अब्राहम लिंकन ( 12 फरवरी 1809:15 अप्रैल 1865 ) अमेरिका के 16वें राष्ट्रपति बने थे। उनके पिता जूते बनाते थे। लिंकन जब राष्ट्रपति चुने गये तो पूंजीवादी व्यवस्था वाले अमेरिका के अभिजात्य वर्ग को जबरदस्त झटका लगा। लिंकन अमेरिकी संसद के निचले सदन, सीनेट में अपना पहला भाषण देने खड़े हुए। एक सीनेटर ने ऊँची आवाज़ में कहा,“ मिस्टर लिंकन याद रखो, तुम्हारे पिता, मेरे और मेरे परिवार के जूते बनाया करते थे। सीनेट में भद्दी-अश्लील अट्टहास गूँज उठी। इस पर लिंकन बोले,‘ मुझे मालूम है कि मेरे पिता जूते बनाते थे। उन्होने आपके ही नहीं कई महामहिम के जूते बनाये होंगे। वह बड़े मनोयोग से जूते बनाते थे। उनके बनाये जूतों में उनकी आत्मा बसती है। अपने काम के प्रति पूर्ण समर्पण के कारण उनके बनाये जूतों में कभी कोई शिकायत नहीं आयी। क्या आपको उनके काम से कोई शिकायत है? उनका पुत्र होने के नाते मैं स्वयं भी जूते बना लेता हूँ। आपको कोई शिकायत है तो मैं उनके बनाये जूतों की मरम्मत कर देता हूँ। मुझे अपने पिता और उनके काम पर गर्व है।
सीनेट में उनके इस तर्कवादी भाषण से सन्नाटा छा गया। इस भाषण को अमेरिकी संसद के इतिहास में सबसे असरकारी भाषण माना गया है। उसी भाषण से डिग्निटी ओफ लेबर ( श्रम की गरिमा ) का सिद्धांत विकसित हुआ। कामगारो ने अपने पेशे को ही अपना उपनाम (सरनेम) बना लिया। मसलन- कोब्लर,शूमेकर , बुचर, टेलर, स्मिथ , कारपेंटर, पॉटर….आदि आदि।
अमेरिका में एक अश्वेत व्यक्ति जॉर्ज फ्लयोड़ की 25 मई 2020 को पुलिस द्वारा की गई निर्मम हत्या के विरोध में देश के मूल निवासी विरोध प्रदर्शन के लिये बडी संख्या में सड्को पर उतरे। वे सब अपने पूर्व के आंदोलन ‘ ब्लैक लाइफ मैटर्स ‘ से प्रेरित थे। उसकी दुनिया भर में खूब चर्चा हुई। इसकी चर्चा कम हुई कि अश्वेत आंदोलनकरियो ने इस बार वॉशिंगटन डीसी में प्रदर्शन किये तो उसी दौरान कुछ अराजक लोगों ने सेंट पॉल में क्रिस्टोफर कोलम्बस की कांसा की 10 फीट ऊंची प्रतिमा उखाड़ कर नष्ट कर दी। उन्होने ऐसा क्यो किया? ये सही- सही जानने के लिये इतिहास में झंकना पडेगा।
क्रिस्टोफर कोलंबस-
क्रिस्टोफर कोलंबस (1451:1506) भारत से मसालो के युरोप में आयात के मुनाफेदार व्यापार में इजाफा के लिये वहां के शासको की वित्तीय मदद से अट्लांटिक महासागर से सुगम समुद्री रास्ता ढूंढ्ने के लिये नौवहन अभियान पर निकले थे। लेकिन उन्होने भारत के भ्रम में अमेरिका को खोज निकाला ! इसलिए वहां के मूल निवासियों को इंडियन ही कहा जाने लगा। अमेरिकी मूल निवासी, अपनी गुलामी और उनके यूरोपियन समुदाय द्वारा बरसो किये अमानुषिक अत्याचार, लाखो की संख्या में की गई उनकी सामूहिक हत्या आदि के लिए कोलंबस को जिम्मेदार मानते है।
डोनाल्ड ट्रंप-
तब अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप थे। उन्होंने अमेरिका के मूल समुदाय के भारी विरोध प्रदर्शन से निपटने के लिये देश की राजधानी में अर्ध-सैनिक बलों को बडी संख्या में तैनात करने का हुकुम दिया। फिर यह कहा कि इस कदम ने अमेरिका के विभिन्न प्रांतो के के शासकों को अश्वेत समुदाय के प्रदर्शनों को कुचलने के लिए ‘अनुकरणीय उदाहरण ‘ पेश किया है। ट्रंप ने फॉक्स न्यूज से कहा, ‘ हमको वर्चस्व कायम करने वाला सुरक्षा बल रखना होगा। हमें कानून व्यवस्था कायम रखने की जरूरत है।
जहां समस्याएं हुईं वहां पर मेरी रिपब्लिकन पार्टी सत्ता में नहीं है। वहां उदारवादी डेमोक्रेटिक पार्टी का शासन है। हमारे रक्षा विभाग ने जरूरत पड़ने पर सैनिकों को भी तैनात करने के लिए आपातकालीन योजनाएं तैयार की हैं। इस बीच, अमेरिकी न्यूज एजेंसी असोसिएटेड प्रेस (एपी) ने अमेरिकी के रक्षा विभाग के मुख्यालय, पेंटागन के दस्तावेजों से गज़ब खबर निकाली। खबर यह थी कि वाशिंगटन में हालात बिगड़ने पर अगर नैशनल गार्ड सुरक्षा बदोबस्त करने में विफल रहे तो आर्मी की एक डिविजन से सैनिकों को व्हाईट हाउस और फेडरल व्यवस्था के दूसरे शासकीय भवनों की सुरक्षा में लगाए जाने की योजना है।
हॉवर्ड फास्ट-
विश्वविख्यात यहूदी-अमेरिकी उपन्यासकार, हॉवर्ड फास्ट (1914-2003) के कालजयी स्पार्टकस आदि उपन्यासों की खूब चर्चा होती है। लेकिन 1946 में प्रकाशित उनके एक अन्य उपन्यास ‘ द अमेरिकन्स: अ मिडल वेस्टर्न लेजेंड ‘ की कम ही चर्चा की जाती है। उसके प्रकाशन के तुरंत बाद इस पर अमेरिका में प्रतिबन्ध लगा दिया गया था। इस कारण उसे बहुत कम लोग पढ़ सके। उनकी कृतियों का भारत के महान उपन्यासकार ,प्रेमचंद के सुपुत्र अमृत राय ने ‘ आदिविद्रोही ‘ और ‘ समरगाथा ‘ नाम से उत्तम हिंदी अनुवाद किये। लेकिन वह भी शायद द अमेरिकन्स नहीं पढ़ सके। पढ़ा होता तो इसका भी अनुवाद जरूर करते।
कबाड से जुगाड-
मौजूदा सहस्त्राब्दि शुरू होने के कुछेक बरस पहले भारत मैं ‘ द अमेरिकन्स ‘ के हिंदी अनुवाद की आवश्यकता बढ़ी। हमने पत्रकार-मित्र , सत्यम वर्मा के कहने पर इसे हासिल करने बचपन के अपने डॉक्टर-मित्र ,प्रणव मिश्रा से जुगाड़ करने का अनुरोध किया जो अमेरिका जा बसे हैं। साहित्य अनुरागी डॉ मिश्रा ने अमेरिका में किसी कबाड़ी टाइप की एक दूकान से इस उपन्यास की वहाँ उपलब्ध एकमात्र प्रति खरीद ली। वह इसे हमारे लिये भारत ले आये। दुर्भाग्य से हमारी मुलाकात नहीं हो सकी। उनके द्वारा भारत लाये उस उपन्यास की वह प्रति दिल्ली में किसी मित्र के मित्र के मित्र के हाथो गुजरते-गुजरते गुम हो गई। वर्ष 2003 में हॉवर्ड फास्ट के निधन के उपरांत जब किसी भौगोलिक सीमा में साहित्य पर लगे प्रतिबंध को इंटरनेट ने अर्थहीन बना दिया तो भारत में भी उसका हिंदी अनुवाद हुआ। यह अनुवाद इलाहाबाद विश्वविद्यालय के चर्चित इतिहासकार लाल बहादुर वर्मा ( अब दिवंगत) ने किया। इसे हरियाणा साहित्य अकादमी ने प्रकाशित किया था।
गूगल पर उपलब्ध ब्योरे के मुताबिक ईरान के मरहूम पूर्व प्रेसिडेंट और धर्मगुरु अयतुल्ला खुमैनी ने 1999 में एक स्कूली पत्रिका के सम्पादको के साथ बातचीत में कहा था,“ ये उपन्यास पढ किसी को भी पता चल जायेगा कि अमेरिकी चुनाव की वास्तविकता क्या है। चुनाव में जिनकी कोई भूमिका नहीं है वे अवाम हैं। वो अवाम, जो वोट डालती है, जो मतपेटी में वोट डालने आते हैं, उनकी चुनाव में बिल्कुल कोई भूमिका नहीं है।
उपन्यास विवरण-
हमें इस उपन्यास को पढ्ने का सौभाग्य बहुत बाद में तब मिला जब इसकी बिक्री , ऑनलाइन खरीद फरोक्त की अमेरिकी कंपनी अमेजॉन ने भारत में शुरू कर दी। पढ़ने से पता चलता है यह उपन्यास उन लोगो के बारे में है जो रोजगार की तलाश में पूर्वी यूरोप के अपने देश को छोड बडी मुश्किल से अट्लांटिक महासागर पार कर अमेरिका पहुंच गये थे। उपन्यास मे वर्णित है कि इन लोगों को अपने जीवन में कितने कठिन हालात का सामना करना पड़ा है। इसमें यह भी लिखा है कि उन्हे अपनी आयु बढ्ने, स्कूली शिक्षा पूरी करने, विधि स्कूल में पढ्ने जाने , न्यायिक व्यवस्था मे अपने प्रशिक्षण के दौरान, वकील बन जाने और फिर चुनाव अभियान में शामिल होने की स्थिति में क्या-क्या अनुभव होते हैं। हॉवर्ड फास्ट ने खुद इस उपन्यास की भूमिका में लिखा है कि यह सत्यकथा है। उन्होंने इतना ही कहा कि यह अमेरिका के किसी प्रांत के मशहूर गवर्नर के जीवन पर आधारित है। बाद में पता चला कि यह उपन्यास उन्हीं अब्राहम लिंकन के मानस उत्तराधिकारी जॉन पीटर के जीवन की सत्यकथा से प्रेरित है जिनके अमेरिकी संसद मे दिये भाषण से हमने इस आलेख का आगाज़ किया है। जॉन पीटर , इलिनॉय प्रांत के गवर्नर रहे थे।
हमने अपनी हालिया रिपोर्टों में अमेरिका ‘सोशियोपैथ ‘ माने जा रहे डोनाल्ड ट्रम्प की कुछ खबर दी है और उनकी कुछ “ खबर “ भी ली है। ताजी खबरों के मुताबिक अमेरिका में ‘ नवफासीवाद ‘ बढ्ने के खतरे है। ट्रंप अमेरिकी राष्ट्रपति के नवम्बर 2020 के चुनाव की तरह 2016 के भी चुनाव में अनुदारवादियों की रिपब्लिकन पार्टी के प्रत्याशी थे। उनका मुकाबला निवर्तमान राष्ट्रपति बराक हुसैन ओबामा के राज में विदेश मंत्री (सेक्रेटरी ऑफ़ स्टेट) रही और पूर्व राष्ट्रपति बिल क्लिंटन की पत्नी हिलेरी क्लिंटन से हुआ था।
चुनावी पंडितों के आंकलन में कुछ आम सहमति थी कि हिलेरी जीत जाएंगी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। ट्रम्प अप्रत्याशित रूप से जीत गए। ऐसा कैसे और क्योंकर हुआ इस प्रश्न का उत्तर आज तक किसी ने भी सर्वस्वीकार्य रूप से नहीं दिया है। कुछ लोगों का कयास है ओबामा के शासन काल की समाप्ति से पूर्व विदेश मंत्री पद छोड़ देने के पहले ही हिलेरी क्लिंटन को दुनिया भर के इतने खुफिया राज मालूम हो गए जो वहां के राष्ट्रपति को भी आसानी से नहीं पता होते। इन लोगों का कहना है इस जानकारी से परेशान खुफिया एजेंसियों ने आपस में हाथ मिलाकर हिलेरी को ‘ ठिकाने ‘ लगाने का तय किया। इन खुफिया एजेंसियों के नए खेल में ट्रम्प की जीत सुनिश्चित करने के लिए रूस के राष्ट्रपति व्लादीमीर पुतिन को मोहरा बनाकर पेट्रोलियम कंपनियों से उगाहे धन को अमेरिका के चुनाव में पानी की तरह बहाया गया। सच क्या है शायद ही पता चले। फिलवक्त सच ये है कि व्लादीमीर पुतिन ही नहीं दुनिया के सभी तानाशाह चाहते हैं कि इस बार के भी चुनाव में ट्रम्प ही जीतें। भारत के प्रधानमंत्री नरेंद मोदी पिछली बार अमेरिका जाकर वहां ट्रम्प की उपस्थिति में सार्वजानिक आयोजन में खुल कर ट्रम्प की चुनावी जीत के अभियान के लिए अपना समर्थन घोषित कर चुके थे। पिछली बार के चुनाव से पहले सर्वेक्षण एजेंसी प्यू का आंकलन हम रिपोर्ट कर चुके हैं कि दो-तिहाई अमेरिकी नागरिक कोरोना महामारी से निपटने में ट्रम्प की भूमिका से खासे नाराज थे।
इसके अलावा अश्वेत नागरिक जॉर्ज फ्लयोड़ की हत्या के खिलाफ अश्वेत ही नहीं श्वेत समुदाय के भी युवा और गंभीर लोग खड़े हो गए थे। ऐसे में ट्रम्प को बहुसंख्यकवाद नहीं कोई और चुनावी मन्त्र की शिद्दत से तलाश रही है। क्या ये युद्ध भी हो सकता है ? इस प्रश्न का उत्तर तत्काल मिलना मुश्किल है। लेकिन जैसे जैसे अमेरिका के चुनाव की तारीख नजदीक आती जाएगी विश्व भर के तानाशाहों की अमेरिका की अगुवाई में सैन्य संधि की संभावनाओं की आहट बढ़ सकती है।
• लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। वह बिहार के अपने गाँव में खेती-बाड़ी करने, स्कूल चलाने और किताबें लिखने के काम से अवकाश लेकर इन दिनों दिल्ली आए हुए हैं। अमेरिका के चुनाव पर उनकी विशेष रिपोर्ट शृंखला जारी रहेगी।
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