कश्मीर पर जमी राजनीति की बर्फ कुछ पिघलने लगी है। विगत गुरूवार 24 जून 2021 को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की पहल पर प्रधानमंत्री निवास पर बुलाई गई कश्मीरी नेताओं की सर्वदलीय बैठक के बाद तो कुछ इसी तरह के संकेत मिलने लगे हैं कि पाकिस्तान की सीमा से लगे इस सीमान्त राज्य राज्य में इस बार फिर कुछ नया होने जा रहा है। करीब साढ़े तीन घंटे तक चली इस बैठक को लेकर कश्मीर घाटी और आसपास के जम्मू तथा लेह – लद्दाख इलाकों में कुछ नया होने का जो सन्देश देश – विदेश में गया है उसको लेकर केंद्र की गठबंधन सरकार में ही शामिल कुछ पार्टियों के नेताओं को ऐसा भी लगता है कि कश्मीर में कुछ भी नया होने वाला नहीं है। यह बैठक भी एक तरह से लोगों का ध्यान बंटाने का ही एक माध्यम है।
इस तरह की सोच के लोगों को यह लगता है कि अगर कश्मीर में वास्तव में कुछ भी करने को लेकर इमानदारी होती तो, कश्मीर मामले पर चर्चा के लिए कश्मीरी नेताओं के साथ ही देश के सभी राष्ट्रीय राजनीतिक दलों के नेताओं को भी इस बैठक में विचार विमर्श के लिए बुलाया जाना चाहिए था। ऐसा करना इसलिए भी जरूरी है क्योंकि कश्मीर देश की क्षेत्रीय या स्थानीय समस्या नहीं है बल्कि यह एक राष्ट्रीय समस्या है और इसका समाधान भी राष्ट्रीय स्तर पर मंथन के बाद ही हो सकता है। कश्मीर के क्षेत्रीय स्तर के नेताओं की दिल्ली में बैठक करने भर से यह बैठक राष्ट्रीय नहीं हो जाती। यह बैठक भी इसलिए करनी पड़ी क्योंकि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की सरकार कश्मीर से संविधान के अनुच्छेद 370 और 35 ए के तहत दिए गए विशेष दर्जे के अधिकार को वापस ले लिए जाने के कारण काफी दवाब में है। सरकार को अंतर्राष्ट्रीय बिरादरी को यह भरोसा भी दिलाना है कि कश्मीर के लोगों को सभी नागरिक अधिकार दिलाने के प्रति सरकार चिंतित है और इमानदारी से इस पर काम भी कर रही है।
इसलिए सर्वदलीय बैठक के बाद केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह के हवाले से कश्मीरी नेताओं ने यह भी कहा था कि केंद्र सरकार शीघ्र ही कश्मीर को पूर्ण राज्य का दर्जा बहाल करने जा रही है। उल्लेखनीय है कि आज से करीब दो साल पहले अगस्त 2019 में केंद्र सरकार ने कश्मीर पर एक बड़ा फैसला लेते हुए इस राज्य को संविधान के अनुच्छेद 370 और 35 ए के तहत मिले विशेष राज्य के दर्जे के अधिकार से वंचित करने के साथ ही लेह – लद्दाख , कश्मीर घाटी और जम्मू क्षेत्र से मिल कर बने इस राज्य को लेह – लद्दाख और जम्मू – कश्मीर दो केंद्र शासित प्रादेशों में बदल दिया था। केंद्र सारकार के इस फैसले के बाद इन दोनों ही केंद्र शासित राज्यों में विधान सभा भंग कर सभी तरह की संसदीय लोकतांत्रिक प्रक्रियाएं बंद कर दी गई थीं और दोनों केंद्र शासित प्रदेश केंद्र सरकार के नियंत्रण में उप राज्य पालों के सुपुर्द कर दिए गए थे। इन केंद्र शासित प्रदेशों में किसी तरह की लोकतांत्रिक प्रक्रिया तब तक शुरू नहीं हो सकती जब तक दोनों राज्यों में विधान सभा की सीटों के परिसीमन का काम पूरा न हो जाए।
अभी तक यह काम विधिवत शुरू भी नहीं हो सका है क्योंकि कोरोना महामारी के चलते इस काम को शुरू करने में ही काफी विलम्ब हो गया था। अधबीच काम शुरू हुआ भी तो देश एक बार फिर कोरोना की चपेट में आ गया और यह काम रूक गया। अब इसे पूरा होने में भी कम से कम दो साल का समय और लगेगा। चूँकि परिसीमन पूरा हुए बिना किसी तरह की चुनावी प्रक्रिया शुरू नहीं की जा सकती इसलिए यह तो मान कर ही चलना चाहिए कि अगर केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने पूर्ण राज्य का दर्जा बहाल करने की कोई बात सर्वदलीय बैठक में कही भी है तो भी इसमें दो साल का वक़्त तो अभी लगेगा।
वैसे भी नए परिसीमन के बाद केंद्र में सत्तारूढ़ भाजपा को फायदा होने वाला है क्योंकि अविभाजित जम्मू – कश्मीर राज्य के जम्मू क्षेत्र में विधानसभा की सात सीते बढ़ने वाली हैं। भाजपा पूरी तरह आश्वस्त है कि इससे विधान सभा में उसकी सदस्य संख्या बढ़ेगी और जम्मू – कश्मीर का मुख्य मंत्री जम्मू क्षेत्र का ही होगा।
जम्मू क्षेत्र में परिसीमन के बाद बढ़ने वाली सीटों की संख्या के आंकलन की वजह से ही कश्मीर मामलों पर बुलाई गई इस सर्वदलीय बैठक में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह के साथ ही केन्द्रीय मंत्री और भाजपा नेता इसलिए भी आश्वस्त दिखाई दिए क्योंकि अभी कुछ महीने पहले ही इन दोनों केंद्र शासित प्रदेशों में हुए पंचायत के चुनाव परिणाम से भी ये संकेत मिले हैं कि कश्मीर घाटी में मिल कर चुनाव लड़ने वाले गुपकर संगठन के दलों ने कुल जितनी सीटें उस चुनाव में जीती थीं उससे कहीं ज्यादा सीटें भाजपा ने अकेले लड़ कर जम्मू क्षेत्र में ही जीत ली थीं। चुनाव का यही फार्मूला परिसीमन के बाद वजूद में आने वाली अविभाजित जम्मू – कश्मीर की विधान सभा पर भी लागू होगा। ऐसे में भाजपा को जम्मू – कश्मीर को पूर्ववत पूर्ण राज्य का दर्जा देने में कोई हर्ज नहीं होगा क्योंकि इससे भाजपा के राजनीतिक हितों को किसी तरह का नुकसान नहीं होगा। इन परिस्थितियों में भी धारा 370 को फिर से लागू करने का भरोसा किसी भाजपा नेता या केन्द्रीय मंत्री ने नहीं किया है। इन हालात में फायदे में तो भाजपा ही रहेगी।
इन्हीं तमाम मसलों को समझते हुए ही पीडीपी नेता महबूबा मुफ़्ती ने शायद यह कहा है कि जिस तरह भाजपा ने कश्मीर को संविधान की धारा 370 के तहत मिले विशेष दर्जे से मुक्ति दिलाने के लिए 70 साल तक संघर्ष किया उसी तरह हम भी इस राज्य में 370 की बहाली के लिए अगले कई दशक तक संघर्ष कर सकते हैं। इसी प्रसंग में कश्मीर को लेकर भाजपा के कुछ नेताओं का दबी जुबान में यह कहना भी विशेष रूप से महत्वपूर्ण हो जाता है कि , 370 विहीन जम्मू – कश्मीर पर भाजपा को कोई आपत्ति नहीं है। भाजपा नेता यह भी कहते हैं कि पूर्ण राज्य के दर्जे की वकालत तो उनकी पार्टी हर राज्य के सन्दर्भ में करती है। चाहे वो राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली का ही मामला क्यों न हो। कांग्रेस समेत वपक्ष के तमाम नेताओं ने भी 370 के तहत विशेष दर्जे और पूर्ण राज्य की बहाली समेत ऐसी ही कई मांगे सर्वदलीय बैठक में राखी हैं इनमें 50 फीसदी मांगे भी सरकार मान लेती है तो अंतर्राष्ट्रीय बिरादरी भी उसे यह समझाने का मौका मिल जाएगा कि भारत सरकार कश्मीर मामलों को लेकर गंभीर रूप से चिंतित है और कश्मीरियों की समस्याओं के समाधान के लिए अपनी तरफ से हर संभव कोशिश कर भी रही है।
विधानसभा सीटों के परिसीमन के चलते कश्मीर में इस साल तो विधानसभा के चुनाव हो नहीं सकते लेकिन परिसीमन के बाद जब भी चुनाव होंगे तब जम्मू क्षेत्र में बढ़ने वाली सीटों के चलते भाजपा को फायदा होगा यह बात कश्मीर के हर गैर भाजपा राजनीतिक दल के नेता की समझ में अच्छी तरह आ गई है। इसकी वजह जम्मू क्षेत्र में 7 विधानसभा सीटों का बढ़ना है। कश्मीर की राजनीति को समझने वाले लोग अच्छी तरह जानते हैं, कि भारत में विलय के बाद से लेकर अभी तक इस राज्य के जम्मू क्षेत्र में हिंदुत्व वादी पार्टियों का ही वर्चस्व रहा है। चाहे वो जनसंघ हो या भाजपा। अभी तक कश्मीर घाटी में नेशनल कांफ्रेंस समेत कश्मीरी पार्टियों का दबदबा रहा है।
कांग्रेस को राष्ट्रीय पार्टी होने के नाते कभी नेशनल कांफ्रेंस तो कभी पीडीपी अथवा किसी अन्य क्षेत्रीय पार्टी की मदद से कश्मीर घाटी में लोकसभा और विधानसभा की कुछ सीटें जीतने में सफलता जरूर मिल जाती थी लेकिन उसका दबदबा राज्य के किसी इलाके में उतना नहीं था जितना जनसंघ या भाजपा का जम्मू क्षेत्र में रहा है। इन परिस्थितियों में 370 विहीन जम्मू – कश्मीर में पूर्व राज्य की बहाली भी भाजपा के लिए फायदेमंद ही साबित होगी। 24 जून की यह सर्वदलीय बैठक भी कुछ इसी तरह के संकेत देती है। परिसीमन के बाद भाजपा को कैसे फायदा होगा इसे जानने के लिए इस तथ्य पर गौर करना होगा कि अभी पूरे जम्मू – कश्मीर की कुल विधानसभा सीटें 107 हैं इनमें 24 सीटें पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में हैं और 4 सीटें लद्दाख की हैं इस तरह पहले देश के विभाजन और अब राआज्य के विभाजन के बाद जम्मू-कश्मीर में विधानसभा की कुल 83 सीटें ही बच गई हैं। परिसीमन के बाद इन सीटों की संख्या बढ़ कर 90 हो जाएगी।
ऐसा इसलिए भी होगा क्योंकि उत्तराखण्ड की तर्ज पर होने वाले इस परिसीमन में क्षेत्रफल के स्थान पर आबादी को आधार बनाया जाएगा। जम्मू – कश्मीर के जम्मू क्षेत्र में कश्मीर घाटी के पहाडी क्षेत्र की तुलना में जम्मू क्षेत्र के मैदानी और अर्ध मैदानी इलाकों में जनसँख्या का घनत्व कहीं ज्यादा है जिसका असर इस क्षेत्र की विधानसभा सीटों पर भी स्वाभाविक रूप से पड़ेगा .फिलहाल राज्य विधान सभा में जम्मू क्षेत्र की 37 सीटें हेंऔर कश्मीर घाटी की 46 सीटें हैं घाटी की इन सीटों में 4 लद्दाख क्षेत्र की भी हैं , इनको घटाने पर ये संख्या 42 हो जायेगी और जम्मू की 37, परिसीमन के बाद घाटी की विधान सभा सीटें तो नहीं बढ़ेंगी लेकिन जम्मू की सात सीटें बढ़ कर कश्मीर घाटी की सीटों से ज्यादा हो जाएँगी। इसका भाजपा को फायदा होगा। इसकी वजह है पिछले साल जिला विकास परिषदों (DDCs) के चुनाव में भाजपा ने ने जम्मू इलाके की 6 परिषदों पर कब्जा जमाया था और कश्मीर में नेशनल कॉन्फ्रेंस, पीडीपी समेत 7 पार्टियों वाले पीपुल्स अलायंस फॉर गुपकार डिक्लेरेशन (PAGD) ने 9 परिषदों पर कब्जा जमाया था. …