कुछ खामियाँ थीं। सीजेआई ने कहा कि कानून में ऐसे विवाहों की वैधता के बारे में कुछ नहीं कहा गया है।
अदालत ने कहा, “कानूनी सवालों को संवैधानिक अदालत द्वारा तय किए जाने के लिए खुला रखा गया है। व्यक्तिगत कानूनों को बाल विवाह निषेध अधिनियम के साथ जोड़ने पर विचार किया जाना चाहिए।”
मामले की सुनवाई के दौरान कोर्ट ने कहा था कि बाल विवाह में शामिल लोगों पर केस करने से ही इस समस्या का समाधान नहीं होगा। यह याचिका सोसाइटी फॉर एनलाइटनमेंट एंड वॉलेंटरी एक्शन ने साल 2017 में दायर की थी। याचिका में कहा गया था कि बाल विवाह निषेध अधिनियम को पूरी तरह से राज्य सरकारें लागू नही कर रही है।
सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने जागरूकता अभियान और प्रशिक्षण जैसे विशिष्ट कार्यक्रमों पर सवाल उठाते हुए कहा था कि ये कार्यक्रम और व्याख्यान वास्तव में जमीनी स्तर पर चीजों को नही बदलते है। कोर्ट ने कहा था कि यह एक सामाजिक मुद्दा है। सरकार इसपर क्या कर रही है। सुनवाई के दौरान सरकार की ओर से कहा गया था कि बाल विवाह के मामलों में कमी आई है। असम को छोड़कर पूर्वोत्तर राज्यों में ऐसी घटना देखने को नही मिली है। जबकि दादर नगर हवेली, मिजोरम और नागालैंड समेत पांच राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में बाल विवाह का कोई मामला सामने नहीं आया है।
केंद्र सरकार ने दावा किया था कि देश बाल विवाह के मामलों में काफी कमी आई है। हालांकि इससे पहले सुप्रीम कोर्ट ने महिला एवं बाल विकास मंत्रालय को बाल निषेध अधिनियम को क्रियान्वित करने के लिए उठाए गए कदमों के विवरण देने को कहा था।
मालूम हो कि भारत में बाल विवाह पर रोक है। भारतीय कानून के निषेध अधिनियम 2006 के मुताबिक शादी के लिए एक लड़की की उम्र 18 साल और लड़के की उम्र 21 साल होनी चाहिए। अगर इससे कम उम्र में लड़के और लड़की की शादीकराई जाती है तो यह जुर्म है और कानून में इसको लेकर सजा तय किया गया है।
व्यक्तिगत कानूनों पर अधिभावी प्रभाव डालने के लिए कानून में संशोधन करने वाला एक विधेयक संसदीय समिति के समक्ष लंबित है।
बाल विवाह को रोकने और इस प्रथा का उन्मूलन सुनिश्चित करने के लिए 2006 में बाल विवाह निषेध अधिनियम लागू हुआ। इस अधिनियम ने 1929 के बाल विवाह निरोधक अधिनियम का स्थान ले लिया।