14 सितम्बर ! यह कैलेंडर की एक तारीख है जो हर साल आती है इस साल भी आई है , कोई नई बात नहीं है और न ही इस तारीख को लेकर हैरान जैसा ही कुछ है। उत्तर भारत के हिंदी भाषी और केंद्र तथा राज्य सरकारों के कमोबेश सभी हिंदी भाषी और हिंदी यानी राजभाषा से प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से जुड़े हुए सरकारी कर्मचारियों के लिए 14 सितम्बर के इस दिन का विशेष महत्त्व भी होता है। इस श्रेणी के सरकारी कर्मचारियों के लिए यह दिन इसलिए भी महान और महत्वपूर्ण होता है क्योंकि इस दिन से हर साल एक पखवाड़े की शुरुआत होती है , जिसे राजभाषा पखवाड़ा कहा जाता है जो 14 सितम्बर से शुरू होकर 28 सितम्बर चलता है।
अमूमन हर साल इस पखवाड़े का आयोजन पितृपक्ष से पहले या बाद में किया जाता है लेकिन इस बार संयोग कुछ ऐसे बने हैं,
कि यह आयोजन पितृपक्ष के सोलह दिन और उससे पहले मनाये जाने वाले 10 दिनी गणेश उत्सव के बीच में हो रहा है। गौरतलब है कि हर साल भाद्रपद यानी भादो के महीने के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी से चतुर्दशी तक पूरे दस दिन गणेश उत्सव का आयोजन किया जाता है। इस बार गणेश चतुर्थी 10 सितंबर को मनाई गई थी और 19 सितम्बर को गणेश चतुर्दशी के साथ इस 10 दिनी समारोह का समापन भी हो जाएगा। हर हाल गणेश उत्सव का समापन होने के बाद ही सोलह दिन के पितृपक्ष की शुरुआत होती है। इस लिहाज से 20 सितंबर से पितृपक्ष का सिलसिला शुरू होगा जो आश्विन माह के नौ दिनी नवरात्र पर्व शुरू होने से एक दिन पहले पितृ विसर्जन अमावस्या के दिन समाप्त होगा। इसी बीच 14 से 28 सितंबर के बीच राजभाषा यानी हिंदी पखवाड़े का आयोजन भी होना है। एक तरह से गणेश उत्सव और पितृपक्ष के मध्य में आयोजित होने वाले इस आयोजन को भाग्यशाली भी माना जा सकता है क्योंकि एक तरफ तो इसे भारतीय धार्मिक और आध्यात्मिक परंपरा का पालन करने के सबसे पहले पूजे जाने वाले आराध्य देव गणेश का आशीर्वाद मिलेगा तो दूसरी तरफ भाषा के पितरों का आशीर्वाद भी इस आयोजन को अवश्य मिलेगा। मान्यता के मुताबिक़ भारतीय परंपरा में हर साल पितृपक्ष के दौरान पितर स्वर्ग से पृथ्वी पर उतर कर आपने बच्चों को आशीर्वाद देते हैं। पितृपक्ष के दौरान उनके बच्चे उनका आह्वान करते हैं।
इस सन्दर्भ में सबसे पहले गणेश महोत्सव के सामाजिक, धार्मिक , आध्यात्मिक , राजनीतिक , सांस्कृतिक और व्यावहारिक पहलुओं को समझना नितांत जरूरी होगा यूं गणेश महोत्सव एक हिन्दू धार्मिक आयोजन है जिसका आयोजन हर साल भादों के महीने के शुक्ल पक्ष में चतुर्थी से लेकर चतुर्दशी तक किया जाता है। गणेश को भारतीय परंपरा में बहुत महत्व्दिया गया है और कोई भी शुभ काम करने से पहले गणेश की पूजा की जाती है। मान्यता है कि गणेश पूजा करने से कोई भी काम निर्विघ्न संपन्न हो जाता है। गणेश को यह मान क्यों दिया गया इसके बारे में पौराणिक आख्यानों में यह कहानी उपलब्ध है जिसके मुताबिक़ एक बार देवताओं की की एक दौड़ प्रतिस्पर्धा आयोजित कराई गई थी जिसमें देवताओं को को ब्रह्माण्ड का एक चक्कर लगाना था। सभी देवता इस प्रतियोगिता में शामिल हुए और जिसके पास जो भी साधन थे उसमें सवारी करते हुए अपनी तरफ से दौड़ में फर्स्ट आने की कोशिश भी सभी ने की थी। प्रतियोगिता समाप्त हुई और इनाम प्रथम आने का इनाम गणेश जी को मिला इस वजह से की उन्होंने ब्रह्माण्ड का चक्कर लगाने के बजाय अपने सीमित साधन( चूहे की सवारी ) के साथ अपने माता – पिता( शिव – पार्वती ) के ही चाहों तरफ एक परिक्रमा कर ली।
उनकी मान्यता में उनके माता – पिता ही उनके आराध्य हैं और उनके लिए ब्रह्माण्ड भी वही हैं। माता – पिता को यह सम्मान देने के कारण ही गणेश जी को देवताओं में सर्वश्रेष्ठ माना गया आआऔर यह तय किया गया की कोई भी शुभ कार्य करने से पहले गणेश की पूजा की जानी चाहिए। इस तरह शब्द , “गणेश पूजा ” कोई भी शुभ काम सफलता पूर्वक शुरू कराने का पर्याय ही बन गया। इस पृष्ठभूमि में इस साल हिंदी पखवाड़े के संयोग को एक सुखद संयोग ही कहा जा सकता है क्योंकि जिस दिन 14 सितम्बर को इस पखवाड़े की शुरुआत हुई है उससे चार दिन पहले गणेश पूजा हो चुकने के साथ ही एक दिन , दो दिन और तीन दिन के गणेश भी पूजे जा चुके होंगे इन सभी पूजाओं का आशीर्वाद भी हिंदी पखवाड़े को पहले ही मिल चूका होगा। गणेश पूजा के बाद पितृपक्ष के दौरान पितरों का आशीर्वाद मिलने की संभावना से भी किसी को इनकार क्यों होगा ?
उन्नीसवीं सदी के अंतिम दशक (1894) में महाराष्ट्र में लोकमान्य तिलक ने गणेश उत्सव को देश के स्वाधीनता संग्राम से भी जोड़ दिया था। तिलक ने गणेश उत्सव को छुआछूत मिटाने, समाज को संगठित करने, आम आदमी का ज्ञान वर्धन करने और एक आन्दोलन के रूप में अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त होने के हथियार के रूप में इस्तेमाल करने का साधन भी बनाया और तिलक ने उस समय कांग्रेस के उदारवादी नेताओं की नाराजगी को दर किनार करते हुए इसे एक गौरवशाली पर्व के रूप में घरों की चार दीवारी से बाहर निकाल कर सार्वजनिक रूप से आयोजन कराने की परंपरा शुरू कर दी थी।
1890 के दौर में लोकमान्य तिलक मुंबई में चौपाटी तट पर बैठ कर कई साल तक यह चिंतन करते रहे कि अंगरेजी शासन के खिलाफ लोगों को एकजुट करने के लिए क्या किया जा सकता है। चिंतन के इसी दौर में लोकमान्य तिलक ने दस दिन तक चलने वाले गणेश महोत्सव को घर की चार दीवारी से बाहर निकाल कर एक सार्वजनिक उत्सव के रूप में आयोजित करने का मन बनाया।
कांग्रेस के उदारवादी धड़े के व्योमेश बनर्जी , सुरेन्द्रनाथ बनर्जी , दादाभाई नौरोजी ,फिरोजशाह मेहता , गोपाल कृष्ण गोखले ,मदन मोहन मालवीय , मोतीलाल नेहरु ,बदरुद्दीन तैय्यब जी और जी. सुब्रह्मण्यम अय्यर सरीखे कांग्रेस नेता इसलिए गनेस्स्स्श उत्सव को सार्वजनिक समारोह के रूप में मनाने का विरोध कर रहे थे क्योंकि इन नेताओं को लगता था कि इससे फिरकापरस्त लोगों को साम्प्रदायिक दंगे भड़कने का मौका मिल सकता है। यह आशंका इसलिए भी बलवती हो रही थी क्योंकि इसी दौर में मुम्बई और पुणे में इस तरह के फसाद पहले भी हो चुके थे। इस डर के बावजूद लोकमान्य तिलक ने किसी की नहीं सूनी और गणेश उत्सव को सार्वजनिक करने का अपना एजेंडा पूरी शिद्दत के साथ लागू किया। इसका असर यह हुआ की गणेश उस्तव के दौरान देश के युवक अंगरेजी शासन के खिलाफ घर – घर जाकर प्रचार करते थे और आजादी के आन्दोलन की हवा बनने लगी थी तिलक के इस दृष्थीटिकोण का राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस के लाला लाजपत राय, विपिन चन्द्र पाल , अरविन्द घोष , राज कुमार बोस ,और अश्विनी कुमार दत्त सरीखे नेताओं ने खुल कर समर्थन किया था। उन्नीसवीं शताब्दी में शुरू हुई यह अलख बीसवीं सदी में रंग लाई और 15 अगस्त 1947 को हमारा देश आजाद भी हो गया। महाराष्ट्र की गणेश पूजा अब राष्ट्रीय पर्व का रूप ले चुकी है . .