#इंडिया_दैट_इज_भारत के आठवें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी समेत अनेक गणमान्य लोगों की मौजूदगी में 22 जनवरी 2024 को राम मंदिर का ‘ उदघाटन ‘ होगा। लेकिन वह उस जगह पर नहीं है जहां कभी बाबरी मस्जिद थी और उसके गर्भगृह में ‘ रामलला ‘ विराजमान थे। खबर है राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ( आरएसएस ) के इशारे पर इस समारोह में सुप्रीम कोर्ट ऑफ इंडिया के 11 नवंबर 1959 को पैदा और 9 नवंबर 2022 से चीफ जस्टिस धनंजय चंद्रचूड आमंत्रित किया है जिन्होंने सुप्रीम कोर्ट में न्यायाशीश रहे अपने पिता यशवंत चंद्रचूड के निर्णय को पलट दिया था।
सुप्रीम कोर्ट के 50वें चीफ जस्टिस धनंजय चंद्रचूड इस पद से नवंबर 2024 में रिटायर होने वाले है। लेकिन मोदी जी की चहेती फिल्म हिरोईनी कंगना रनौत को न्योता नहीं गया है। मराठी मूल के जस्टिस चंद्रचूड अयोध्या जाएंगे तो पुष्टि हो जाएगी कि ‘ संघ परिवार ‘ ने उन्हें भी अपने पाले में करने की कोशिश की है। वह अयोध्या जाते या नहीं जाते हैं उनको राम जन्मभूमी-बाबरी मस्जिद विवाद मामले में सुप्रीम कोर्ट के निर्णय की कानूनी खामियां दूर करने के लिए दाखिल ‘ क्यूरेटिव पिटीशन ‘ की अरसे से लंबित सुनवाई के वास्ते नई संविधान पीठ बनाने का ऑर्डर देना चाहिए। जिस संविधान पीठ के निर्णय में खामियाँ बताई गई है उसके सभी न्यायाधीश रिटायर हो चुके हैं। हमारी आज ही सुबह महेंद्र मिश्र के हिन्दी न्यूज पोर्टल जनचौक के लीगल रिपोर्टर जेपी सिंह से फोन पर बातचीत हुई जो अभी इलाहाबाद में हैं। इलाहाबाद का नाम उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने प्रयागराज कर दिया गया है। पर वह इलाहाबाद हाई कोर्ट का नाम तत्काल नहीं बदल सकती है। क्रांतिकारी कामरेड शिव वर्मा मीडिया अवार्ड से सम्मानित सिंह साहब का कहना था क्यूरेटिव पिटीशन पेंडिंग है। उसकी सुनवाई के लिए जस्टिस चंद्रचूड को सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ का नए सिरे से गठन करना होगा।
फ्लैशबैक छह दिसंबर 1992-
बात छह दिसंबर 1992 को अयोध्या में अदालतों की निगाह में ‘ विवादित ‘ बाबरी मस्जिद के तीन गुंबदों में से आखरी को भी केन्द्रीय अर्धसैनिक बलों की कंपनियों के हजारों और उत्तर प्रदेश पुलिस के सैंकड़ों हथियार बंद जवानों की मूक उपस्थिति में दोपहर बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ यानि आरएसएस के विश्व हिन्दु परिषद यानि वीएचपी और बजरंग दल आदि के जुटाए उन्मादी भीड़ द्वारा करीब तीन बजे ढहा देने के तत्काल बाद और अगले ही दिन सात दिसंबर 1992 की सुबह की है। हम वहां छह दिसंबर को लगभग दिन भर मौजूद थे ही उसके बाद भोर की सूर्य किरणों के ध्वस्त बाबरी मस्जिद के मलबे पर पड़ने के वक्त भी मौजूद थे। सबसे पहले एक कामगार दम्पत्ति अपने बच्चे का शव लेकर वहां पहुंचे थे। यह अशुभ लक्षण था। हमारे साथ ब्रिटिश ब्रॉडकास्टिंग कॉर्पोरेशन यानि बीबीसी के लिए लंदन में काम से वापस भारत लौट हमारी अंग्रेजी , हिन्दी और उर्दू की त्रिभाषी समाचार एजेंसी, यूनाइटेड न्यूज ऑफ इंडिया यानि यूएनआई में अनुबंध पर नौकरी करने वाले सीनियर रिपोर्टर मधुकर उपाध्याय भी थे जो अयोध्या के ही बाशिंदे है। मधुकर जी ने अयोध्या से हमारे तब के अंशकालिक संवाददाता नरेंद्र श्रीवास्तव की मोटर साइकिल से फैजाबाद में यूएनआई के ऑफिस पहुँचने के बाद हमसे पूछा : सीपी , विवादित ढांचा तो अब रहा नहीं। ऐसे में हमलोग उसे क्या बोलें और लिखें।
भारतीय जनता पार्टी यानि भाजपा के नेता लालकृष्ण आडवाणी की हमारे मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के गृह राज्य गुजरात में सोमनाथ मंदिर से डीसीएम टोयोटा मोटर वाहन को ‘ रथ ‘ का रूप दे अयोध्या तक के लिए ‘ रथयात्रा ‘ निकाल चुके थे। उनकी बिहार से आगे यूपी में रथयात्रा की खबरें देने के लिए हमारे हेड ऑफिस ने वाराणसी के यूनीवार्ता के सुफल कुमार को जिम्मेवारी दी थी। वह तब तो पक्के कारसेवक थे और इसलिए यूएनआई के फैजाबाद ऑफिस से गलत फ़्लैश देने की कोशिश की : अयोध्या में युद्ध का माहौल , सुरक्षा बालों की संचार प्रणाली ठप्प । लेकिन हमने मधुकर और नरेंद्र के साथ मोटर साइकिल से यूएनआई फैजाबाद ऑफिस पहुँच कर टेलीप्रिंटर ऑपरेटर राजकुमार को वे फ़्लैश रोक देने कहा। सबको मालूम था कि हेड ऑफिस ने अयोध्या मामलों की खबरों को देने या नहीं देने पर अंतिम निर्णय लेने की जिम्मेवारी हमको सौंपी थी।
मधुकर जी के सवाल पर सुफल कुमार बोले : सोचना क्या है। हम लोग इसे ‘ लघु मंदिर ‘ लिखें। हमने उनको लताड़ कर कहा : इसमें प्राण प्रतिस्थापना नहीं हुई है। आप बनारस के है पर हम मिथिला के है और इसलिए जानते हैं कि बिना प्राण प्रातिस्थापन कोई मंदिर नहीं होता। मधुकर जी ने सुफल कुमार को शांत कर कहा जो सीपी बोले वही सही है।
हम तीनों अयोध्या में उन्मादी ‘ कारसेवकों ‘ द्वारा पत्रकारों और प्रेस फोटोग्राफरों पर किये हमले में बाल बाल बचे थे। अयोध्या से फैजाबाद लोटते वक्त कारसेवकों ने हम पर ईंट पत्थर फेंके थे जिनसे हम खुद चोटिल हो गए थे। वे ठंढ के दिन थे और हमने मोटा जैकेट पहन रखा था। हमने इंदौर के पास मऊ में ‘ वार कोरेसपोनडेंट कोर्स ‘ की फौजी ट्रेनिंग ले रखी है जिसके पहले बैच में दिवंगत पत्रकार रूसी करंजिया थे। इसलिए उन दोनों को अपने हाथों से जकड़ कर बचाने में कामयाब रहे थे। हमने फैजाबाद के रास्ते में ही एक डॉक्टर की खुली क्लिनिक से एंटी टिटनस का इंजेक्शन ले लिया था। इससे पहले मानस भवन में बच इसलिए गए थे कि वीएचपी की कारसेवा समिति के प्रभारी रमाशंकर अग्निहोत्री और लोकेश के कहने पर हम खुद ध्वस्त बाबरी मस्जिद के ठीक सामने के मानस भवन में उपरले तल पर कमरा नंबर 203 में उनके कार्यालय आ गए थे। ये वही रमाशंकर अग्निहोत्री थे जिनकी मुंबई के जसलोक अस्पताल में डायलिसिस के लिए भर्ती लोकनायक जयप्रकाश नारायण के गुजर जाने की हिंदुस्तान समाचार न्यूज एजेंसी के हवाले से आल इंडिया रेडियो से प्रसारित खबर को आधिकारिक मान संसद में शोक प्रस्ताव पारित कर उसकी कार्यवाही स्थगित कर दी गई थी।
बहरहाल उन दोनों ने कहा था : झा साहब हमारे कमरे में आ जाइए वरना पिट जाइएगा। और हां , इस कमरे से आप किसी भी तरह से कोई खबर नहीं भेज सकते। आपके बैग में कोई कैमरा हो तो उस भी इस्तेमाल नहीं कर सकते हैं। हमको उनकी बात माननी ही थी। हम देख चुके थे कि जेएनयू में पढे और तब इंदौर के हिन्दी अखबार के लिए नई दिल्ली से रामशरण जोशी जी के मातहत रिपोर्टिंग करने वाले सुरेश बाफ़ना कारसेवकों से पिट चुके थे। लेकिन हम डायबिटिक होने के कारण लघुशंका का बहाना कर उस कमरे से जुड़े टॉयलेट में चले गए। हमने टॉयलेट में सिगरेट के रैपर पर कुछेक फ़्लैश लिख चुपके से नरेंद्र को यह कह दे दिए तुम कहीं से किसी टेलीफोन से फैजाबाद या लखनऊ के बजाय सीधा दिल्ली फोन पर वी गणपति साहब को ये फ़्लैश बोल देना।
हमको मालूम था कि यूएनआई लखनऊ में हमारी हिंदी सेवा , यूनीवार्ता के तथाकथित प्रभारी सुरेन्द्र दुबे ‘ छुपे ‘ कारसेवक हैं। उनके 1991 में यूपी में मुलायम सिंह यादव के शासनकाल में कारसेवा शुरू होने की ‘ इंटेलीजेन्स एजेंसी के सूत्रों ‘ के हवाले से दिए गलत न्यूज फ़्लैश के कारण झारखंड में हजारीबाग के पास रामगढ़ से लेकर केरल की राजधानी तिरुवनतपुरम समेत कई जगहों पर दंगे भड़क गए थे। कारसेवा का अर्थ तब यही था कि बाबरी मस्जिद ध्वस्त कर मंदिर निर्माण शुरू हो गया है। केरल के अग्रणी मलयालम अखबार ‘ मातृभूमि ‘ ने यूएनआई की इस भारी चूक पर संपादकीय लिखे तो हमारी न्यूज एजेंसी ने आंतरिक जांच में दुबे जी को प्रथम द्रष्टया दोषी पाकर उन्हें कभी भी अयोध्या नहीं भेजा। यूएनआई मालिकों की बोर्ड नहीं चाहती थी कि गलत खबरों से मातृभूमि और उसके ग्राहक दूसरे अखबार बिदक जाएं और इसलिए इस बार ग्राउंड रिपोर्टिंग के लिए हमको अयोध्या भेजा गया। गणपति साहब तब यूएनआई के डीपुटी चीफ एडिटर और डीपुटी जनरल मैनेजर थे।
हमने दिवंगत इतिहासकार प्रोफेसर सुशील श्रीवास्तव की अंग्रेजी में लिखी बहुचर्चित ‘ द डिसपयूटेड मॉस्क ‘ ही नहीं आयोध्या में राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद पर तकरीबन सभी किताबें पढ़ी हैं और हिन्दी, अंग्रेजी , नागरी लिपि की हिन्दुस्तानी उर्दू में कई बरसों में ग्राउंड रिपोर्टिंग भी की है। हम केंद्र में कांग्रेस के दिवंगत प्रधानमंत्री पी वी नरसिंह राव की सरकार के शासन में अयोध्या में 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद विध्वंस के ‘ आपराधिक ‘ षड्यन्त्र मामले में अभियोजन पक्ष केन्द्रीय जांच ब्यूरो यानि सीबीआई के चश्मदीद गवाह रहे। हम उस वाकये में पत्रकारों और प्रेस फोटोग्राफरों पर हमलों की जांच के लिए लखनऊ के गोमती होटल में प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया की तरफ से सुप्रीम कोर्ट के रिटायर जस्टिस आर एस सरकारिया द्वारा की सुनवाई में दस्तावेजी साक्ष्यों के साथ पेश हुए थे। हम अयोध्या कई बार गए पर इस विवाद पर किताब नहीं लिखी। हां , हमने उत्तर प्रदेश की पूर्व मुखयमंत्री मायावती के मीडिया सलाहकार और अंग्रेजी , हिंदी, उर्दू की हिंदुस्तान की पहली त्रिभाषी समाचार एजेंसी , यूनाइटेड न्यूज ऑफ इंडिया ( यूएनआई ) के लखनऊ ब्यूरो में साथी रहे मोहम्मर जमील अख्तर की 1993 में छपी किताब ‘ एक थी मस्जिद ‘ के लिए लखनऊ विश्वविद्यालय की पूर्व वायसचांसलर रूपरेखा वर्मा जी और लखनऊ में ही अलीगंज के ‘ गिरी इंस्टीट्यूट ऑफ डेवलपिंग स्टडीज के दिवंगत निदेशक जीपी मिश्रा के साथ प्रस्तावना लिख चुके हैं।
अयोध्या मामलों के धार्मिक , राजनीतिक , आर्थिक , सामाजिक , सांस्कृतिक और न्यायिक से लेकर किस्म किस्म के ‘ मैदानी ‘ , गैर-मैदानी , अदालती , गैर-अदालती , संसदीय , गैर-संसदीय बातों पर खुद कोई किताब लिखने का हमें यूएनआई में मुंबई की पोस्टिंग में ट्रेड यूनियन कामों की वजह से निलंबन के चलते वहां के लेबर , इंडस्ट्रियल और बॉम्बे हाई कोर्ट के बरसों चक्कर लगाने और कुछ स्वास्थ्य कारणों से समय ही नहीं मिला। पर हम हमेशा कहते रहे हैं कि अयोध्या मामले पर जमील की किताब पहली जरूर थी लेकिन आखरी साबित हो जरूरी नहीं है।
नई दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी ( जेएनयू ) में हमारी पढ़ाई के दौरान ‘ सेंटर फॉर रसियन स्टडीज ‘ ( सीआरएस ) के छात्र रहे नीलांजन मुखोपाध्याय की अंग्रेजी में हालिया किताब ‘ द डेमोलिशन द वरडिक्ट एंड द टेंपल द डेफ़िनिटिव बुक ओन द राम मंदिर प्रोजेक्ट ‘ के बारे में उनके फेसबुक पोस्ट से हमारा माथा ठनक गया। क्योंकि वह मोदी जी की तारीफ में अंग्रेजी में ही किताब लिख चुके हैं और शायद कभी अयोध्या नहीं गए। हमने उनसे पूछा भी कि आप इसे डेफ़िनिटिव बुक क्यों और कैसे कह रहे हैं। पर उनका कोई जवाब नहीं मिला।
त्रेता और मोदी युगीन इतिहास-
नीलांजन की किताब हमको अपने बिहारी गांव बसनहीं में पढ़ने के लिए इन पंक्तियों के लिखे जाने तक नहीं मिली है। इसलिए उसमें क्या लिखा है और क्या नहीं लिखा है उस पर बात करने का हमको कोई हक नहीं है। पर मौजूदा वक्त का तकाजा है कि इस ‘ प्रोजेक्ट ‘ पर कोई बात लिखने से पहले अयोध्या का इतिहास जान लें। पौराणिक त्रेता युग के राजा दशरथ के बहुत बाद अवध के पहले नवाब सआदत अली खान ने 1730 में इसे अपनी राजधानी बना अयोध्या का नाम बदलकर फ़ैज़ाबाद कर दिया। अवध के तीसरे नवाब शुजाउद्दौला वहां रहते थे। उन्होंने सरयू नदी के तट पर 1764 में दुर्ग का निर्माण करवाया पर अगले ही बरस 1775 में अवध की राजधानी लखनऊ ले गए। अयोध्या 6 नवंबर 2018 तक फैजाबाद जिला में था। उत्तर प्रदेश के मौजूदा मुख्यमंत्री और उस नाथ संप्रदाय संप्रसाय के योगी आदित्यनाथ की सरकार ने फैजाबाद जिला का मुस्लिम नाम बदल कर अयोध्या जिला कर दिया जो प्रतिमा पूजन के विरुद्ध है। इतिहास को नकारने का यही ‘ मोदी – योगी प्रोजेक्ट ‘ है।
भारत के 1857 के पहले स्वतंत्रता संग्राम में अयोध्या के राजा , जमींदारों और अखाड़ों ने अंग्रेजों की मदद की थी। यह बात दिवंगत प्रोफेसर सुशील श्रीवास्तव ने 1990 में छपी अपनी किताब की प्रस्तावना में लिखी है। उनको पीएचडी शोध में ब्रिटिश राज के संयुक्त प्रांत में अवध प्रोविन्स के भूमि , राजस्व रिकार्ड का अध्ययन करने के दौरान अयोध्या पर किताब लिखने का विचार आया था। उनका कहना था : शोध के दौरान मिले नए तथ्यों ने बाबरी मस्जिद-रामजन्मभूमि विवाद की छानबीन करने के लिए प्रोत्साहित किया। शोध के दौरान 1986 में हम महसूस करने लगे कि उत्तर भारत में सांप्रदायिक माहौल बिगड़ चुका है। इसका सीधा संबंध मेरे पेशे से था। विश्व हिंदू परिषद ( वीएचपी ) ने ध्वस्त हिंदू मंदिर के स्थलों के आस पास की मस्जिदों पर कब्जा करने की 1978 में घोषणा कर दी। मैं महसूस करने लगा कि आधारहीन मिथक किस प्रकार सांप्रदायिक घृणा को बढ़ा रहे हैं। तब मैंने तय किया कि मैं , इतिहास में विकृतियों की सच्चाई को साधारण जन तक पहुंचाने का काम करुंगा। अवध के नवाब के वक्त धार्मिक और नस्ली भेद होने के बावजूद समाज में धार्मिक भेद कमजोर हो गए थे , सांस्कृतिक रिवाजों में आर्थिक प्रेरणाएं अत्यंत महत्तवपूर्ण थीं और सत्ताधारी वर्ग सभी धार्मिक त्योहार मनाया करता था। शिया-सुन्नी और वैष्णव-शैव के बीच अंतरविरोध था। लेकिन हिंदू और मुसलमानों के बीच धार्मिक टकराव नहीं था। इस किताब को लिखने के बाद प्रो. श्रीवास्तव की जिंदगी परेशानियों से घिर गई। उन्हें जान से मारने की धमकियां दी गईं। इलाहाबाद हाईकोर्ट के समक्ष बाबरी मस्जिद मामले की सुनवाई के दौरान वह विशेषज्ञ और गवाह रहे थे। उन्होंने लिखा था: बहुत हुआ, अब मैं खुद इस किताब से पीछा छुड़ाना चाहता हूं।
इस मस्जिद को 1853 से पहले ‘ जामी मस्जिद ‘ या ‘ सीता-रसोई मस्जिद ‘ कहा जाता था। उसी बरस हिंदू और मुस्लिमों के बीच पहली सांप्रदायिक हिंसा के बाद इसका नाम ‘ बाबरी मस्जिद ‘ हो गया। वह हिंसा उत्तर भारत में पैर पसार रही ‘ ईस्ट इंडिया कंपनी ‘ की औपनिवेशिक नीति का नतीजा थी। बरेली में अंग्रेजों के खिलाफ पठानों के की अगुवाई में स्थानीय लोगों के 1816 के विद्रोह से गवर्नर जनरल फ्रंसिस रोडन-हेस्टिंग्स को समझ में आ गया था कि मुसलमानों के धार्मिक भावनाओं के उभरने पर उतर भारत में ब्रिटिश सत्ता को खतरा हो सकता है। ब्रिटिश विरोधी गठबंधन को बनने से रोकने के लिए , अवध के शिया नवाबों और सुन्नी मुगल शासकों के बीच दरार डाल , हेस्टिंग्स ने 1819 में अवध को मुगल साम्राज्य से अलग हो जाने कहा। उसी बरस एक संधि के बाद अयोध्या में ब्रिटिश रेजीडेंट की तैनाती कर दी गई। इसी पृष्ठभूमि में 1853-55 के दौर में अयोध्या में हिंदू वैरागियों ने बतौर रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद पर दावा करना शुरू कर दिया। मुसलमान बतौर मस्जिद हनुमानगढ़ी पर दावा करने लगे। इन दावों के बीच पहली बार खूनी टकराव हुआ और मस्जिद के सामने सरकारी जमीन पर राम चबूतरा के तौर पर हिंदू वैरागी कब्जा करने में कामयाब रहे। अंग्रेजों की दिलचस्पी हिंसा को रोकने में नहीं थी और उसकी सेना ने हिन्दु मुस्लिम फूट डाल कर अवध पर कब्जा कर लिया। वैरागियों के पास 1900 में 47 जागीरें थीं। निर्वाणी अखाड़ा अयोध्या का सबसे धनी अखाड़ा बन गया। अंग्रेजों ने 1859 में मस्जिद और राम चबूतरा के बीच हदबंदी कर वैरागियों द्वारा कब्जाई रामचबूतरा की जमीन सरकारी मान्यता दे दी और महंतों को बाबरी मस्जिद के पास अपनी गतिविधियां चालू रखने की छूट दे दी। परिणामस्वरूप हिंदू कट्टरता फैली। स्थानीय तौर पर यह कट्टरतावाद देखने को तब मिला जब ब्रिटिश शासन के दौरान ही 1934 में बाबरी मस्जिद के गुंबद पूरी तरह नष्ट करने दिया गया. हालांकि बाद में इसी शासन के दौरान हिंदूओं से जुर्माना वसूल कर मस्जिद के गुंबद को बनवाया भी गया। प्रो. श्रीवास्तव ने लिखा है कि बौद्ध ग्रंथों में साकेत अयोध्या ही है। जैन ग्रंथों में जिस नगर का नाम विनिया , विशाखा या विनिता है वह भी अयोध्या ही है। स्वयं महावीर ने अयोध्या की यात्रा की थी और उनके चार तीर्थंकरों का जन्म भी इसी अयोध्या में हुआ था। अयोध्या को विभिन्न कालों में साकेत , विनिता , विशाखा, कोशल या महाकोशल , इक्ष्वाकुभूमि , रामपुरी और रामजन्मभूमि नामों से जाना जाता रहा है। इस नगर का पहला पुरातात्विक सर्वेक्षण ईसा मसीह के बाद 1862-63 में ए. कनिंगम ने किया जिनको बौद्ध इमारतों के खंडहर मिले पर हिंदू मंदिर के अवशेष नहीं मिले। चीनी यात्री फाह्यान ने 410 ई. में नष्ट स्तूप देखा था। इसके दो सदी बाद एक अन्य चीनी यात्री ह्नेत्सांग ने अयोध्या से 1.5 किमी दूर एक स्तूप के बगल में पुराना संघवम भी देखा था। अयोध्या में तुर्क सेनाओं का पहला प्रवेश 1034 में सैयद सालार मसऊद गाजी के साथ हुआ। मुग़ल बादशाह जहांगीर के शासनकाल के दौरान पहला अंग्रेज यात्री विलियम फिंच अयोध्या आया था। लेकिन उहोने अपने संस्मरण में रामजन्मभूमि-मंदिर के बारे में उल्लेख नहीं किया।
प्रो. श्रीवास्तव ने बाबरनामा के हवाले से लिखा कि बाबर 28 मार्च 1528 को अवध के उत्तर में दो नदियों के संगम पर रुका था पर 2 अप्रैल और 28 सितंबर 1528 के बीच उसकी गतिविधियों का वयोरा ज्ञात नहीं है। लेकिन जॉन लेडन, विलियम एर्सकाइन , एचएम एलियट , पैट्रिक क्रैनजी और डब्लयूसी बैनेट जैसे अंग्रेज प्रशासकों ने इस धारणा को हवा दी कि 28 मार्च 1528 को बाबर अयोध्या आया था और स्थानीय फकीरों की सलाह पर उसने राम मंदिर तोड़ा था। प्रो. श्रीवास्तव की अंग्रेजी किताब को हिन्दी में वामपंथी पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस ने 1993 में छापा था। सुप्रीम कोर्ट ऑफ इंडिया ने इस मामले में 9 नवंबर 2019 को जो फैसला सुनाया था वह प्रो. श्रीवास्तव समेत बहुतों को ऐतिहासिक साक्ष्यों के विरुद्ध लगा।
इलाहाबाद उच्च न्यायालय के तीन न्यायाधीशों की पीठ ने 30 सितंबर 2010 को सुनाए फैसले में अयोध्या की 2.77 एकड़ भूमि को तीन भागों में विभाजित कर उसका 1 ⁄3 राम लला के प्रतिनिधि हिन्दू महासभा को 1⁄3 सुन्नी वक्फ बोर्ड और शेष 1 ⁄3 निर्मोही अखाड़ा को देने का फैसला सुनाया था। 9 नवंबर 2019 को सुप्रीम कोर्ट के तब के चीफ जस्टिस रंजन गोगोई की अध्यक्षता की पीठ ने इस मामले में पिछले सभी फैसले निरस्त कर हिंदू मंदिर के निर्माण के लिए भूमि को एक ट्रस्ट को सौंपने और मस्जिद बनाने के लिए सुन्नी वक्फ बोर्ड को वैकल्पिक 5 एकड़ जमीन देने का आदेश दिया। इसके बाद मोदी जी ने सरकार द्वारा अधिग्रहित 67 एकड़ जमीन भी मंदिर निर्माण ट्रस्ट को देने की घोषणा कर दी।
मोदी सरकार के आईएएस अफसर रहे पूर्व कैबिनेट सेक्रेटरी नृपेन्द्र मिश्र इस ट्रस्ट के सर्वेसर्वा हैं जिनकी उस पद पर नियुक्ति ही सारे कानूनों और नियमों को ताक पर रख कर की गई थी। क्योंकि वह तब सरकारी टेलीकॉम रेगुलेटरी ऑफ इंडिया ( ट्राई ) के चेयरमेन थे जिसके पदाधिकारी को कुछ बरसों तक सरकार के और किसी पद पर नियुक्त नहीं किया जा सकता है। मोदी जी ने प्रधानमंत्री बनने पर पहला काम इसी मनाही की काट में एक अध्यादेश पर अपना हस्ताक्षर करने के लिए किया था।
करीब 134 साल पुराने अयोध्या मंदिर-मस्जिद विवाद पर चीफ जस्टिस रंजन गोगोई की अगुआई में जस्टिस शरद बोबोडे , जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ , जस्टिस अशोक भूषण, जस्टिस एस अब्दुल नजीर की पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने 9 नवंबर 2019 को ‘ सर्वसम्मति ‘ से सुनाए 1045 पन्नों के फैसला में सरकार को अयोध्या की 2.77 एकड़ की पूरी विवादित जमीन राम मंदिर निर्माण के एक ट्रस्ट को देने और मस्जिद बनाने के लिए मुस्लिम पक्ष को 5 एकड़ जमीन देने का आदेश दिया। जस्टिस गोगोई ने कहा कि ढहाया गया ढांचा ही भगवान राम का जन्मस्थान है और हिंदुओं की यह आस्था निर्विवादित है। जस्टिस रंजन गोगोई ने कहा : राम जन्मभूमि स्थान न्यायिक व्यक्ति नहीं है जबकि भगवान राम न्यायिक व्यक्ति हो सकते हैं। ढहाया गया ढांचा ही भगवान राम का जन्मस्थान है , हिंदुओं की यह आस्था निर्विवादित है। विवादित 2.77 एकड़ जमीन रामलला विराजमान को दी जाए।
इसका स्वामित्व केंद्र सरकार के रिसीवर के पास रहेगा। 3 महीने के भीतर ट्रस्ट का गठन कर मंदिर निर्माण की योजना बनाई जाए।
अदालत ने फैसला सुनाया कि उत्तर प्रदेश सुन्नी वक्फ बोर्ड विवादित जमीन पर अपना दावा साबित करने में विफल रहा। मस्जिद में इबादत में व्यवधान के बावजूद साक्ष्य यह बताते हैं कि प्रार्थना पूरी तरह से कभी बंद नहीं हुई। मुस्लिमों ने ऐसा कोई साक्ष्य पेश नहीं किया जो यह दर्शाता हो कि वे 1857 से पहले मस्जिद पर पूरा अधिकार रखते थे। सुप्रीम कोर्ट ने कहा : मीर बकी ने बाबरी मस्जिद बनवाई। धर्मशास्त्र में प्रवेश करना अदालत के लिए उचित नहीं होगा। बाबरी मस्जिद खाली जमीन पर नहीं बनाई गई थी। मस्जिद के नीचे जो ढांचा था , वह इस्लामिक ढांचा नहीं था। स्पष्ट है कि 16वीं शताब्दी का तीन गुंबदों वाला ढांचा हिंदू कारसेवकों ने ढहाया था जो वहां राम मंदिर बनाना चाहते थे। यह ऐसी गलती थी जिसे सुधारा जाना चाहिए था। अदालत अगर उन मुस्लिमों के दावे को नजरंदाज कर देती है , जिन्हें मस्जिद के ढांचे से पृथक कर दिया गया तो न्याय की जीत नहीं होगी। इसे कानून के हिसाब से चलने के लिए प्रतिबद्ध धर्मनिरपेक्ष देश में लागू नहीं किया जा सकता। गलती को सुधारने के लिए केंद्र अयोध्या की अहम जगह पर मस्जिद के निर्माण के लिए 5 एकड़ जमीन दे।
अयोध्या मामले में क्यूरेटिव याचिका-
अयोध्या विवाद पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर मुस्लिम पक्षकारों की पुनर्विचार याचिका बगैर बहस के खारिज होने के बाद बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी ने क्यूरेटिव याचिका दाखिल की। इस पिटीशन में बाबरी मस्जिद का मलबा मुस्लिम समुदाय को सौंपने की याचना भी की गई है। कमेटी के संयोजक एडवोकेट जफरयाब जीलानी ने बताया था कि पुनर्विचार याचिका की सुनवाई होती तो बहस होती कि न्यायालय ने 1992 में बाबरी के विध्वंस को सिरे से अवैधानिक माना है। इसलिए इसके मलबे और पत्थर , खंबे आदि को मुसलमानों को दे दिए जायें। क्योंकि शरीयत के मुताबिक मस्जिद की सामग्री किसी भी दूसरे निर्माण में नहीं लगाई जा सकती है।
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