पटना हाईकोर्ट ने गुरुवार को बिहार में जाति आधारित जनगणना पर रोक लगा दी है। यह फैसला बिहार सरकार द्वारा राज्य में जातिगत जनगणना कराने के प्रस्ताव के बीच आया है। राज्य में विपक्षी भाजपा जनगणना के विरोध में खड़ी हो गई थी। पटना हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस वी चन्द्रन की बेंच ने ये फैसला सुनाया है। इस मामले में अगली सुनवाई 3 जुलाई को होगी।
याचिकाकर्ता के वकील दीनू कुमार ने कहा कि जातिगत जनगणना पर 500 करोड़ रुपये खर्च किए जाएंगे, जो धन का दुरूपयोग होगा। इसलिए कोर्ट ने माना है कि यह नीति 1948 के संविधान, क़ानून और जनगणना अधिनियम के खिलाफ है।
याचिकाकर्ताओं के वकील ने इससे पहले कहा था कि बिहार सरकार के पास जातिगत जनगणना करने की कोई कानूनी शक्ति नहीं है और ऐसी जनगणना केवल केंद्र द्वारा की जानी चाहिए।
JUST IN: In an interim order, the #PatnaHighCourt stays the caste-based survey; directs the state government to ensure that the data already collected are secured and not shared with anybody till final orders are passed by the court. pic.twitter.com/xdDvUL0qBt
— The Leaflet (@TheLeaflet_in) May 4, 2023
सरकार के जातिगत जनगणना कराने के फैसले के खिलाफ पटना हाईकोर्ट में 6 याचिकाएं दाखिल की गई थीं। इन याचिकाओं में जातिगत जनगणना पर रोक लगाने की मांग की गई थी। हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस के विनोद चंद्रन और जस्टिस मधुरेश प्रसाद की बेंच ने बुधवार को इनपर सुनवाई पूरी कर फैसला सुरक्षित रख लिया था।
कोर्ट के निर्णय पर बिहार के पूर्व उपमुख्यमंत्री तारकिशोर प्रसाद ने कहा कि बिहार सरकार ने इस मुद्दे को ठीक से हाईकोर्ट के सामने नहीं रखा इसलिए इस प्रकार का निर्णय आया है। मैं तो इस महागठबंधन सरकार पर आरोप लगाता हूं कि जाति आधारित जनगणना पर इनकी (बिहार सरकार) मंशा गलत थी। NDA सरकार ने तो जाति आधारित जनगणना कराने का निर्णय लिया था।
वहीं बिहार के उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव ने कहा कि कोर्ट का निर्देष पढ़ने के बाद ही सरकार अपना अगला कदम उठाएगी। मगर ये जाति आधारित जनगणना नहीं था बल्कि सर्वे था, जो सरकार का कोई पहला सर्वे नहीं था। हमारी सरकार ये सर्वे कराने के लिए प्रतिबद्ध है। ये जनता के हित में था और जनता की मांग थी कि ये सर्वे होना चाहिए।
बिहार सरकार का जातिगत जनगणना कराने के पक्ष में तर्क ये है कि 1951 से एससी और एसटी जातियों का डेटा पब्लिश होता है, लेकिन ओबीसी और दूसरी जातियों का डेटा नहीं आता है। इससे ओबीसी की सही आबादी का अनुमान लगाना मुश्किल होता है।1990 में केंद्र की तब की वीपी सिंह की सरकार ने दूसरा पिछड़ा वर्ग आयोग की सिफारिश को लागू किया। इसे मंडल आयोग के नाम से जानते हैं। इसने 1931 की जनगणना के आधार पर देश में ओबीसी की 52% आबादी होने का अनुमान लगाया था। मंडल आयोग की सिफारिश के आधार पर ही ओबीसी को 27% आरक्षण दिया जाता है। जानकारों का मानना है कि एससी और एसटी को जो आरक्षण मिलता है, उसका आधार उनकी आबादी है, लेकिन ओबीसी के आरक्षण का कोई आधार नहीं है।
नीतीश कुमार की सरकार ने 7 जनवरी को बिहार में अपनी बहुप्रचारित जाति आधारित जनगणना शुरू की थी। इस परियोजना की लागत 500 करोड़ रुपये थी। जाति आधारित जनगणना दो चरणों में होने वाली थी। पंचायत से जिला स्तर तक आठ स्तरीय सर्वेक्षण के हिस्से के रूप में एक मोबाइल एप्लिकेशन के माध्यम से डेटा को डिजिटल रूप से एकत्र किया जा रहा था।
इस ऐप में स्थान, जाति, परिवार में लोगों की संख्या, उनके पेशे और वार्षिक आय के बारे में प्रश्न थे। जनगणना कर्मियों में शिक्षक, आंगनवाड़ी, मनरेगा या जीविका कार्यकर्ता शामिल थे।
ये जाति जनगणना तब भी हो रही थी जब केंद्रीय गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय ने 2021 में संसद में कहा था कि अनुसूचित जाति (एससी) और अनुसूचित जनजाति (एसटी) को छोड़कर कोई भी जाति आधारित जनगणना नहीं होगी। आजादी के बाद से केंद्र ने अब तक सात जनगणनाएं की हैं और केवल अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति से संबंधित आंकड़े प्रकाशित किए हैं।