महाविद्राेही एवं विद्वान राहुल सांकृत्यायन और अथवा केदारनाथ पांडेय (9 अप्रैल 1893:14 अप्रैल 1963 ) की जयंती पर विषय संस्मरणों का जिक्र जरूरी है। भारतीय इतिहास में ऐसे प्रचण्ड तूफानी व्यक्तित्व बहुत कम हुए हैं। बहुत छाेटी उम्र में घर परिवार से निकल पड़े। फिर महन्त बने। महन्त से आर्यसमाजी बने, फिर बौद्ध और अन्त में कम्युनिस्ट बने।
राहुल सांकृत्यान ने दुनिया काे किताबाें में नहीं बल्कि संघर्ष भरी यात्रा में देखा। लाेगाें से संवाद किया। एक दो नहीं बल्कि 26 भाषायें सीखीं। वे किसानाें की लड़ाई लड़ते हुए अनेक बार जेल गये। वे जाति, मजहब और पुरानी रूढियाें काे विचाराें की ताप से जलाकर भस्म कर लिखते, पढ़तेे, लड़ते रहे और लाेगाें की मानसिक गुलामी पर अन्तिम तक सांस तक चोट करते रहे। पेश हैं राहुल सांकृत्यायन की किताबाें से कुछ उद्धरण:
हमें अपनी मानसिक दासता की बेड़ी की एक-एक कड़ी को बेदर्दी के साथ तोड़कर फ़ेंकने के लिए तैयार रहना चाहिये। बाहरी क्रान्ति से कहीं ज्यादा ज़रूरत मानसिक क्रान्ति की है। हमें आगे-पीछे-दाहिने-बांये दोनों हाथों से नंगी तलवारें नचाते हुए अपनी सभी रुढ़ियों को काटकर आगे बढ़ना होगा।
असल बात तो यह है कि मज़हब तो सिखाता है आपस में बैर रखना। भाई को है सिखाता भाई का खून पीना। हिन्दुस्तानियों की एकता मज़हब के मेल पर नहीं होगी, बल्कि मज़हबों की चिता पर। कौव्वे को धोकर हंस नहीं बनाया जा सकता। कमली धोकर रंग नहीं चढ़ाया जा सकता। मज़हबों की बीमारी स्वाभाविक है। उसकी मौत को छोड़कर इलाज नहीं।
यदि जनबल पर विश्वास है तो हमें निराश होने की आवश्यकता नहीं है। जनता की दुर्दम शक्ति ने, फ़ासिज्म की काली घटाओं में, आशा के विद्युत का संचार किया है। वही अमोघ शक्ति हमारे भविष्य की भी गारण्टी है।
रूढ़ियों को लोग इसलिए मानते हैं, क्योंकि उनके सामने रूढ़ियों को तोड़ने वालों के उदाहरण पर्याप्त मात्रा में नहीं है।
हमारे सामने जो मार्ग है उसका कितना ही भाग बीत चुका है, कुछ हमारे सामने है और बहुत अधिक आगे आने वाला है। बीते हुए से हम सहायता लेते हैं, आत्मविश्वास प्राप्त करते हैं, लेकिन बीते की ओर लौटना कोई प्रगति नहीं, प्रतिगति-पीछे लौटना होगा। हम लौट तो सकते नहीं क्योंकि अतीत को वर्तमान बनाना प्रकृति ने हमारे हाथ में नहीं दे रखा है।
जाति-भेद न केवल लोगों को टुकड़े-टुकड़े में बाँट देता है, बल्कि साथ ही यह सबके मन में ऊँच-नीच का भाव पैदा करता है। हमारे पराभव का सारा इतिहास बतलाता है कि हम इसी जाति-भेद के कारण इस अवस्था तक पहुँचे। ये सारी गन्दगियाँ उन्हीं लोगों की तरफ से फैलाई गयी हैं जो धनी हैं या धनी होना चाहते हैं। सबके पीछे ख्याल है धन बटोरकर रख देने या उसकी रक्षा का। गरीबों और अपनी मेहनत की कमाई खाने वालों को ही सबसे ज्यादा नुकसान है, लेकिन सहस्राब्दियों से जात-पाँत के प्रति जनता के अन्दर जो ख्याल पैदा किये गये हैं, वे उन्हें अपनी वास्तविक स्थिति की ओर नजर दौड़ाने नहीं देते। स्वार्थी नेता खुद इसमें सबसे बड़े बाधक हैं।
धर्मों की जड़ में कुल्हाड़ा लग गया है, और इसलिए अब मजहबों के मेल-मिलाप की बातें भी कभी-कभी सुनने में आती हैं। लेकिन, क्या यह सम्भव है ‘मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना’ -इस सफेद झूठ का क्या ठिकाना। अगर मजहब बैर नहीं सिखलाता तो चोटी-दाढ़ी की लड़ाई में हजार बरस से आजतक हमारा मुल्क पागल क्यों है पुराने इतिहास को छोड़ दीजिये, आज भी हिन्दुस्तान के शहरों और गाँवों में एक मजहब वालों को दूसरे मजहब वालों का खून का प्यासा कौन बना रहा है कौन गाय खाने वालों से गो न खाने वालों को लड़ा रहा है असल बात यह है
– ‘मजहब तो है सिखाता आपस में बैर रखना। भाई को है सिखाता भाई का खून पीना।’
हिन्दुस्तान की एकता मजहबों के मेल पर नहीं होगी, बल्कि मजहबों की चिता पर होगी। कौवे को धोकर हंस नहीं बनाया जा सकता। कमली धोकर रंग नहीं चढ़ाया जा सकता। मजहबों की बीमारी स्वाभाविक है। उसकी मौत को छोड़कर इलाज नहीं है।
धर्म आज भी वैसा ही हज़ारों मूढ़ विश्वासों का पोषक और मनुष्य की मानसिक दासता का समर्थक है जैसा पाँच हज़ार वर्ष पूर्व था। सभी धर्म दया का दावा करते हैं, लेकिन हिन्दुस्तान के इन धार्मिक झगड़ों को देखिये तो मनुष्यता पनाह माँग रही है।
राहुल सांकृत्यायन को महापंडित कहे जाने पर एक तथाकथित कम्युनिस्ट विदुषी को घोर आपत्ति है। वह नहीं समझती महापंडित ब्राह्मणवादी संबोधन नहीं महाविद्वान संबोधन का आम लोगों के बीच एक मेटाफर ( पर्याय) है।
उत्तर प्रदेश की एक कॉलेज शिक्षिका ने कहा-
इतना अनुभव करने के बाद कम्युनिस्ट बने। यह विचारणीय बात है। हमें उनको ये बताना पड़ गया कि वे कम्यूनिस्ट बनने बाद कम्यूनिस्ट ही मरे। वे ही नहीं मथुरा के जिन मास्टर साहब सब्यसाची ने अनेक पत्रिकाएं निकाली और राहुल सांकृत्यायन पर विशेषांक छापा कम्युनिस्ट बन कर ही जिए और मरे। इन तरह के लोगों में नेताजी सुभाषचंद्र बोस के आजाद हिन्द फौज में कैप्टन रहीं डॉक्टर लक्ष्मी सहगल, शहीद भगत सिंह, शायर फैज अहमद फैज आदि असंख्य लोग भी शामिल हैं।
राहुल सांकृत्यायन और वाराणसी-
राहुल सांकृत्यायन का जन्म 09 अप्रैल 1893 को उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जिला के पन्दहा गांव में हुआ था। उन्होंने 20वीं सदी के पूर्वार्द्ध में यात्रा वृतांत और इतिहास दर्शन के क्षेत्र में साहित्यिक योगदान किए। बौद्ध धर्म पर उनका शोध हिन्दी साहित्य में युगान्तरकारी माना जाता है, जिसके लिए उन्होंने तिब्बत से लेकर श्रीलंका तक भ्रमण किया था।
राहुल सांकृत्यायन के पिता का नाम गोवर्धन पाण्डे और माता का नाम कुलवन्ती था। वे कुल पांच भाई और एक बहन थी, परन्तु बहन का देहान्त बाल्यावस्था में ही हो गया था। भाइयों में ज्येष्ठ राहुल जी थे। पितृकुल से मिला हुआ उनका नाम केदारनाथ पाण्डे था। 1930 में बौद्ध धर्म अपनाने पर उनका नाम ‘राहुल’ पड़ा। बौद्ध होने के पूर्व राहुल जी दामोदर स्वामी के नाम से भी पुकारे जाते थे। राहुलनाम के आगे सांस्कृत्यायन लगा क्योंकि उनका पितृकुल सांकृत्य गोत्रीय है।
राहुल बाल्य जीवन ननिहाल पन्दहा गाँव में बीता उनके नाना का नाम था पण्डित रामशरण पाठक था, जो फ़ौज में नौकरी कर चुके थे। नाना से सुनी फ़ौज़ी जीवन की कहानियाँ, शिकार के वृतान्त, देश के विभिन्न प्रदेशों का वर्णन, अजन्ता-एलोरा की किवदन्तियों और नदियों, झरनों के वर्णन आदि ने राहुल जी के आगे के जीवन की भूमिका तैयार कर दी थी। इसके अतिरिक्त दर्जा तीन की उर्दू किताब में पढ़ा हुआ ‘नवाजिन्दा-बाजिन्दा’ का शेर- ”सैर कर दुनिया की गाफिल ज़िन्दगानी फिर कहाँ, ज़िन्दगी गर कुछ रही तो नौजवानी फिर कहाँ” राहुल जी को दूर देश जाने के लिए प्रेरित करने लगा। कुछ काल पश्चात् घर छोड़ने का संयोग यों उपस्थित हुआ कि घी की मटकी सम्भाली नहीं और दो सेर घी ज़मीन पर बह गया। अब नाना की डाँट का भय था, नवाजिन्दा बाजिन्दा का वह शेर और नाना के ही मुख से सुनी कहानियाँ इन सबने मिलकर केदारनाथ पाण्डे (राहुल) को घर से बाहर निकाल दिया।
वे 1990 से 1914 तक वैराग्य से प्रभावित रहे और उन्होंने हिमालय क्षेत्र में यायावर जीवन जिया। वाराणसी में संस्कृत का अध्ययन किया। परसा महन्त का सहचर्य मिला, आगरा में पढ़ाई की, लाहौर में मिशनरी कार्य किया, इसके बाद पुन: ‘घुमक्कड़ी का भूत’ हावी रहा। कुर्ग में भी चार मास तक रहे। राजनीति में प्रवेश (1921-27) राहुल सांकृत्यायन ने छपरा के लिए प्रस्थान किया, बाढ़ पीड़ितों की सेवा की, स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लिया जिसके लिए जेल की सज़ा मिली, बक्सर जेल में 6 माह रहे, ज़िला कांग्रेस के मंत्री रहे, इसके बाद नेपाल में डेढ़ मास तक रहे, हज़ारी बाग़ जेल में रहे। राजनीतिक शिथिलता आने पर पुन: हिमालय की ओर गये, कौंसिल का चुनाव भी लड़ा।
राहुल सांकृत्यायन ने लंका में 19 मास प्रवास किया, नेपाल में अज्ञातवास किया, तिब्बत में सवा बरस तक रहे, लंका में दूसरी बार गये, इसके बाद सत्याग्रह के लिए भारत में लौटकर आये। कुछ समय बाद लंका के लिए तीसरी बार प्रस्थान किया। यात्राएँ (1932-33) राहुल सांकृत्यायन ने इंग्लैण्ड और यूरोप की यात्रा की। दो बार लद्दाख यात्रा, दो बार तिब्बत यात्रा, जापान, कोरिया, मंचूरिया, सोवियत भूमि (1935), ईरान में पहली बार, तिब्बत में तीसरी बार 1936 में सोवियत भूमि में दूसरी बार 1937 में तिब्बत की चौथी बार 1938 में यात्रा की।
किसान मज़दूरों के आन्दोलन में 1938-44 तक भाग लिया, किसान संघर्ष में 1936 में भाग लिया और सत्याग्रह भूख हड़ताल किया। सज़ा, जेल और एक नये जीवन का प्रारम्भ राहुल सांकृत्यायन कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य बने। जेल में 29 मास (1940-42) रहे। इसके बाद सोवियत रूस के लिए पुन: प्रस्थान किया। रूस से लौटने के बाद राहुल जी भारत में रहे और कुछ समय के पश्चात् चीन चले गये, फिर लंका चले गये। महान पर्यटक राहुल जी की प्रारम्भिक यात्राओं ने उनके चिंतन को दो दिशाएँ दीं। एक तो प्राचीन एवं अर्वाचीन विषयों का अध्ययन तथा दूसरे देश-देशान्तरों की अधिक से अधिक प्रत्यक्ष जानकारी प्राप्त करना। इन दो प्रवृत्तियों से अभिभूत होकर राहुल जी महान पर्यटक और महान अध्येता बने। आपकी प्रमुख रचनाएं घुमक्कड़ शास्त्र, ‘सतमी के बच्चे’, ‘जीने के लिए’, ‘सिंह सेनापति’, ‘वोल्गा से गंगा’ आदि रही।
* सीपी नाम से चर्चित पत्रकार,यूनाईटेड न्यूज ऑफ इंडिया के मुम्बई ब्यूरो के विशेष संवाददाता पद से दिसंबर 2017 में रिटायर होने के बाद बिहार के अपने गांव में खेतीबाडी करने और स्कूल चलाने के अलावा स्वतंत्र पत्रकारिता करते हैं.
भारत की आज़ादी, चुनाव, अर्थनीति, लोकजीवन
के किस्से, यूएनआई के मजदूर आंदोलन आदि पर सीपी की कई पुस्तकें.वह क्रांतिकारी कामरेड शिव वर्मा मीडिया पुरस्कार और शहीद गणेश शंकर विद्यार्थी सम्मान की संस्थापक पीपुल्स मिशन ट्रस्ट के अवैतनिक प्रबंध निदेशक हैं।इसकी कोरोना महामारी पर अंग्रेजी –हिन्दी में 5 और न्यू इंडिया में इतिहास पर 2 किताबों का सेट प्रकाशनाधीन है.सीपी, पीपुल्स मीडिया के भी महासचिव है जिसकी मानवाधिकारों पर किलिंग फील्ड्स ऑफ उत्तर प्रदेश शीर्षक से एक किताब छप चुकी है और उसका स्थापित शहीद शंकर गुहा नियोगी पुरस्कार है।