सोमवार 26 जुलाई से शुरू हुए सप्ताह के दौरान भारतीय राजनीतिमें कई अलग – अलग तरह की चीजें देखने को मिली। इससे कुछ इस तरह का अहसास होने लगा कि वास्तव में आज की राजनीति का सच एकदम बदल गया है और उसमें से रचनात्मकता नाम की चीज एकदम गायब ही हो गई है। राजनीति के मूल्यों में गिरावट आ गई का फ़साना भी अब पुराना पड़ चुका है और उसकी जगह यह नया जुमला अमल में आ चुका है कि भारतीय राजनीति अब मूल्य विहीन , विचार विहीन और रचनात्मकता विहीन हो गई है।
वामपंथी दलों और ऐसे ही एक – दो अपवाद दलों को छोड़ दें तो आज की तारीख में कोई भी राजनीतिक पार्टी अपने उन मूलभूत उद्देश्यों और सिद्धांतों पर इमानदारी और निष्ठा के साथ अमल नहीं कर रही है जिसके लिए उसका गठन किया गया था।
बात केंद्र और देश के आधे से ज्यादा राज्यों में सत्तारूढ़ भाजपा से शुरू करें तो कह सकते हैं कि साम्प्रदायिक कहे जाने वाले हिंदुत्व के नारे और मामले की धार भी अब कुंद हो चली है क्योंकि उसे समझ में आ गया है कि अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण के साथ ही मथुरा में कृष्ण जन्मभूमि को मुक्त कराने तथा वाराणसी में विश्वनाथ मंदिर को ज्ञान वापी मस्जिद के कथित नियंत्रण से मुक्क्त करा देने के नारों से राजनीति के नफे – नुक्सान का हिसाब लिखने से उसे अब कोई ख़ास फायदा नहीं होने वाला है।
धर्म से जुड़े इन नारों को जरूरत से ज्यादा हवा देने का परिणाम यह हुआ कि कोरोना की दूसरी लहर के दौर में देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश की भाजपा के कामकाज में काफी लापरवाही हुई और इस लापरवाही की वजह से जिस तरह सैकड़ों नहीं बल्कि हजारों की तादाद में कोरोना से मारे गए लोगों का अंतिम संस्कार भी नहीं हो सका और उनके परिजनों ने बड़ी संख्या में ऐसी मृतक देह को नदियों में बहा दिया अथवा हिन्दू धर्म की मान्यताओं के विपरीत जमीन में गाड़ दिया उससे हिंदुत्व की मर्यादा का अपमान हुआ है।
ऐसे में हिंदुत्व की राजनीति पर भरोसा करने वालों का भाजपा पर राजनीतिक विश्वास भी डगमगाया है। इस सबके साथ ही आकाश छूती महंगाई और आमजन के सीधे सरोकार से जुड़े मुद्दों पर भाजपा सरकारों के उदासीन रुख ने भी भाजपा के प्रति जनता की नाराजगी को और मजबूत किया है।
मौजूदा सन्दर्भ में राजनीति के जिस सच की बात की जा रही है वो सच यही है कि अगले साल फरवरी – मार्च के महीने में उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड, पंजाब , गोवा और मणिपुर समेत पांच राज्यों में विधानसभा के चुनाव होने हैं। इनमें उत्तर प्रदेश सबसे बड़ा राज्य है और इस राज्य के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के साथ ही देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की जिम्मेदारी काफी बढ़ जाती है। मोदी जी इसी राज्य की वाराणसी लोकसभा सीट का संसद में प्रतिनिधित्व करते हैं। भाजपा को इस चुनाव में मुद्दों की तलाश है। भाजपा मुद्दे तलाश रही है तो राज्य की दो प्रमुख विपक्षी पार्टियां सपा और बसपा उन मुद्दों को हथियाने की जद्दोजहद में लगे हैं जो किसी वजह से भाजपा ने छोड़ या भुला दिए हैं अथवा गलती से भाजपा उन मुद्दों पर ध्यान नहीं दे पा रही है।
ब्राह्मणों की भाजपा से नाराजगी भी एक ऐसा ही मुद्दा माना जा सकता है। एक साल पहले कानपुर के बिकरु गाँव में विकास दुबे इनकाउंटर मामले में मारे गए विकास दुबे और उसके शूटर अमर दुबे की कहानी से ब्राह्मण वोटर भाजपा से नाराज बताये जाते हैं। इस नाराजगी की एक बड़ी वजह यह भी है कि उत्तर प्रदेश की भाजपा सरकार की पुलिस ने शूटर अमर दुबे की उस पत्नी खुशी दुबे को भी अपने पति के अपराध में बराबर का भागीदार बना कर जेल में बंद कर रखा है जिसकी शादी बिकरु काण्ड से एक डेढ़ सप्ताह पहले ही हुई थी।
ऐसे में खुशी को अपराधी बनाना राज्य के ठाकुर मुख्यमंत्री को भारी पड़ सकता है। जनता की सहानुभूति इसलिए भी खुशी के साथ है क्योंकि एक तो वो ब्राह्मण है, दूसरा अमर दुबे के अपराध में उसका कोई योगदान नहीं है लेकिन वो क़ानून की ऐसी धाराओं में बंद है जिसमें जमानत मिलना संभव नहीं है। इस वजह से ब्राहमण तबके की नाराजगी को स्वाभाविक रूप से देखा जा रहा है और यह भी कहा जा रहा है कि योगी जी के मुख्यमंत्री काल में इस सवर्ण तबके पर हमले भी ज्यादा हो रहे हैं और इस वर्ग के लोग शासन प्रशासन में वजनदार पदों पर नहीं बैठाए गए हैं। इन आरोपों में कितना दम है यह तो विधानसभा चुनाव के बाद आने वाले परिणाम से ही पता चल पायेगा लेकिन एक बात तो साफ़ है कि भाजपा के पास हिदुत्व के नारे की जो धमक 2017 में थी वो आज नहीं है जबकि सरकार ने हिंदुत्व के फ्रंट को अयोध्या में राममंदिर निर्माण का शिलान्यास कर एक बार और मजबूत बनाने की कोशिश की थी।
भाजपा से अगर ब्राह्मण नाराज हैं तो जायेंगे किसके पास ? कांग्रेस में दम नहीं दिखाई देता लिहाजा सपा और बसपा जैसी वो पार्टियां जो कभी ब्राह्मणों को गरियाना अपना लोकतांत्रिक अधिकार समझती रही थीं, वही अब बदली पृष्ठभूमि में ब्राह्मणों को रिझाने की कोशिशों में लगी हैं। मायावती की बसपा ने तो बाकायदा खुशी दुबे का केस लड़ने की घोषणा कर उसे रिहा करवाने की घोषणा तक कर दी है। इसके अलावा मायावती ने रविवार 25 जुलाई से प्रदेश भर में ब्राह्मण सम्मेलन कराने की घोषणा कर यह अहसास दिलाने की कोशिश भी की है कि इस देश में अब केवल उनकी बसपा ही ब्राह्मण कल्याण का पवित्र और नेक काम कर सकती है। बसपा के विरोध में रहने वाली सपा ने भी ब्राह्मणों को खुश करने की गरज से प्रबुद्ध सम्मेलन कराने का एलान किया है। सामाजिक न्याय के नाम पर दलित वोट बैंक की राजनीति करने वाली बसपा और भाजपा की कमंडल ( मंदिर की )राजनीति की तोड़ के लिए मंडल का मुद्दा उछल कर पिछड़े तबके की राजनीति करने वाली सपा ने भाजपा के नाराज ( ब्राह्मण ) वोट बैंक को हथियाने की ऐसी होड़ मचा दी है की उनके विरिधी भी आशचर चकित हैं। कहना गलत नहीं होगा कि ब्राह्मण वोट बैंक हथियाने के चक्कर में दोनों पार्टियां अआपने मूल उद्देश्यों से ही पलटी मार चुकी हैं।
कहा नहीं जा सकता कि विधानसभा चुनाव के समय तक कैसी स्थितियां होंगी लेकिन आज की तारीख में इन दोनों पार्टियों ने यह दिखा दिया है कि राजनीति में विचार, मूल्य और सिद्धांतों की कोई जगह नहीं है। राजनीति में अगर इनकी कोई कीमत होती तो कोई भी राजनीतिक पार्टी किसी दूसरी राजनीतिक पार्टी को उस काम के लिए नहीं कोसती जो काम पहले कभी खुद उसने किया हो। मसलन भाजपा के नेताओं ने कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गाँधी के ट्रेक्टर पर सवार होकर संसद में आने की घटना को संसद का अपमान बताया था जबकि इस पार्टी के नेता भूल गए थे कि कई दशक पाहले इसी पार्टी के एक बड़े नेता और पूर्व प्रधान मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी नेता विपक्ष की हैसियत से बैल गाडी में सवार होकर संसद भवन आये थे।
अटल बिहारी वाजपेयी ने ऐसा इसलिए किया था क्योंकि उस साल तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी अभूतपूर्व अंतर्राष्ट्रीय तेल संकट की वजह से घोड़ों की बग्घी में सवार होकर संसद्भावन आयीं थी। उनका बग्घी में संसद भवन आना पेट्रोलियम पदार्थों की बचत करने का प्रतीक था लेकिन वाजपेयी जी ने ऐसा इसलिए किया था क्योंकि उन्हें यह दिखाना था कि अगर सत्ता पक्ष ऐसा कुछ कर सकता है तो विपक्ष भी उसी मुद्रा में जवाब देने में कभी पीछे नहीं रहेगा ।