वाराणसी- महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ हमेशा चर्चा में बना रहता है, एक तरह कुलपति प्रोफेसर आनंद त्यागी ये कहकरा पढ़ते नजर आते है, समाज के सबसे निचले पायदान पर पहुंचना मकसद है, लेकिन उनकी कथनी और करनी में जमीन आसमान का अंतर हैं। भ्रष्टाचार और जातिगत राजनीति व्यापक तौर पर यूनिवर्सिटी कैंपस और कुलपति ऑफिस, रजिस्ट्रार कार्यालय पर हावी है। जिसका ताज़ा परिणाम राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू के साथ राज्यपाल आनंदी पटेल के सानिध्य से सुसज्जित 45वें दीक्षांत समारोह में देखा जा सकता है।
विश्विद्यालय के इतिहास में ये पहली बार है कि सर्वोच्च डिग्री
डॉक्टर ऑफ लेटर्स (डी.लिट.) से शुरुआत ना करके अन्य मेडल देने से कार्यक्रम का आगाज़ होगा। कुल 16 मेडल राष्ट्रपति के हाथों दिलवाये जाएंगे। लेकिन ऐसा क्यों है की जिस डिग्री की चर्चा सबसे ज्यादा होनी चाहिए, उस पर होने वाली चर्चा और मीडिया से उसकी दूरियां बरकरार रहे इसलिए राष्ट्रपति मुर्मू के हाथों प्रदान किये जाने वाले लिस्ट से इसको बाहर रखा गया है।
कुलपतियों के कार्यकाल को देखे तो शायद आनंद त्यागी ही ऐसे कुलपति है जिन्होंने शोध को प्रोत्साहित किया है। लेकिन उनकी शैली इससे जुदा है। शोध नहीं यस मैन और नो मैन के शोमैन त्यागी। अथक परिश्रम से अर्जित डिग्री वो भी अपने परिसर के प्रोफेसर की राष्ट्रपति के द्वारा ग्रहण किये जाने से रोकने की राजनीति में मूक दर्शक आनंद त्यागी क्यों बने बैठे है?
दरअसल आजकल विश्विद्यालय में पूर्व कुलपति त्रिलोकीनाथ सिंह के चेलों का बोलबाला है। ऐसे लोगों की शैक्षणिक योग्यता नहीं लेकिन प्रोफेसर और विभागाध्यक्ष बने घूम रहे है। ये ऐसे लोग है बस चले तो पैरों दंडवत होकर अपनी जबान से पूरा फर्श और जूता साफ कर दें। मक्खन का डब्बा लेकर घूमते है। बनारस के मशहूर राम भंडार के रसगुल्लों से भी ज्यादा मीठी जबान वाले ये गिरोहबाजों का बस अपनी जेब अपना फायदा का हिसाब है। इन लोगों को प्रोफेसर त्यागी ने अपने आसपास बिठा रखा है। सभी को फ़र्ज़ी अनुभव के आधार पर प्रोमोशन दिया गया है। बाबूगिरी का अनुभव रखने वाले को प्रोफेसर बना दिया गया कैसे ??बड़ा सवाल तो है।
इस सूची में के. के. सिंह, निशा सिंह, चंद्रशेखर, अनुकूल चंद्र राय जैसे अन्य लोगों के नाम शामिल है। कुछ तो इसमें महादेव महाविद्यालय के करीबी रिश्तेदार भी बताएं जाते है जिसका फ़र्ज़ी कागज़ों पर भ्रष्टाचार और हत्या का मामला तो सुर्खियों में पिछले कुछ महीनों से चर्चा में बना ही हुआ है।
रजिस्ट्रार सुनीता पांडेय और कुलपति आनंद त्यागी क्यों इस भ्रष्टाचारी गैंग पर आश्रित है। जो अपनी खुन्नस में किसी दलित का शोषण में करने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे। पहले एक गेस्ट टीचर को निपटाने के मामला हो या आज दोबारा दलित शिक्षक को प्रताड़ित और मानसिक शोषण के साथ राष्ट्रपति के द्वारा दिये जाने वाले मेडल की सूची से बाहर निकाल कर फेंक देना। चौपट नगरी का अजब रिवाज और दस्तूर बन गया है महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ।
महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ की स्थापना 100 साल पहले की गई थी, महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ उस जमाने के आधुनिक विश्विद्यालय में शुमार था। राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम से प्रेरित था, युवाओं को आकर्षित करने के लिए और समाज के बीच के गहरी खाई को पाटने के लिए तमाम प्रयासों के बदौलत आज विश्विद्यालय से पढ़कर निकले मेरे जैसे छात्रों के लिए भी ये गर्व का विषय रहा है। दलित, शोषित और वंचितों को लिए एक साथ लाने के लिए इस विश्वविद्यालय ने तमाम विचारक और प्रधानमंत्री तक देश को दिए है। उसी बगिया में भ्रष्टाचार और समाज के निचले तबके से आने वाले मेहनती और दलितों को को शिक्षा और समानता के अधिकार से वंचित रखने के प्रावधान नहीं रखे गये थे।
शारीरिक शिक्षा विभाग में कार्यरत सुशील कुमार गौतम को उनके प्रोगेसिव और सच के लिए लड़ने वाले के तौर पर जाने जाते है। विश्विद्यालय के छात्र और सहयोगी से पूछने पर इस बात की पुष्टि हुई। सुशील गौतम को मेहनत और लगन के बदौलत डी. लिट् की ये उपाधि मिलने जा रही है।
डॉक्टर ऑफ लेटर्स की मानद उपाधि और मेडल दे कर ही हमेशा दीक्षांत समारोह की शुरुआत होती है। अगर उस वर्ष में कोई डिग्री डी. लिट् पूरी हो रही हो तो। इस बार विद्यापीठ के 45वे दीक्षांत समारोह में डी. लिट् की एक अकेली डिग्री है जो सुशील गौतम को मिलेगी फिर क्यों 16 नामों की लिस्ट में गौतम का नाम नारारद क्यों है ? इसलिए क्योंकि गौतम दलित होने के साथ भ्रस्टाचार में लिप्त लोगों की पहली पसंद नहीं है। कुलपति, रजिस्ट्रार, प्रॉक्टर समेत जातिगत समीकरणों का गैंग ऐसे किसी भी व्यक्ति को आगे नहीं बढ़ने देने के मौके ढूंढता है। जहाँ उनकी कलई उतर सकती है। इसलिए गौतम को समय सीमा का हवाला देते हुये राष्ट्रपति के हाथों से मेडल लेने के लिए रोका जा रहा है।
अब बड़ा सवाल राज्यभवन और राष्ट्रपति भवन पर भी है क्या ?इस तरह की मनमानी जायज़ है !!
गौतम को सूची से बाहर रखने पर दलित समुदाय और अन्य वर्गों के छात्रों में भी काफी आक्रोश है।
केवल कुछ लोगों के व्यक्तिगत स्वार्थ और शिक्षा के गिरते स्तर पर कुछ लोग शोध में कुछ काम करना चाहते है उनके काम को जाति और स्वार्थ देखकर अनदेखा कर दिया जाये। ऐसी तुष्टिकरण की राजनीति वो भी तब जब देश का महामहिम खुद दलित और समाज से वंचित तबके से आता हो।