इस मौके पर नवनिर्वाचित राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कारगिल लड़ाई में भारतीय सेना के शहीद जवानों को नमन किया। राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने अपने ट्वीट में लिखा कि कारगिल विजय दिवस हमारे सशस्त्र बलों की असाधारण वीरता, पराक्रम और दृढ़ संकल्प का प्रतीक है। भारत माता की रक्षा करने के लिए अपने प्राण न्योछावर करने वाले सभी वीर सैनिकों को मैं नमन करती हूं। सभी देशवासी इन शहीदों और उनके परिजनों के प्रति सदैव ऋणी रहेंगे. जय हिंद.मोदी जी ने भी एक ट्वीट में शहीद भारतीय सैनिकों को नमन कर लिखा कारगिल विजय दिवस मां भारती की आन-बान और शान का प्रतीक है. इस अवसर पर मातृभूमि की रक्षा में पराक्रम की पराकाष्ठा करने वाले देश के सभी साहसी सपूतों को मेरा शत-शत नमन। जय हिंद।
कारगिल विजय दिवस हमारे सशस्त्र बलों की असाधारण वीरता, पराक्रम और दृढ़ संकल्प का प्रतीक है। भारत माता की रक्षा के लिए अपने प्राण न्योछावर करने वाले सभी वीर सैनिकों को मैं नमन करती हूं। सभी देशवासी, उनके और उनके परिवारजनों के प्रति सदैव ऋणी रहेंगे। जय हिन्द!
— President of India (@rashtrapatibhvn) July 26, 2022
इतिहास गवाह है कि पाकिस्तान ने हिंदुस्तान में घुसकर कारगिल पर कब्जा कर लिया था। पाकिस्तान ने हिंदुस्तानी सैनिक मार गिराए थे। पाकिस्तान की एक इंच जमीन पर भी हिंदुस्तान कब्जा नहीं कर सका।ये सवाल लाजिमी है तो फिर क्यों हिंदुस्तान में इसे बतौर विजय दिवस मनाया जाता है। कुछ लोगों की राय में कारगिल कांड, हिंदुस्तान की सभी खुफिया एजेंसियों की नाकामी की कहानी है। लेकिन भारतीय जनता पार्टी यानि बीजेपी हमारे फौजियों की शहादत पर 26 जुलाई को साल-दर-जश्न मनाती आ रही है। यह सवाल नरेंद्र मोदी जी और बीजेपी वालों से तब तक पूछा जाना चाहिए जब तक इस क्यों का कोई ठोस जवाब नहीं मिल जाता है।
कहते हैं पाकिस्तान ने कारगिल युद्ध की साजिश तब रची थी जब उस वक्त के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी दोस्ती का पैगाम लेकर बस से लाहौर गए थे। वह फरवरी 1999 में लाहौर गए थे। 21 फरवरी 1999 को दोनों देशों के बीच समझौता हुआ जिसे लाहौर समझौता कहा जाता है. समझौते के बाद दोनों देशों ने कहा कि हम सहअस्तित्व के रास्ते से आगे बढ़ेंगे और कश्मीर जैसे मुद्दों को बैठकर सुलझा लेंगे. एक तरफ जहां पाकिस्तान भारत की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ा रहा था तो वहीं उसकी सेना भारत के खिलाफ साजिश रच रही थी. दरअसल, शिमला समझौते के बाद तय हुआ था कि कारगिल में जहां सर्दियों में तापमान मेनस 30 और 40 डिग्री सेल्सियस चला जाता है वहां से दोनों देशों की सेना अक्टूबर के महीने से अपनी पोस्ट छोड़कर चली जाया करेंगी और फिर मई जून में फिर से अपनी पोस्ट पर जाएंगी। जब भारतीय सेनाएं 1998 में अपनी पोस्ट छोड़ जा रही थीं तो पाकिस्तानी सेनाओं ने ऑपरेशन बद्र के तहत अपनी पोस्ट नहीं छोड़ी और पाकिस्तानी घुसपैठिए भारतीय पोस्ट पर कब्जा कर बैठ गए। इस ऑपरेशन के तहत जनरल मुशर्ऱफ का प्लान था कि पाकिस्तानी सेना श्रीनगर-लेह हाईवे पर कब्जा कर लेगी जिससे सियाचिन पर पाकिस्तान आसानी से कब्जा कर सकता है। ये बात 2 मई 1999 की है। ताशी नामग्याल नाम का एक चरवाहा अपने याक को ढूंढ रहा था। अपने याक को ढूढते हुए वह कारगिल की पहाड़ियों पर जा पहुंचा जहां उसने पाकिस्तानी घुसपैठियों को देखा। उसने अगले दिन इसकी जानकारी भारतीय सेना को दी।
संस्मरण
मई से जुलाई 1999 के बीच कारगिल लड़ाई में शहीद सैनिकों के परिजन को पेट्रोल पंप आवंटित करने तब की अटल बिहारी वाजपेई सरकार की योजना को लागू करने में भ्रष्टाचार पर वर्ष 2003 में धूप नाम से एक फिल्म बनी जिसका निर्देशन करने वाले फिल्मकार अश्विनी चौधरी हैं। वह हरियाणा लोक सेवा के अध्यक्ष रहे शिक्षाशास्त्री और पाक्षिक अखबार पींग के संपादक डी आर चौधरी के पुत्र है। डी आर चौधरी की हाल में दूसरी पुण्य तिथि पर तक्षक पोस्ट पर हिन्दी और अंग्रेजी में लिखे आलेख में हम विस्तार से चर्चा कर चुके है।
बारहवीं लोक सभा में 21 मार्च 1999 को अटल बिहारी वाजपेयी सरकार एक वोट के अंतर से विश्वास-मत प्रस्ताव हार गई.ये दीगर बात है कि वो एक वोट किनका था। मगर इसके कुछ ही दिनों बाद राष्ट्रपति ने यह देख कर कि कोई वैकल्पिक सरकार नहीं बन सकती निर्वाचन आयोग को 13 वीं लोक सभा के गठन के लिए चुनाव कराने के आदेश दे दिए। चुनाव की तैयारियां तभी शुरू हो गई थी। प्रारंभ में ऐसा लगा कि चुनाव जल्दी हो जाएंगे। केंद्र में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी यानि भाजपा की मांग थी कि नए चुनाव उसी बरस मई-जून तक संपन्न करा लिए जाएं।
समाचार माध्यमों और विशेषकर न्यूज एजेंसियों यानि संवाद समितियों ने चुनावी खबरों के लिए अपनी कमर कसनी शुरू कर दी। अनेक भाषाई समाचारपत्रों में विभिन्न लोकसभा निर्वाचन क्षेत्रों के भूगोल और चुनावी इतिहास की खबरें छपनी भी लगी। संवाददाताओं के बीच यह आम धारणा थी कि ज्यादा मेहनत नहीं करनी होगी। क्योंकि 1998 के पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान संकलित समाचार, सर्वेक्षण और आंकड़े बहुत उपयोगी होंगे। बस उनमें थोड़ी और बातें , कुछ खबरें जोड़ कर काम चल जाएगा।
हम तब लखनऊ में पदस्थापित थे और निजी कारणों से कुछ दिनों के लिए हैदराबाद गये थे। हमारी न्यूज़ एजेन्सी, यूनाइटेड न्यूज ऑफ इंडिया यानि यूएनआई के वहां के कार्यालय में एक दिन आंध्र प्रदेश के एक प्रमुख अंग्रेजी समाचारपत्र के प्रतिनिधि कम्प्यूटर में सुरक्षित पिछले चुनावी समाचार और आंकड़ों को मांगने पहुंचे। संयोग से उन्हें वह सब कुछ कम्प्यूटर फ्लापियों में मिल गया जो वह मांगने आये थे। हमें पता चल गया सूचना प्रोधोगिकी ने हमारा काम कितना आसान बना दिया है। हमारे लखनऊ लौटते-लौटते निर्वाचन आयोग ने घोषणा कर दी कि चुनाव उसी बरस सितंबर-अक्तूबर में होंगे। हमने सोचा काफी वक़्त मिल गया है। चुनावी खबरों की और तैयारी में मदद मिलेगी।
हमने उत्तर प्रदेश के सभी लोकसभा निर्वाचन क्षेत्रों के बारे में अंकड़ें और अन्य सूचनाएं एकत्रित कर उन्हें भावी उपयोग के लिए कम्प्यूटर में भरना शुरू कर दिया। हम मूलतः हिंदी में कार्य करते हैं, पर उस बार के लोक सभा चुनाव ने हमें द्विभाषी पत्रकार बना दिया। कारण ये था कि कम्प्यूटर पर हिंदी के बजाय अंग्रेजी में काम करना आसान लगा। तब यूनीकोड नहीं था। टाइपिंग से लेकर सॉफ्टवेयर तक सभी चीजें अंग्रेजी के ज्यादा अनुकूल थी। इंटरनेट पर निर्वाचन आयोग के वेब साइट से लेकर इंडिया टुडे के चुनावी वेबसाइट इंडिया डिसाइड्स तक पर उपलब्ध जानकारी अंग्रेजी में ही थी। इन सबको पढ़ कर हम अपनी खबर हिंदी में लिख खुद ही उनका अंग्रेजी में रूपांतरण भी कर लेते थे इस बीच, विश्व कप वन डे क्रिकेट और फिर कारगिल प्रकरण के कारण चुनाव की खबरें समाचारपत्रों में दब गयीं। हमारी तैयारियां धरी की धरी रह गईं। लेकिन चुनाव कार्यक्रमों की निर्वाचन आयोग द्वारा घोषणा किए जाने के साथ ही चुनाव की खबरों की रेल फिर पटरी पर आ गई। कम्प्यूटर में कुछ माह पहले भरे हमारे चुनावी समाचार काम आने लगे।
बासी कढ़ी में उबाल
एक रोचक किस्सा यूं रहा कि 1996 के लोक सभा चुनाव में लखनऊ सीट से प्रत्याशी और भाजपा नेता अटल बिहारी वाजपेयी के बारे में हमने 1996 में चुनावी प्रोफाइल तैयार किया था। वह 1998 में भी काम आया था। 1999 के लोक सभा चुनाव की घोषणा के बाद जब वह पहली बार लखनऊ आये तो उसी पुराने प्रोफाइल में तनिक परिवर्तन करके और उसमें ऊर्दू की एक खूबसूरत नज़्म का एक अंश जोड़ कर हमारा काम चल गया। इस बार हमने प्रोफाइल का अंग्रेजी तर्जुमा कर दिया। बहरहाल, वो अंश जिसका इस्तेमाल कर भाजपा ने पोस्टर निकाले ये था :
आस्मा में क्या ताब है
कि छुड़ाए लखनऊ हमसे
लखनऊ हम पर फिदा
हम फिदा-ऐ -लखनऊ
हमने प्रोफाइल के अंग्रेजी स्वरूप में ये अंश रोमन में लिख उसका भावानुवाद भी कर दिया था। प्रोफाइल के दिल्ली में अनुदित ऊर्दू स्वरूप में इस अंश को शुद्ध रूप से लिख चार चांद लगा दिए गए। अगली सुबह युनीवार्ता के तत्कालीन संपादक अशोक शर्मा (अब दिवंगत) ने यूएनआई के नई दिल्ली मुख्यालय पहुँच हमें हमारे लखनऊ के घर फोन पर कहा: वाह क्या बात है सीपी। वाह वाह ! पीएम की तुम्हारी बनाई प्रोफाइल देश भर के सभी अखबारों में झमाझम छपी है। वेल डन. वी आर प्राउड ऑफ यू। उन्हें क्या पता था कि हम बासी कढ़ी में उबाल ले आये थे।
समाचारपत्रों के विपरीत संवाद समितियों में ‘ खुल ‘ कर लिखने पर थोड़ी बंदिश होती है.यह शायद जरुरी भी है। अक्सर यह बंदिश खलती है। इसका एक उदाहरण मुझे 1999 के लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश से रिपोर्टिंग करने के दौरान मिला। कारगिल में ‘ शहीद ‘ होने वाले सर्वाधिक जवान उत्तर प्रदेश के थे। दावे किये जा रहे थे कि इस बार के चुनाव में कारगिल का मुद्दा हावी होगा। मैंने चाहा कि प्रदेश के पर्वतीय क्षेत्रों (अभी का उत्तराखंड) के गांवों में जाकर ग्राउंड रिपोर्ट दूँ कि इस मुद्दे का क्या असर पड़ा है। मगर ‘ खुल कर ‘ रिपोर्ट करना संभव नहीं सका। बहरहाल सच यह है कि वहाँ हर गाँव के अगल- बगल का कोई ना कोई जवान कारगिल में मारा गया। मैंने यही देखा था कि वहाँ के लोग कारगिल को चुनावी मुद्दा बनाये जाने के पक्ष में नहीं थे। लेकिन खुल कर लिखने पर बंदिश के कारण अपनी न्यूज़ एजेंसी कम्पनी के जरिये वो सब कुछ रिपोर्ट नहीं कर सका जो देखा और सुना था।
सीपी नाम से चर्चित आजाद सहाफी,यूनाईटेड न्यूज ऑफ इंडिया के मुम्बई ब्यूरो के विशेष संवाददाता पद से दिसंबर 2017 में रिटायर होने के बाद बिहार के अपने गांव में खेतीबाडी करने और स्कूल चलाने के अलावा स्वतंत्र पत्रकारिता और पुस्तक लेखन करते हैं। इन दिनों वह देश के आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक स्थिति को समझने भारत के विभिन्न राज्यों की यात्रा पर है।