‘इंडिया दैट इज़् भारत’ की राजसत्ता पर पिछले नौ बरस से कुछ अधिक से लगातार काबिज प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने 18वीं लोक सभा के अगले बरस, 2024 में निर्धारित आम चुनाव के मद्देनजर देश में यूनिफ़ॉर्म सिविल कोड (यूसीसी) यानि एकसमान नागरिक संहिता का मुद्दा फिर उछालना शुरू कर दिया है। मोदी जी के मुताबिक यूसीसी लाना उनकी पार्टी का फैसला है और यह उसके चुनाव घोषणापत्र में हमेशा रहा है। मगर देश में ‘तुष्टिकरण ‘ की राजनीति करने वाले इसका विरोध करते हैं। उनका तर्क है कि घर में एक सदस्य के लिये और दूसरे सदस्य के लिये दूसरा कानून हो तो क्या वह घर चल सकता है? अगर नहीं तो फिर देश, दोहरी नागरिक संहिता के साथ कैसे चलेगा। उनके मुताबिक देश में यूसीसी के तहत ऐसा कानून होगा जो मौजूदा सभी व्यक्तिगत कानूनों की जगह लेगा। उसमें सभी लोगों के लिए विवाह, तलाक, उत्तराधिकार , गोद लेने आदि के एक ही जैसे प्रावधान होंगे।
मोदी जी की बातों पर यह सवाल उठाया जाना चाहिए कि क्या गारंटी है कि इससे नागरिकों के बीच समानता हासिल हो जाएगी? जाहिर बात है कि मोदी जी, भाजपा और उसके सरपरस्त राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की मंशा बहुलतापूर्ण भारत के संघात्मक ढांचा को खत्म कर केन्द्रीकृत शासन व्यवस्था कायम करना है।लेकिन देश के मौजूदा संघात्मक ढांचा को खत्म किये बिना यूसीसी लागू करना असंभव है। भारत में अभी 28 राज्य और 8 केंद्र शासित प्रदेश हैं,जिनकी आबादी और उनकी धार्मिक, भाषाई, सामाजिक सांस्कृतिक पहचान एक जैसी नहीं है।
भाजपा शासित असम के मुख्यमंत्री हेमता बिश्वसरमा ने कहा है कि उनकी सरकार बहुविवाह पर प्रतिबंध लगाने और यूसीसी लागू करने के लिए राज्य विधानसभा में सितंबर माह में एक विधेयक पेश करेगी। मुस्लिम पर्सनल ला के तहत बहुविवाह की अनुमति है। उन्होंने बताया कि गुवाहाटी हाई कोर्ट के रिटायर्ड जज रूमी फुकन की अध्यक्षता में गठित एक विशेषज्ञ समिति इस पर विचार कर रही है। इसमें शामिल लोगों में राज्य के महाधिवक्ता भी हैं।
कम्युनिस्ट
मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्ट(सीपीएम),कम्युनिस्ट पार्टी मार्क्सवादी-लेनिनवादी(सीपीएमएल) , भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) समेत सभी कम्युनिस्ट पार्टियां ने यूसीसी ख़ारिज कर दी हैं। सीपीएम पोलित ब्यूरो सदस्य और केरल के मुख्यमंत्री पिनाराई विजयन ने कहा है कि संघ परिवार ने जिस यूसीसी की कल्पना की है वह भारत के संविधान के अनुरूप नहीं बल्कि हिंदू शास्त्र,‘मनुस्मृति’ पर आधारित है। उनके अनुसार आरएसएस ने यह बहुत पहले ही स्पष्ट कर दी कि वह संविधान में मौजूद किसी बात को लागू करने की कोशिश नहीं कर रहा है। केरल राज्य विधान सभा ने सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित कर केंद्र सरकार से देश में यूसीसी लागू करने से परहेज करने का आग्रह किया है। मुख्यमंत्री विजयन ने देश में यूसीसी को लागू करने के भाजपा के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार के इरादे को एकतरफा और जल्दबाजी का कदम बताते हुए कहा कि यह भारतीय संविधान के धर्मनिरपेक्ष चरित्र के अर्थ को ही खत्म कर देगा। उन्होंने यूसीसी के खिलाफ विधानसभा में यह प्रस्ताव खुद पेश किया। इसमें कहा गया है कि यूसीसी विभाजनकारी कदम है जो लोगों की एकता को खतरे में डालता है और देश की एकजुटता के लिए हानिकारक है। प्रस्ताव में केंद्र सरकार से उन मुद्दों पर ऐसे कदम उठाने से बचने का आग्रह किया गया है जो देश की पूरी आबादी को प्रभावित करते हैं। पिनाराई का आरोप है कि भाजपा यूसीसी के विषय को बतौर अपने चुनावी एजेंडा के रूप में उठा रही है। उन्होंने कहा कि प्रस्ताव पर एकतरफा आगे बढ़ने का भाजपा के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार का कदम हमारी सांस्कृतिक विविधता को खत्म कर भारत में ‘ एक राष्ट्र, एक संस्कृति’ की सांप्रदायिक सियासत को लागू करने का प्रयास है। गौरतलब है कि केरल विधानसभा,दिसंबर 2019 में विवादित नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) के खिलाफ सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित करने वाली देश की पहली विधानसभा थी।
मिजोरम राज्य विधान सभा भी यूसीसी के खिलाफ प्रस्ताव पारित कर चुकी है। झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने भी यूसीसी का प्रबल विरोध कर कहा है कि उनकी सरकार इसे अपने राज्य में लागू नहीं होने देगी। यूसीसी लागू करने की प्रधानमंत्री मोदी की घोषणा के साथ ही पूर्वोत्तर के राज्यों में इसके विरोध की आवाज उठने लगी। उनमें भाजपा के नेतृत्व वाले नैशनल डेमोक्रेटिक अलायंस (एनडीए) में शामिल घटक दल भी शामिल है। छत्तीसगढ़ सर्वआदिवासी समाज ने इसे आदिवासियों की पहचान और पारंपरिक प्रथाओं के लिए खतरा बताया है। आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने यूसीसी के मुद्दे पर पिछले महीने लखनऊ मे बुलाई अपनी ऑनलाइन बैठक में इसे पूरी तरह से खारिज कर दिया। बोर्ड ने मोदी सरकार को एक पत्र भेजकर उसे यूसीसी लाने की कोशिश करने से बाज आने की चेतावनी दी है।
इतिहास
सन 1947 में हिंदुस्तान की आजादी के बाद उसकी राज सत्ता ब्रिटिश हुकमरानी से भारतीयों के हाथ में आने पर बनी संविधान सभा द्वारा तैयार भारतीय संविधान 26 जनवरी 1950 से पूर्ण रूप से लागू किया गया। उसके अनुच्छेद 44 में प्रावधान किया गया कि भारत सरकार यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू करने का प्रयास करेगी।बहुसंख्यक हिंदू समुदाय के पर्सनल लॉ में सुधार के लिए हिंदू कोड बिल लाने का प्रयास 1943 में शुरू हो गया था। उसके मसौदे को 1951 में संसद में पेश किया गया। शासक वर्ग के रूढिवादी गुटों ने इसका भारी विरोध किया। नतीजतन इसे हिंदू विवाह विधेयक, हिंदू उत्तराधिकार विधेयक, हिंदू अल्पसंख्यक और संरक्षकता विधेयक और हिंदू दत्तक ग्रहण एवं भरण-पोषण विधेयक के चार अलग विधेयक में बदल दिया गया। इनमें भी बाद के बरसों में बहुत संशोधन किये गए ताकि हिन्दू रूढिवादी ताकतों का तुष्टिकरण किया जा सके। फिर हिन्दू प्रतिक्रियावादी ताकतों ने देश में एकसमान नागरिक संहिता लागू करने की मांग शुरू कर दी जिसका मकसद मुस्लिम समुदाय के पर्सनल लॉ में परिवर्तन थोपना है। आरएसएस उन्ही रूढ़िवादी ताकतों का अगुआ संगठन है। उसके मुद्दों में चुनावों में मुस्लिम के खिलाफ बहुमत हिन्दू समुदाय की वोटिंग का यूसीसी के जरिए ध्रुवीकरण करना है।
भारतीय संविधान की संघीय संरचना में केंद्र सरकार और राज्य सरकारों के बीच अधिकारों का विभाजन है। इसकी बदौलत उन्हें अपने क्षेत्र में विधायी अधिकार का उपयोग करने की छूट है। भारत के संविधान के तहत केंद्र और राज्य सरकारों को व्यक्तिगत मसले पर कानून बनाने का अधिकार है। इसे अधिकारों की केन्द्रीय,राज्य और समवर्ती सूची में शामिल किया गया है। राज्य सरकारों को अपनी आबादी के विभिन समुदायों के धार्मिक रीति-रिवाजों और प्रथाओं के आधार पर विवाह, तलाक, विरासत आदि के मामलों से संबंधित कानून बनाने का अधिकार है। यूसीसी लागू करने से देश के पूर्वोत्तर क्षेत्र के राज्यों के आदिवासी समुदायों के लिए मौजूदा संवैधानिक और कानूनी प्रावधानों विशेषकर पांचवीं अनुसूची और अनुच्छेद 371 में शामिल प्रावधानों से टकराव होगा। भारत में मौजूदा व्यक्तिगत कानून में ही नही बल्कि अन्य कानूनों में भी समानता नही है। मसलन,आपराधिक दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) में जमानत लेने का प्रावधान आबादी के हिसाब से देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में नहीं लागू है। पर यह प्रावधान अन्य राज्यों में लागू है। इसी तरह सिविल प्रक्रिया संहिता में भी कई राज्य सरकारो ने अपनी जरूरत के हिसाब से प्रावधानों में बदलाव किये हैं। मकान मालिक-किराएदार से सम्बंधित कानून में हर राज्य में भिन्नता है।
विधि आयोग
21वें विधि आयोग की रिपोर्ट के पैरा 1.23 में उल्लेख है कि यूसीसी के कार्यान्वयन की समस्या संविधान की छठी से होती है। छठी अनुसूची के तहत त्रिपुरा, असम, मिजोरम और मेघालय के निश्चित क्षेत्रों में विशेष रूप से गठित जिला और क्षेत्रीय परिषदों को अधिकार है कि वे विवाह, तलाक, संपत्ति के अधिकार आदि जैसे परिवारिक कानून संबंधी मामलों पर कानून बनाएँ। सवाल है कि क्या प्रधानमंत्री मोदी सचमुच में जनजाति समुदायों के लिए संवैधानिक और कानूनी प्रावधानों की दोहरी व्यवस्था के खिलाफ हैं? क्या यूसीसी ,जनजाति समुदायों के लिए नहीं बल्कि मुस्लिमों के लिए ही होगी?
मोदी जी उनकी पार्टी यूसीसी लागू करने के प्रति गंभीर नहीं लगते है। उनकी मंशा केवल इस मुद्दे को उछाल कर मुस्लिमों के खिलाफ माहौल बनाने की है ताकि देश में आगामी चुनावों पहले हिन्दू-मुस्लिम में वैमनस्यता लाकर राजनीतिक ध्रुवीकरण किया जा सके। दरअसल संघीय ढांचे को कमजोर करने या उसे पूरी तरह खत्म करने का असली मकसद है देशी-विदेशी पूंजीपतियों को वहां के प्राकृतिक संसाधनो का दोहन करने की खुली छूट देने का एकछत्र अधिकार केंद्र सरकार के पास हो जाए। मोदी सरकार द्वारा कश्मीर में धारा 370 हटाते समय अन्य बातों के अलावा यह भी जोर-शोर से उछाला गया था कि इससे राज्य में सभी भारतीयों को सम्पत्ति खरीदने का अधिकार मिल जाएगा। धारा 370 हटाने से कश्मीर की प्राकृतिक संपदा बिकाऊ माल बना दी गई। वैसे ही मणिपुर में सरकार प्रायोजित हिंसा के दौरान यह प्रचारित किया जा रहा है कि अब बहुसंख्यक मैती समुदाय को नगा और कुकू आदिवासियों की जमीने खरीदने का अधिकार मिलने वाला है। इसके संकेत हैं कि मणिपुर के जंगल और अन्य प्राकृतिक संपदा को बिकाऊ माल बनने की तरफ कदम बढ़ाये जा चुके है और वहाँ के आदिवासियों को उसी तरह बेदखल करने का रास्ता साफ कर लिया जाने वाला है जैसे देश के अन्य आदिवासी बहुल आबादी वाले राज्यों में किया जा चुका है। वहां की आदिवासी अवाम जल,जंगल और जमीन बचाने की लड़ाई वर्षो से लड़ रही है। खबर है कि खनिज प्रचुर मणिपुर में सोना से भी मंहगा प्लेटिनम धातु के खनन के लिए मोदी जी के करीबी गुजराती व्यवसाई गौतम अडाणी को हजारों एकड़ भूमि देने की तैयारी की जा चुकी है।
भाजपा के शासन में हालिया बरसों में यह भी सवाल उठा है कि इसमें कोई भी कानून ,समान रूप से सबके ऊपर क्यों नहीं लागू होता है? दुनिया भर में यह सिद्धांत है कि किसी आरोपी का अपराध जब तक सिद्ध नहीं होता तब तक उसे निर्दोष माना जाए। मगर मोदी सरकार के कार्यकाल में यह सिद्धांत सिर्फ भाजपा से जुड़े व्यक्ति पर लागू होता है। कोई व्यक्ति भाजपा से संबंधित नहीं है तो जब तक वह निर्दोष नही सिद्ध हो जाता तब तक उसे दोषी माना जाता है। इसी बरस अंतराष्टीय स्तर की कुछ महिला पहलवानों द्वारा लगाए गए गम्भीर आरोपो के बावजूद भाजपा के उत्तर प्रदेश से सांसद ब्रजभूषण सिंह के प्रति पुलिस और प्रशासन का नरमी का रवैया और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू ) के शोध छात्र उमर खालिद को उसके खिलाफ आरोपों को बिन सिद्ध किये लगातार तीन बरस से जेल में कैद रखना इसे दर्शाने के लिये काफी है।
बीफ
भारत के विभिन्न हिस्सों में गोहत्या और बीफ खाने से जुड़े कानून और उसे लागू करने में विरोधाभास भी इसका उदाहरण है। भारत के 29 में से 10 राज्य ऐसे हैं जहां गाय, बछड़ा, बैल, सांड और भैंस को काटने और उनका माँस खाने पर प्रतिबंध नहीं है।अन्य राज्यों में गोहत्या पर पूर्ण या आंशिक रोक है। केरल,पश्चिम बंगाल, असम, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर, मेघालय, मिज़ोरम, नगालैंड, त्रिपुरा, सिक्किम और लक्षद्वीप में गोहत्या पर प्रतिबंध नहीं है। गुजरात में गाय का वध करने पर आजीवन कारावास की सजा है। पूर्वोत्तर के राज्यो में इसकी सजा नहीं है। उनके पास इसका कोई जवाब नहीं है जो आज एक देश मे एक कानून और यूसीसी लागू करने की बात कर रहे हैं! देश में ऐसा माहौल बना दिया गया है कि अगर कोई मुस्लिम गाय के साथ दिखाई पड़ता है तो तुरंत शंका होती है कि वह गाय का वध करने वाला है। हाल में हरियाणा के फरीदाबाद जिले के एक गांव में एक मुस्लिम परिवार के घर से बजरंग दल के सदस्यों द्वारा 59 गायों और 16 बकरियों को ले जाने का आरोप लगाया गया।दावा किया गया कि वहां गोहत्या हो रही है, इसलिए बजरंग दल के सदस्य उन्हें बचाकर गोशाला में ले गए। परिवार ने पुलिस को शिकायत की तो पुलिस ने बजरंग दल के लोगो पर कानूनी कार्यवाही करने के बजाय शिकायतकर्ता मुस्लिम से पशुधन के स्वामित्व का प्रमाण मांगा। अगर यूसीसी की मांग हो रही है तो ऐसे विभिन्न क्षेत्रों में गोहत्या और बीफ खाने के नियमों में एक समानता क्यों नहीं होनी चाहिए?
मोदी राज में बहुप्रचारित “अमृत काल” मे न्याय का एक और पहलू भी सामने आया। वह है सारे कानून को धत्ता बता कर ‘ बुलडोजर न्याय ‘। हाल में मध्य प्रदेश में आदिवासी मज़दूर के चेहरे पर पेशाब करने वाले प्रवेश शुक्ला नाम के एक व्यक्ति के पिता का कहना है, “मेरे बेटे को कठोर-से-कठोर दंड दिया जाए लेकिन मेरा घर क्यो गिरा दिया।मेरा पूरा परिवार रोड पर है। मेरी 80 वर्षीय माता, 3 वर्ष की नातिन है। हम लोग कहां जाएं? घर में मेरे बेटे का एक रुपया नहीं लगा है। यह तो वही हुआ- करे कोई, भरे कोई। यह कैसा न्याय है?”भाजपा शासित राज्यों में बुलडोजर न्याय कहीं से भी आधुनिक न्यायशास्त्र के सिद्धांतों से मेल नही खाता। आधुनिक न्यायशास्त्र में, व्यक्तिगत जिम्मेदारी का सिद्धांत आपराधिक कानून का मूलभूत पहलू है।इस सिद्धांत के अनुसार, प्रत्येक व्यक्ति को अपने कार्यों के लिए जिम्मेदार ठहराया जाता है और उनके परिवार के सदस्यों समेत किसी अन्य द्वारा किए गए अपराधों के लिए दंडित नहीं किया जा सकता है। किसी को केवल अपराधी के साथ उसके रिश्ते के आधार पर दंडित करना इस सिद्धांत का उल्लंघन होगा। आधुनिक न्यायशास्त्र का लक्ष्य सामूहिक दंड से बचना है, जहां एक सदस्य के कार्यों के लिए पूरे परिवार या समुदाय को जिम्मेदार ठहराया जाता है। सामूहिक सज़ा से मनमाने और अन्यायपूर्ण परिणाम हो सकते हैं क्योंकि यह व्यक्तियों के बीच अंतर करने में विफल रहता है और उनके अधिकारों और व्यक्तिगत परिस्थितियों की उपेक्षा करता है। हालाँकि पारंपरिक न्यायशास्त्र में ऐसे उदाहरण हैं जहाँ परिवार के किसी सदस्य के कार्यों के लिए पूरे परिवार को सजा हो सकती है। पर आधुनिक कानूनी व्यवस्था ऐसी प्रथाओं से दूर होती गई हैं।वे व्यक्तिगत जिम्मेदारी , अधिकारों और निष्पक्षता के सिद्धांतों को प्राथमिकता देते हैं। लेकिन भाजपा शासित राज्यो में बुलडोजर न्याय की आड़ में घोर अन्याय किया जा रहा है। भाजपा एक तरफ कानून का राज सुनिश्चित नही कर रही है ओर दूसरी तरफ यूसीसी लागू करने की बात कर रही है। मणिपुर में भाजपा की ‘ डबल इंजन ‘ की सरकार है। वहाँ दो महिलाओ को पुरुषों की भीड़ द्वारा पूरी तरह निर्वस्त्र कर सड़को पर घुमाए जाने का वीडियो घटना के दो महीने बाद वायरल होने पर उसके मुख्यमंत्री एन वीरेन सिंह का गजब बयान आया कि ‘ इस तरह की सैकड़ो घटनायें हो चुकी है ‘। उसके बाद ही प्रधानमंत्री ने पहली बार चुप्पी तोड़ते हुए मणिपुर की घटना पर सिर्फ अपने कुछ घड़ियाली आंसू बहाए। इन परिस्थितियों में जब प्रधानमंत्री यूसीसी की व्यवस्था लैंगिक समानता लाने के लिये जरूरी है तो संदेह बढ़ जाता है कि कहीं यह हिन्दू-मुस्लिम ध्रुवीकरण के लिये चुनावी हथकंडा तो नही है।
बहरहाल, मोदी सरकार यूसीसी पर जो कानून चाहती है उसका प्रारूप जारी नही किया गया है। 21वें विधि आयोग ने 2018 में सरकार को जो रिपोर्ट दी थी उसके अनुसार इसे देश में अभी लागू करना आवश्यक नहीं है। पर मोदी सरकार ने इस रिपोर्ट को नज़रअंदाज़ कर जस्टिस रितुराज अवस्थी की अध्यक्षता में हाल में 22 वें विधि आयोग को इस मुद्दे की जांच करने कहा है। ऐसे में यूसीसी का मुद्दा उछालने का मतलब सिर्फ चुनावी हथकंडा के सिवा और क्या हो सकता है? इससे क्या यह स्पष्ट नही है कि सरकार मूल समस्या और अपनी असफलताओ से लोगो का ध्यान हटा रही है।
अनुच्छेद 30-
यूसीसी विवाह, तलाक, गोद लेने और उत्तराधिकार जैसे व्यक्तिगत मामलों को नियंत्रित करने वाले कानूनों को इंगित करता है। अभी विभिन्न धर्मों के अलग-अलग व्यक्तिगत कानून हैं। ईसाई के लिए भारतीय तलाक अधिनियम (1869), ईसाई विवाह अधिनियम (1872), भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम (1925) और संरक्षक एवं वार्ड अधिनियम (1890) हैं। पारसी समुदाय के लिये पारसी विवाह और तलाक अधिनियम (1936), भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम (1925), संरक्षक एवं वार्ड अधिनियम (1890) हैं। यहूदियों के लिये भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम (1925) और संरक्षक एवं वार्ड अधिनियम (1890) है। ब्रिटिश काल में मुसलमानों के पारिवारिक मामलों के विभिन्न पहलुओं के नियमन के लिए विवाह, तलाक, विरासत और रखरखाव के कानून शामिल थे। आजादी के बाद दो और कानून, मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरीयत) एप्लीकेशन एक्ट (1937) और मुस्लिम महिला (तलाक अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम (1939) बने। हिन्दू धर्मावलम्बियों के लिये (1956) तक जो कानून बने उनमें हिंदू विवाह अधिनियम (1955), हिंदू संपत्ति अधिनियम (1956),हिंदू मिनॉरिटी और पालनदारी अधिनियम (1956) और हिंदू दत्तक और पालन अधिनियम (1956) शामिल हैं। आजादी के पहले ईसाइयों और पारसियों के लिए जो व्यक्तिगत कानून बने वे प्रगतिशील माने जाते हैं।व्यक्तिगत कानूनों के प्रावधानों में जो विसंगतियां थी उन्हें आजादी के बाद सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निरस्त कर दिया गया या फिर संसद द्वारा उनमें आवश्यक संशोधन कर दिए गए। यहूदियों के बारे में जो व्यक्तिगत कानून थे उनके रीति रिवाज और परंपराओं से ही निर्धारित होते रहे। गोद लेने का अधिकार सिर्फ हिन्दुओ में है। 1948 में संसद में जब हिंदू कोड बिल पेश किया गया था तब उसे रूढ़िवादी हिंदू ताकतों के प्रबल विरोध का सामना करना पड़ा था जिसने कुतर्क दिया कि यह धार्मिक रीति-रिवाजों और परंपराओं में हस्तक्षेप करेगा। उस समय हिन्दू धर्म रीति-रिवाजों पर आधारित जो कानून थे उसमे भारी लैंगिक असमानता थी। कट्टर हिन्दू मानसिकता के पुरुष इसे बदलने तैयार नही थे। उनका कुतर्क रहा कि व्यक्तिगत कानून धार्मिक स्वतंत्रता का अनिवार्य पहलू है और उन्हें कानून के दायरे से बाहर रखा जाना चाहिए। हिंदू कोड बिल को अंततः चार अलग-अलग बिलों में विभाजित किया गया। इन विधेयकों को 1950 और 1960 के दशक के दौरान संसद में पेश किया गया और उन पर बहस हुई। विरोध के बावजूद ये पारित किए गए। इन विधेयकों ने बहुविवाह जैसी प्रथाओं को समाप्त कर एक विवाह को आदर्श के रूप में पेश करके ,पुरुषों और महिलाओं को तलाक का सीमित अधिकार प्रदान करके और बेटों के साथ बेटियों के लिए भी विरासत में कुछ अधिकार देकर हिंदू व्यक्तिगत कानूनों में बदलाव लाए। उद्देश्य लैंगिक असमानताओं को दूर करना और हिंदू समुदाय के भीतर सुधार लाना था। लेकिन इनके कई प्रगतिशील प्रावधानों को कमजोर कर दिया गया। बहरहाल, इसने भारत में महिलाओं के अधिकारों और लैंगिक समानता पर बाद के कानूनी सुधारों की नींव रखी।
बहुविवाह-
जब मोदी जी कहते है कि एक ही परिवार में दो तरह के कानून कैसे हो सकता है तो उनका इशारा मुस्लिम व्यक्तिगत कानून में उस प्रावधान की तरफ है जिसके तहत मुस्लिम पुरुषों को चार शादी करने का अधिकार है। लेकिन बहुविवाह किसी धार्मिक समुदाय तक सीमित नहीं है। बहुविवाह करने वालों का प्रतिशत आज भी कम है। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-5 (2019-20) के अनुसार भारत में विभिन्न धार्मिक समूहों में बहुविवाह अलग-अलग स्तर पर मौजूद हैं। तब यह ईसाइयों में 2.1%, मुसलमानों में 1.9%, हिंदुओं में 1.3% और अन्य धार्मिक समूहों में 1.6% था। साफ है कि बहुविवाह हर धर्म मे हो रहा है पर उसका प्रतिशत कम है। बहुविवाह के संदर्भ में मुख्य बात यह है कि जहां मुस्लिमो में बहुविवाह कानूनी है वहीं अन्य धर्मों में गैर कानूनी हैं। 1955 के पहले हिन्दू पुरुषों को अनगिनत पत्नियां रखने का अधिकार था। पर मुस्लिम पुरुषों के लिए अधिकतम चार विवाह करने का अधिकार 7वी शताब्दी में ही कर दिया गया था। कानून बनने के बाद भी हिन्दुओ में बहुविवाह खत्म नही हुआ और यह मुस्लिमो में बढ़ नही रहा है। हमारा समाज एकनिष्ठ विवाह की तरफ बढ़ रहा है।
तलाक का प्रावधान-
इस्लाम चार प्रकार के तलाक (तलाक) का प्रावधान करता है। तीन तलाक, खुला, तलाक-ए-तफवीज, और काजी / अदालत के समक्ष तलाक। तलाक-ए-तफवीज पत्नी को निकाहनामे (विवाह अनुबंध) में उल्लिखित तलाक का अधिकार प्राप्त करने की अनुमति देता है। इसके अलावे, 1939 में मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम तलाक के बाद अपने अधिकारों और वित्तीय सुरक्षा के संबंध में मुस्लिम महिलाओं द्वारा उठाई चिंताओं को दूर करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम था। तलाक-ए-तफ़वीज़ में, जिसे प्रत्यायोजित तलाक भी कहते हैं, पत्नी को निकाहनामे में उल्लिखित तलाक का अधिकार प्राप्त करने की अनुमति है। यदि पति उसे मानसिक और शारीरिक यातना देता है तो पत्नी, पति की सहमति के बिना तलाक के अपने अधिकार का प्रयोग कर सकती है। तलाक सम्बंधित प्रावधान में भी विगत वर्षों में कई बदलाव आए है। तीन तलाक पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला और उसके बाद मुस्लिम महिला (विवाह पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम (2019) भारतीय संसद द्वारा पास किया गया। उद्देश्य तीन तलाक की प्रथा के अन्याय और भेदभावपूर्ण प्रकृति को दूर करना और इससे प्रभावित महिलाओं को कानूनी सहायता प्रदान करना है।
पहले तलाक का अधिकार सिर्फ मुस्लिम महिलाओं को ही था। हिन्दू महिलाओं को यह अधिकार नही था। हिन्दू धर्म में विवाह को पवित्र माना जाता है। हिन्दू धर्मग्रंथों में विवाह 16वां संस्कार के रूप में वर्णित है। हिन्दू विवाह अधिनियम (1955) लागू होने के बाद ही तलाक का अधिकार हिन्दू दम्पतियों को कानून में वर्णित आधार के आलोक में मिल सका। भारत के यहूदी दम्पत्तियों को आज तक यह अधिकार नही है। ईसाई और पारसी समुदाय पर लागू व्यक्तिगत कानूनों के तहत तलाक का अधिकार था मग़र महिला या पुरुष जिन आधारों पर तलाक ले सकते थे उसमें एकरूपता नही थी। इसलिये उसमे सुधार की गुंजाइस थी और सर्वोच्च न्यायालय के हस्तक्षेप से सुधार हुए। अभी भी सुधार की गुंजाइश है। तलाक सम्बंधित जो कानून अभी है वो, अगर सहमति से तलाक न ली जा रही हो तो तलाक लेने वाले के पक्ष में नही है। ज्यादातर मामलों में तलाक के अधिकार का प्रयोग नहीं किया जाता है। तलाक चाहने वाली उत्पीड़ित औरतों को आर्थिक रूप से कुचल दिया जाता है। तलाक लेने वाली औरत अक्सर लम्बी न्यायिक प्रक्रिया में मानसिक रूप से उत्पीड़ित होती रहती है। इस तरह जैसे विवाह में परस्पर सहमति का अधिकतर मामले में कोई मतलब नही रहता वैसे ही लाख विरोध और झगड़े के बाद भी पति-पत्नी अलग नही हो पाते है। वे तलाक का अधिकार का प्रयोग नही कर पाते है। इसके पीछे अधिकांश मामलों में मुख्य कारण आर्थिक असुरक्षा होती है।
निकाह हलाला-
इस्लामी कानून में ‘निकाह हलाला’ विवादित प्रावधान है जहां तलाकशुदा मुस्लिम महिला को अपने पूर्व पति से दोबारा शादी करने के लिये किसी अन्य पुरुष के साथ शादी करने की आवश्यकता है। इस प्रथा को तलाकशुदा जोड़े के बीच पुनर्विवाह को वैध बनाने के तरीके के रूप में देखा जाता है। क्योंकि इस्लामी कानून एक महिला को तीन तलाक (तत्काल तलाक) के बाद अपने पूर्व पति से पुनर्विवाह करने से तब तक रोकता है जब तक कि वह किसी और से शादी नहीं करती। निकाह हलाला की प्रथा मुस्लिम महिलाओं के प्रति भेदभावपूर्ण और दमनकारी है। ऐसी प्रथा और किसी समुदाय में नही है।
बाल विवाह-
बाल विवाह निषेध अधिनियम (2006) के तहत, महिलाओं के लिए निर्धारित आयु 18 वर्ष और पुरुषों के लिए 21 वर्ष से कम आयु में किया गया कोई भी विवाह गैर कानूनी है।बाल विवाह कराने वालों को सजा दी जा सकती है। बाल विवाह गैरकानूनी होते हुए भी अवैध नहीं कहा जाता है। इसे अवैधनीय कहा जा सकता है। बाल विवाह निषेध अधिनियम (2006) के प्रावधान मुस्लिम पर्सनल लॉ के विरुद्ध है। मुस्लिम कानून के अनुसार मुस्लिम लड़की 15 बरस की युवावस्था प्राप्त करने के बाद शादी कर सकती है। भारत में बाल विवाह का प्रचलन अधिक है। 2015-16 के राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस-4) के अनुसार 20 से 24 आयु वर्ग की लगभग 27% महिलाओं की शादी 18 साल की उम्र से पहले हो गई थी।
विरासत के अधिकार सम्बंधित कानून-
भारत मे विरासत से सम्बंधित हिंदुओं के कानून मुख्य रूप से दो तरह के थे- मिताक्षरा और दायभाग। दायभाग का कानून बंगाल और उड़ीसा में और मिताक्षरा कानून देश के शेष हिस्से में लागू था। हिंदू संपत्ति अधिनियम (1956) के पारित होने के बाद विरासत के कानून में एकरूपता लाने की कोशिश की गयी। महिलाओं को सम्पत्ति में सीमित अधिकार मिला लेकिन प्रतिक्रियावादी हिन्दू संगठनों के विरोध के कारण भेद-भाव खत्म नही किया जा सका।कृषि जमीन में उन्हें अधिकार नही मिला। मुस्लिमो में भी कृषि सम्पत्ति में महिलाओँ को 1937 में बने कानून में अधिकार नही दिया गया। भाइयो की तरह उन्हें हमवारिस नही माना गया। यह अधिकार उन्हें हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम (2005) के द्वारा ही दिया जा सका। हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम (1956) की धारा 6 में 2005 में संशोधन कर महिलाओं को हमवारिस प्रणाली से बाहर रखने की सदियों पुरानी भेदभावपूर्ण प्रथा को समाप्त कर दिया गया। हालांकि कानूनी अधिकार मिलने के बाद वे सम्पत्ति में अधिकार का दावा विभिन्न कारणों से नही कर पाती है। भारत में बौद्ध, जैन या सिख की संपत्ति के उत्तराधिकार पर हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम (1956) लागू होता है।
मुस्लिम कानून में मोटे तौर पर दो मत सुन्नी और शिया हैं। सुन्नी मत मुख्य रूप से भारत में प्रचलित है। इसकी चार शाखाएं हनफ़ी, शफ़ी, मलिकी और हनबली हैं। भारत में अधिकतर सुन्नी मुसलमान हनफ़ी मत के हैं। हनफ़ी मत के तहत उत्तराधिकारियों की सात श्रेणियां हैं। प्रमुख उत्तराधिकारी कुरानिक, अग्नेटिक और गर्भाशय उत्तराधिकारी , कुरान के उत्तराधिकारी , आत्मीयता के आधार पर उत्तराधिकारी पति और पत्नी और रक्त संबंध के आधार पर पिता, दादा, मां, दादी, बेटी, बेटे की बेटी, पूर्ण बहन, सजातीय बहन, गर्भाशय भाई और गर्भाशय बहन है। हिन्दू महिलाओं के विपरीत मुस्लिम महिलाओं को सम्पत्ति में अधिकार पहले से था। मुस्लिम महिलाओं के कुरानिक संपत्ति अधिकारों के तहत यदि किसी विधवा की संतान न हो तो उसे अपने पति की संपत्ति का एक-चौथाई हिस्सा प्राप्त करने का अधिकार है। यदि किसी विधवा के बच्चे हों तो उसे पति की संपत्ति का आठवां हिस्सा प्राप्त करने का अधिकार है। पुरुष उत्तराधिकारियों की तुलना में महिला उत्तराधिकारियों को अपने माता-पिता की संपत्ति का आधा हिस्सा मिलता है। एकल बेटी को अपने माता-पिता की संपत्ति का आधा हिस्सा प्राप्त करने का अधिकार है। हालाँकि, एक से अधिक बेटियों के मामले में सभी बेटियों को दो-तिहाई हिस्सा मिलता है। 1925 का अधिनियम ईसाइयों पर ही नहीं बल्कि पारसियों पर भी लागू है। पारसी बेटियों और पत्नियों को क्रमशः अपने निर्वसीयत पिता और पतियों की संपत्ति में बराबर हिस्सेदारी का अधिकार है।
गुजारा भत्ता का मामला-
1985 में मोहम्मद अहमद खान बनाम शाह बानो बेगम के ऐतिहासिक मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने तलाक के बाद मुस्लिम महिलाओं के लिए भरण-पोषण या गुजारा भत्ता के मुद्दे पर फैसला किया।अदालत के फैसला के मुताबिक मुस्लिम पर्सनल लॉ के प्रावधान जो रखरखाव की अवधि को इद्दत (तलाक के बाद की प्रतीक्षा अवधि) तक सीमित करते हैं तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं को दीर्घकालिक सहायता प्रदान करने में अपर्याप्त थे। अदालत ने इस पर जोर दिया कि मुस्लिम महिलाएं, अन्य धर्मों की महिलाओं की तरह, इद्दत अवधि के बाद भी भरण-पोषण की हकदार हैं यदि वे अपना भरण-पोषण करने में असमर्थ हों। फैसले ने काफी विवाद खड़ा कर दिया और रूढ़िवादी मुस्लिम समूहों ने विरोध प्रदर्शन किया। इनके दबाव में केंद्र सरकार ने 1986 में मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम बनाया। इस अधिनियम ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलट दिया और मुस्लिम महिलाओं के इद्दत अवधि से परे रखरखाव का दावा करने के अधिकार को प्रतिबंधित कर दिया। हालाँकि बाद के मामलों ने 1986 अधिनियम की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी। 2001 में डैनियल लतीफ़ी बनाम भारत संघ के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने 1986 के अधिनियम द्वारा लगाई सीमाओं के बावजूद आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के तहत भरण-पोषण का दावा करने के मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों की पुष्टि की। अदालत ने माना कि 1986 का अधिनियम भेदभावपूर्ण था और मुस्लिम महिलाओं के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता था। शाह बानो मामले और उसके बाद के मामलों के फैसले लैंगिक न्याय और मुस्लिम महिलाओं के लिए समान अधिकारों के महत्व को रेखांकित करते हैं। वे इद्दत अवधि के बाद मुस्लिम महिलाओं को वित्तीय सहायता और भरण-पोषण के अधिकार को मान्यता देते हैं, जिससे तलाक के बाद उनकी आर्थिक स्थिरता और कल्याण सुनिश्चित होता है।
गोद लेने का अधिकार-
भारत में इस्लामी, ईसाई और पारसी व्यक्तिगत कानून और अन्य कानून पूर्ण रूप से गोद लेने को मान्यता नहीं देते हैं। भारत में, गैर-हिंदुओं के लिए बच्चा गोद लेने का कोई कानूनी तरीका नहीं है। इसके बजाय वे केवल 1890 के अभिभावक और वार्ड अधिनियम के तहत “संरक्षकता” लेने में सक्षम हैं। ईसाइयों और पारसियों में दत्तक विधि नहीं है और उन्हें अधिकारिक रूप से अदालत के पास जाना पड़ता है जो 1890 के अभिभावक और वार्ड अधिनियम (अब किशोर न्याय ,बच्चों की देखभाल और संरक्षण अधिनियम (2015) के तहत है। राष्ट्रीय महिला आयोग ने एकसमान दत्तक विधि की आवश्यकता व्यक्त की है। ईसाई बच्चे को तब तक ही उस अधिनियम के तहत गोद लेने का अधिकार है जब तक वह ‘ फ़ोस्टर केयर ‘ के तहत होता है। एक बार फ़ोस्टर केयर के तहत का बच्चा बड़ा हो जाए तो उसे उसके सभी संबंधों को तोड़ने का अधिकार है। ऐसे बच्चे को वैधानिक रूप से दत्तक (विरासत) अधिकार नहीं है।
भारत में इस्लामिक पर्सनल लॉ गोद लेने को मान्यता नहीं देता है। इसके बजाय, मुसलमान “कफ़ाला” नामक प्रक्रिया के माध्यम से एक बच्चे की संरक्षकता ले सकते हैं जहां वे सीमित अधिकारों और जिम्मेदारियों के साथ बच्चे के कानूनी अभिभावक बन जाते हैं। ऐसा बच्चे का उसके जैविक परिवार से जुड़ाव बनाए रखने किया जाता है। गोद लिए बच्चे को गोद लेने वाले माता-पिता से संपत्ति विरासत में नहीं मिलती है। लेकिन उसे देखभाल मिल सकती है। बच्चो को गोद लेने में मुख्य बाधा ,सम्पत्ति में विरासत के माध्यम से अधिकार का ना होना है। गोद लिये बच्चो को सम्पत्ति में अधिकार नही मिलता है।
एचयूएफ-
भारत के अधिकांश हिस्सों में हिंदू कानून की मिताक्षरा व्यवस्था अविभाजित हिन्दु परिवार यानि अनडिवाइडेड हिन्दु फॅमिली (एचयूएफ ) को मान्यता देता है। संयुक्त परिवार की संपत्ति जिसे पैतृक संपत्ति के रूप में जाना जाता है, एचयूएफ द्वारा एक सामूहिक इकाई के रूप में रखी जाती है जिसमें परिवार के पुरुष सदस्यों के पास कुछ अधिकार और जिम्मेदारियां होती हैं। एचयूएफ के माध्यम से कर बचाने की सुविधा हिन्दू समुदाय के सभी लोगो को मिली है। यह अन्य धार्मिक समुदायों को उपलब्ध नही है। यह एक ऐसा प्रावधान है जिसका बड़े व्यावसाइयों ने बहुत फायदा उठाया है और वे इसे आसानी से खत्म नहीं होने देंगे।
पूर्वोत्तर में विरासत के कानून-
पूर्वोत्तर राज्यों में विरासत के कानूनों का एक प्रमुख पहलू समुदाय-आधारित भूमि स्वामित्व की मान्यता है। इन क्षेत्रों में कई जनजातीय समुदायों में सामुदायिक भूमि स्वामित्व प्रणालियाँ हैं जहाँ भूमि का स्वामित्व व्यक्तियों के बजाय समुदाय के पास सामूहिक रूप से होता है। ऐसे मामलों में विरासत के नियम अक्सर समुदाय के रीति-रिवाजों और परंपराओं द्वारा नियंत्रित होते हैं। ये प्रथागत कानून समुदाय के सदस्यों के अधिकारों और विरासत पैटर्न को परिभाषित कर सुनिश्चित करते हैं कि भूमि समुदाय के भीतर ही रहे और खंडित न हो।पूर्वोत्तर राज्यों में विरासत के कानूनों की एक और विशेषता कुछ आदिवासी समुदायों में ज्येष्ठाधिकार के सिद्धांत की मान्यता है। ज्येष्ठाधिकार से तात्पर्य सबसे बड़े बेटे द्वारा पैतृक संपत्ति या पारिवारिक भूमि को विरासत में देने की प्रथा से है। यह प्रथा वंश के भीतर परिवार या कबीले की संपत्ति की निरंतरता और संरक्षण सुनिश्चित करती है। इसके अलावा, पूर्वोत्तर राज्यों में विरासत के कानूनों में महिलाओं के अधिकारों और संपत्ति के स्वामित्व के लिए विशिष्ट प्रावधान भी शामिल हैं। इन क्षेत्रों में कई जनजातीय समुदायों में मातृवंशीय व्यवस्था है जहां संपत्ति और विरासत का पता महिला वंश के माध्यम से लगाया जाता है। ऐसी प्रणालियों में, महिलाओं के पास संपत्ति पर महत्वपूर्ण अधिकार और नियंत्रण होता है, और विरासत मातृ वंश का अनुसरण करती है।पूर्वोत्तर राज्यों में विरासत के कानून सभी आदिवासी समुदायों या क्षेत्रों में एक समान नहीं हैं। प्रत्येक समुदाय की विरासत को नियंत्रित करने वाले अपने अलग रीति-रिवाज, प्रथाएं और परंपराएं हो सकती हैं। इन प्रथागत कानूनों को भारतीय संविधान की पांचवीं और छठी अनुसूची समेत विभिन्न कानूनी प्रावधानों द्वारा मान्यता और संरक्षित किया गया है जो आदिवासी क्षेत्रों और समुदायों के लिए विशेष सुरक्षा प्रदान करते हैं।
गोवा सिविल कोड-
भाजपा इन दिनों गोवा सिविल कोड पर असत्य दावा पेश करती है। हाल में रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने उत्तराखंड में एक जनसभा में मुख्यमंत्री को राज्य के लिए यूसीसी तैयार करने की पहल के लिए बधाई दी और कहा कि अगर गोवा में एकसमान नागरिक संहिता है तो फिर भारत के बाकी हिस्सों में क्यों नहीं? सच है कि गोवा के कुछ क्षेत्रों में एकसामान कानून लागू होता है लेकिन अन्य कई क्षेत्रों में यह अलग-थलग समुदायों के परिवारिक कानूनों का संयोजन है जो असमान हैं। उदाहरण के लिए, कैथोलिक लोगों के पास विवाह के सबूतों के संबंध में अलग नियम होते हैं और जो लोग चर्च में शादी करते हैं, उन्हें नागरिक कानून के तहत तलाक के प्रावधानों से बहिष्कृत कर दिया जाता है। जबकि मुस्लिम लोग बहुविवाहित शादियों को नहीं कर सकते हैं। कुछ परिस्थितियों में हिन्दू पुरुषों को दो शादियों की अनुमति होती है। यह गोवा सिविल कोड की अलग धारा के तहत होता है जिसे “जेंटाइल हिन्दू सामाजिक और अनुयायी रीति नियमावली” कहा जाता है। इस संहिता के प्रावधानों को अत्यधिक प्रतिगामी माना जाता है क्योंकि वे एक हिंदू पुरुष को दूसरी पत्नी से शादी करने की अनुमति देते हैं यदि उसकी पहली पत्नी 25 वर्ष की आयु से पहले बच्चे को जन्म देने में विफल रहती है या 30 वर्ष की आयु से पहले बेटे को जन्म देने में विफल रहती है। हिन्दू महिलाओ का व्यभिचार पुरुषों के लिये तलाक का आधार माना जाता है। लेकिन हिंदू पुरुषों का व्यभिचार महिलाओ के लिये तलाक का आधार नही माना जाता है। यह तलाक कानूनों में लैंगिक असमानता दर्शाता है।
गोआ के कानून में ,जिसमे मुस्लिम लोग बहुविवाह नहीं कर सकते हैं, हिंदू पुरुष को दूसरी पत्नी से शादी विवाह की अनुमति कुछ शर्तों के साथ है। पुरुषों का व्यभिचार तलाक का आधार नही है जबकि महिलाओ का व्यभिचार तलाक का अधिकार है। ऐसे प्रतिगामी प्रावधानो के रहते उसे समान नागरिक संहिता कहना निहायत गलत है। इसे वास्तव में सिर्फ हिन्दू नागरिक संहिता कहा जा सकता है।
एकरूपता और समानता अलग अवधारणाएँ हैं जिन्हें एक नहीं माना जाना चाहिए। एकरूपता का अर्थ एकसमान और समानता का अर्थ निष्पक्षता, न्याय और भेदभाव विहीन बराबरी है। यूसीसी में एकरूपता का उद्देश्य विभिन्न धार्मिक समुदायों में व्यक्तिगत कानूनों में एकरूपता लाना हो सकता है। लेकिन यह समानता की गारंटी नहीं देता है। असमानता कायम रखने वाले व्यक्तिगत कानून अक्सर पितृसत्तात्मक संबंधों को मजबूत करते हैं जिससे हाशिए के समूहों का उत्पीड़न और शोषण होता है। वे वर्गीय और पूंजीवादी ढांचे के भीतर सिर्फ कानूनी सुधार की वकालत करते हैं। वामपंथी विचारों में राज्य, शासक वर्ग का उपकरण है जो बुर्जुआ हितों की सेवा करने वाले व्यक्तिगत कानूनों को बनाए रखने और लागू करने के लिए जिम्मेदार है।
विवाह के विभिन्न रूपो, विरासत, लैंगिक असमानता आदि की उतपत्ति के ऐतिहासिक जांच-पड़ताल के आधार पर निष्कर्ष निकलता है कि हर समुदाय के पर्सनल कानून में निजी संपत्ति के विकास के साथ बदलाव आए है। कई पूंजीवादी देशों में यूसीसी लागू हुए भी है तो लैंगिक असमानता पूरी तरह खत्म नही हो पाया है।
कार्ल मार्क्स के अनन्य मित्र फ्रेडरिक एंगेल्स ने अपनी पुस्तक “परिवार की उत्पत्ति, निजी संपत्ति और राज्य” में परिवार के विकास के विभिन्न चरणों में निजी संपत्ति की संस्था द्वारा विवाह के विभिन्न रूपों, तलाक, विवाह करने वाले साथी की सहमति, विरासत, लैंगिक असमानता, रक्त संबंध के बीच विवाह आदि के ऊपर प्रभाव और आकार की व्याख्या की है। उनके मुताबिक प्रारंभिक मानव समाज के शुरुआती चरणों में आदिम साम्यवाद की स्थिति थी जहां निजी संपत्ति मौजूद नहीं थी। विवाह संभवतः सामूहिक प्रकृति के थे और विरासत या संपत्ति के स्वामित्व के बारे में बहुत कम चिंता थी। विवाह के लिए सहमति अनौपचारिक हो सकती है जिसमें जोड़े आपसी आकर्षण और सामाजिक विचारों के आधार पर मिलन बनाते हैं। निजी संपत्ति का होना जब उत्पादन की कृषि पद्धति में परिवर्तित हुआ एक-पत्नी विवाह ने आकार लेना शुरू कर दिया। एकांगी परिवार का स्वरूप परिवार के भीतर निजी संपत्ति की विरासत सुनिश्चित करने का एक साधन था। निजी संपत्ति के उदय के साथ उत्तराधिकारियों के रूप में बच्चों के अधिकारों को वैध बनाने के लिए विवाह कानूनी रूप से मान्यता प्राप्त संस्था बन गया। विवाह और तलाक पर प्रभाव: निजी संपत्ति की संस्था ने विवाह और तलाक के आसपास के मानदंडों को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। संपत्ति, धन और सामाजिक स्थिति को बनाए रखने के लिए विवाह की व्यवस्था तेजी से की जाने लगी। तलाक अधिक कठिन होता गया, विशेषकर महिलाओं के लिए, क्योंकि वे आर्थिक रूप से अपने पतियों पर निर्भर थीं। महिलाओं की आर्थिक असुरक्षा के कारण उनके लिए तलाक लेना कठिन होता गया, जिससे परिवार के भीतर लैंगिक असमानता पैदा हो गई। विरासत और रक्त संबंध: निजी संपत्ति ने विरासत प्रथाओं को प्रभावित किया, जिसमें धन और संपत्ति एकपत्नी परिवार संरचना के भीतर वैध उत्तराधिकारियों को हस्तांतरित हो जाती है। निजी संपत्ति के उद्भव के कारण संपत्ति के बिखराव को रोकने के लिए रक्त संबंधों के बीच विवाह पर भी प्रतिबंध लगा दिया गया। रिश्तेदारी और पारिवारिक संबंधों को परिभाषित करने में संपत्ति के नियंत्रण ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।निजी संपत्ति के उदय से परिवार के भीतर पुरुष प्रभुत्व की स्थापना हुई। जैसे-जैसे संपत्ति और धन सत्ता का आधार बन गए, पुरुषों ने संसाधनों और सामाजिक संस्थानों पर नियंत्रण हासिल कर लिया। इसके परिणामस्वरूप पितृसत्तात्मक पारिवारिक संरचनाओं का विकास हुआ, जिसमें पुरुष प्राथमिक निर्णय लेने वाले थे और महिलाएं घर के भीतर अधीनस्थ थीं। इस तरह पारिवारिक संरचनाओं, विवाह प्रथाओं, लिंग भूमिकाओं और विरासत पैटर्न का विकास मानव समाज में निजी संपत्ति के उद्भव और विकास से काफी प्रभावित हुआ था। आदिम साम्यवाद से वर्ग समाज में संक्रमण ने पारिवारिक जीवन की गतिशीलता को चिह्नित किया, क्योंकि संपत्ति का स्वामित्व सामाजिक संगठन का केंद्र बन गया।
लैंगिक असमानता-
एंगेल्स ने अपनी पुस्तक में परिवार के विकास के विभिन्न चरणों में लैंगिक असमानता को बढ़ावा देने में निजी संपत्ति की संस्था की भूमिका का वर्णन किया है। निजी संपत्ति के उदय से पारिवारिक संरचना में परिवर्तन हुए जिससे महिलाओं की अधीनता और पितृसत्तात्मक मानदंडों की स्थापना हुई। आदिम समाज में, संपत्ति का स्वामित्व और साझाकरण सामूहिक रूप से होता था और वहां अपेक्षाकृत अधिक लैंगिक समानता थी।निजी संपत्ति के उदय से व्यक्तियों ने धन और संपत्ति को अपने वैध उत्तराधिकारियों को सौंपने की मांग की जिससे पितृत्व सुनिश्चित करने पत्नियों पर एकनिष्ठता थोपी गयी। एकपत्नी विवाह निजी संपत्ति की विरासत का तरीका बन गया। उत्तराधिकारियों को निर्धारित करने और संपत्ति के अधिकार बनाए रखने के लिए महिलाओं की ‘ शुद्धता ‘ और निष्ठा महत्वपूर्ण हो गई। पारिवारिक संरचना एक-पत्नीत्व में बदल गई और महिलाओं की भूमिकाएँ घरेलू क्षेत्र तक सीमित हो गईं। निजी संपत्ति के उदय से महिलाओं ने अपनी आर्थिक स्वतंत्रता खो दी और आर्थिक रूप से अपने पतियों पर निर्भर हो गईं। इसने पारंपरिक लिंग भूमिकाओं को मजबूत किया, जहां महिलाएं घरेलू कर्तव्यों और बच्चों के पालन-पोषण तक ही सीमित थीं जबकि पुरुष आर्थिक और सार्वजनिक मामलों को नियंत्रित करते थे। महिलाओं की इस आर्थिक अधीनता ने समाज में उनकी स्थिति कमजोर की। निजी संपत्ति के कारण पितृसत्तात्मक परिवार का उदय हुआ। पुरुषों ने परिवार के भीतर प्रमुख स्थान ग्रहण किया, संसाधनों और निर्णय लेने पर नियंत्रण रखा। महिलाओं की भूमिका देखभाल करने वालों और गृह प्रबंधकों की हो गई, जिससे सार्वजनिक जीवन में वे हाशिए पर चली गईं। निजी संपत्ति की स्थापना ने कानूनों और रीति-रिवाजों के विकास को भी प्रभावित किया जिसने लैंगिक असमानता को कायम रखा। महिलाओं की अधीनता को सुदृढ़ करने के लिए कानूनी और सांस्कृतिक मानदंडों को आकार दिया गया, जिसमें तलाक और संपत्ति के स्वामित्व जैसे उनके अधिकारों पर प्रतिबंध भी शामिल थे। निजी संपत्ति के उन्मूलन या उत्पादन के साधनों के सामूहिक स्वामित्व स्थापित होने और वर्ग भेद उन्मूलन के साथ लैंगिक असमानता का आधार कमजोर हो जाएगा। जिस समाज में निजी संपत्ति को समाप्त कर दिया जाएगा और आर्थिक उत्पादन को सामूहिक रूप से व्यवस्थित किया जाएगा वहां महिलाओं की पुरुषों पर आर्थिक निर्भरता कम हो जाएगी। इससे महिलाओं को उनकी पारंपरिक भूमिकाओं से मुक्ति का मार्ग प्रशस्त हो सकता है और एक अधिक न्यायसंगत समाज में योगदान मिल सकता है जहां लैंगिक असमानता काफी कम हो जाएगी। फ्रेडरिक एंगेल्स ने निजी संपत्ति के उन्मूलन के बाद परिवार की संरचना और गतिशीलता में आमूल-चूल परिवर्तन की बात की है। महिलाओं की अधीनता की विशेषता वाली एकविवाही, पितृसत्तात्मक पारिवारिक संरचना धीरे-धीरे पारिवारिक संगठन के एक नए रूप को जन्म देगी जो आर्थिक शोषण और लैंगिक उत्पीड़न से मुक्त होगी। निजी संपत्ति के उन्मूलन से परिवार के भीतर व्यक्तियों की एक-दूसरे पर आर्थिक निर्भरता दूर हो जाएगी।महिलाओं की पुरुषों के अधीनता का आर्थिक आधार ख़त्म हो जाएगा, जिससे लैंगिक समानता बढ़ेगी। निजी संपत्ति के बिना एक समाज में उत्पादन के साधन और संसाधन समान होंगे जिससे उन आर्थिक असमानताओं को दूर किया जाएगा जो ऐतिहासिक रूप से परिवारों के भीतर शक्ति असंतुलन को रेखांकित करती हैं।
इसके अलावा सामुदायिक बाल-पालन और देखभाल की व्यवस्था होगी जहां बच्चों की देखभाल और घरेलू काम की जिम्मेदारियां केवल व्यक्तिगत परिवारों का बोझ होने के बजाय सामूहिक रूप से साझा की जाएंगी। यह महिलाओं को गृहिणी और देखभाल करने वाली के रूप में उनकी पारंपरिक भूमिकाओं से मुक्त करेगा और उन्हें सामाजिक और आर्थिक जीवन के सभी पहलुओं में पूरी तरह से भाग लेने की अनुमति देगा। समाजवादी व्यवस्था में परिवार, एक संस्था के रूप में, अपना पारंपरिक स्वरूप खो देगा और आपसी प्रेम, साहचर्य और सहयोग पर आधारित एक अधिक स्वैच्छिक और स्नेही जोड़े में बदल जाएगा। आर्थिक शोषण और उत्पीड़न की अनुपस्थिति के साथ, परिवार के भीतर व्यक्तिगत रिश्ते वर्ग भेद और पितृसत्तात्मक प्रभुत्व की बाधाओं से मुक्त हो जाएंगे।
यदि मुसलमान औरतों के प्रति भाजपा का कोई सरोकार होता तो उसके नेता मुसलमान स्त्रियों को कब्र से निकालकर उनके बलात्कार का आह्वान मंचों से न करते, गुजरात के दंगों में मुसलमान औरतों का सामूहिक बलात्कार, गर्भ चीरकर भ्रूण निकालने जैसी वीभत्स और बर्बर घटनाएँ आरएसएस और भाजपा के गुण्डों द्वारा न अंजाम दी जातीं। अगर उन्हें मुसलमान औरतों के प्रति न्याय को लेकर इतना दर्द उमड़ रहा होता तो बिलकिस बानो के बलात्कारियों और उसके बच्चे और परिवार के हत्यारों को भाजपा सरकार बरी न करती, न ही माया कोडनानी और बाबू बजरंगी जैसे लोग बरी होते या उन्हें पैरोल मिलती। साफ़ है कि मुसलमान औरतों के प्रति चिन्ता का हवाला देकर भाजपा यूसीससी को मुसलमान आबादी पर थोपना चाहती है और असल में वह यूसीसी के नाम पर हिन्दू पर्सनल लॉ को ही मुसलमान आबादी पर थोपना चाहती है, जो कि उनकी धार्मिकऔर निजी आज़ादी का हनन होगा और इस प्रकार साम्प्रदायिक तनाव और ध्रुवीकरण को बढ़ाने का जरिया होगा।
मोदी सरकार ने यूसीसी का कोई मसौदा पेश नहीं किया। इसका इस्तेमाल केवल साम्प्रदायिक तनाव फैलाने के लिए किया जा रहा है। मोदी सरकार ने स्पष्ट ही नहीं किया है कि इसके आने पर सभी पर्सनल लॉ समाप्त होंगे या नहीं, यह यूसीसी कहीं हिन्दू पर्सनल लॉ का ही एक संस्करण तो नहीं होगी, क्या इसमें सम्पत्ति के उत्तराधिकार को पूर्ण रूप से स्त्री-पुरुष समानता पर आधारित बना दिया जायेगा, क्या इसमें विवाह और तलाक से जुड़े कानूनों में पूर्ण स्वतन्त्रता के साथ अलग होने की व्यवस्था की जायेगी जो फिलहाल हिन्दू पर्सनल लॉ में मौजूद नहीं है? इन सभी प्रश्नों पर मोदी सरकार कुछ बोल भी नहीं रही है। यदि कोई यूसीसी समानतामूलक रूप में लायी भी जाती है, तो उसे किसी भी नागरिक पर जबरन थोपा नहीं जा सकता है। मिसाल के तौर पर, यदि कोई दो नागरिक अपनी स्वेच्छा से अपने धर्म या समुदाय के पारम्परिक नियम-कायदों के अनुसार शादी करना चाहते हैं या तलाक लेना चाहते हैं, तो इसमें राज्यसत्ता कोई हस्तक्षेप तब तक नहीं कर सकती है जब तक कि इन दोनों में से कोई एक नागरिक कानूनी तौर पर हस्तक्षेप के लिए राज्यसत्ता के पास जाये।कोई भी जनवादी राज्यसत्ता किसी भी धार्मिक पर्सनल लॉ को कोई मान्यता नहीं दे सकती है। उसके लिए केवल एक ही नागरिक संहिता हो सकती है।
इसलिए कोई भी लोकतांत्रिक जनवादी और सेक्युलर सरकार हर प्रकार के धार्मिक पर्सनल लॉ की कानूनी मान्यता को समाप्त कर देगी। इसका अर्थ यह नहीं है कि कोई समुदाय अपने समुदाय की पारम्परिक या धार्मिक कानूनी प्रथा के अनुसार विवाह नहीं कर सकता या तलाक नहीं ले सकता। यह उस नागरिक की आज़ादी होगी। लेकिन यदि कोई भी ऐसा नागरिक किसी विवाद के निपटारे के लिए राज्यसत्ता के पास आता है तो वह न्याय किसी धार्मिक पर्सनल लॉ के तहत नहीं किया जायेगा, बल्कि वह समान नागरिक संहिता के तहत किया जायेगा, चाहे वह मसला विवाह का हो, तलाक का हो या फिर सम्पत्ति से जुड़ा हुआ हो। यदि किसी को समान नागरिक संहिता के तहत न्याय नहीं चाहिए तो वह अपने धर्म की संस्थाओं या धर्म-गुरुओं के पास जाए। यूसीसी होनी चाहिए जो कि सही मायने में सेक्युलर और जनवादी हो , जो स्त्री-पुरुष समानता पर आधारित हो। पितृसत्तात्मक , जातिवादी और साम्प्रदायिक भाजपा से ऐसी समान नागरिक संहिता की उम्मीद नहीं की जा सकती है।यूसीसी लागू होने के साथ ही सारे धार्मिक पर्सनल लॉ कानूनी मान्यता खो देंगे। यदि दो नागरिक स्वेच्छा से अपने धर्म या समुदाय के पारम्परिक कानूनों के तहत अपने निजी मसलों को चलाना चाहते हैं, तो राज्यसत्ता उसमें कोई दख़लन्दाज़ी करेगी। ऐसी दख़लन्दाज़ी तभी हो सकती है जब किसी धार्मिक प्रथा के आधार पर कोई सामाजिक उत्पीड़न या हत्या करता है, मसलन, सती प्रथा पर कोई यह हवाला देकर अमल नहीं कर सकता है कि उसकी प्राचीन धार्मिक परम्पराओं का यह अंग है। इसके अलावा, जातिगत मसले पर्सनल या निजी नहीं बल्कि सामाजिक मसले हैं और जातिगत भेदभाव किसी भी रूप में दण्डनीय अपराध होना चाहिए और कोई भी अपने धर्म का हवाला देकर इन पर अमल नहीं कर सकता है। अस्पृश्यता को हमारे देश का कानून अवैध ठहराता है लेकिन जाति आधारित विवाह करने के लिए विज्ञापन देने, अपने जातिगत दम्भ का खुलेआम प्रदर्शन करने आदि के अन्य रूपों को रोकने का कोई रास्ता भारत के कानून में नहीं है। बहरहाल, जाति का प्रश्न वैसे भी व्यक्तिगत कानून के दायरे में आता ही नहीं है और उसके दायरे में मुख्यत: विवाह, तलाक, और उत्तराधिकार सम्बन्धी कानून आते हैं। ऐसे में, यदि दो नागरिक अपनी इच्छा से अपने धार्मिक पारम्परिक कानून का पालन करना चाहते हैं, तो उन्हें ऐसा करने से कोई राज्यसत्ता रोक नहीं सकती है। लेकिन उन दोनों में से कोई भी नागरिक विवाह, तलाक या उत्तराधिकार के मसले में अपने प्रति हुई नाइंसाफ़ी के जवाब में न्याय के लिए न्यायपालिका के पास आता है, तो वह इसका निपटारा किसी धार्मिक कानून या परम्परा के आधार पर नहीं, बल्कि समान नागरिक संहिता के आधार पर ही करेगी क्योंकि ऐसे धार्मिक कानूनों को एक जनवादी सेक्युलर राज्यसत्ता की न्यायपालिका कोई मान्यता ही नहीं देती है।
कयास लगाये जा रहे हैं कि कुछ धार्मिक समुदायों को यूसीसी से छूट दे दी जायेगी। अर्थ यह है कि यह यूसीसी मुसलमान आबादी पर ही थोपने के लिए है। मुसलमान कट्टरपंथी धार्मिक गुरू और संस्थाएँ आम तौर पर यूसीसी का विरोध करती हैं और अपने पितृसत्तात्मक मूल्यों से संचालित होकर मुस्लिम पर्सनल लॉ में किसी भी प्रकार के सुधार को रोकना चाहती हैं। मुस्लिम समाज के भीतर से कई लोग एक लोकतांत्रिक यूसीसी की माँग करते हैं और साथ ही कई मुस्लिम पर्सनल लॉ में बड़े सुधार करके उसे स्त्रियों के प्रति समानतापूर्ण बनाने की माँग उठाते हैं। ऐसे मुसलमानों ने मोदी सरकार की मंशा पर सन्देह कर और स्पष्ट किया है कि मोदी सरकार यूसीसी के नाम पर हिन्दू पर्सनल लॉ को केवल मुसलमानों के ऊपर थोपने का षड्यन्त्र कर रही है, ताकि साम्प्रदायिक तनाव को भड़काया जा सके। वैसे भी यदि एक भी समुदाय को यूसीसी को न मानने की छूट देने के लिए भाजपा की मोदी सरकार तैयार है, तो सब पर बाध्यताकारी तौर पर लागू होने वाली जिस यूसीसी की भाजपा बात कर रही है, वह तो रही ही नहीं! फिर तो वह सिर्फ मुसलमान आबादी पर यूसीसी को जबरन थोपकर साम्प्रदायिक तनाव को भड़काने का जरिया हो गया। भाजपा जो यूसीसी लायेगी उसमें हिन्दू अविभाजित परिवार जैसे प्रावधानों को समाप्त नहीं किया जायेगा जिसके ज़रिये धनी हिन्दू सम्पत्तिशाली तबके हज़ारों करोड़ रुपये टैक्स में बचाते हैं। भाजपा इसी मंशा से यूसीसी को उछाल रही है, कि साम्प्रदायिक तनाव को बढ़ाया जा सके और 2024 के लोकसभा चुनावों में इस तनाव का फ़ायदा उठाकर सत्ता में पहुँचा जा सके।
भाजपा के पास 10 साल के अपने काम के आधार पर वोट माँगने के लिए ठोस कुछ नहीं है, इसलिए वह बस तीन काम कर रही है: पहला, पूँजीवादी संसद के भीतर मौजूद विपक्ष को डरा–धमकाकर तोड़ना ताकि उसके खिलाफ़ विपक्ष साझे उम्मीदवारों को न उतार सके; दूसरा, देश में साम्प्रदायिक तनाव की ज्वाला को लव जिहाद, गोरक्षा और यूसीसी के नाम पर भड़काते रहना, और तीसरा, पाकिस्तान और चीन के नाम पर अन्धराष्ट्रवाद की हवा बनाये रखना ताकि कुछ भी काम न आये, तो कोई नया पुलवामा काम आ जाये।
गौरतलब है कि मोदी सरकार ने कुछ अरसा पहले एक राष्ट्र एक चुनाव का मुद्दा भी उछाल था जो भारी अवामी विरोध के परिणामस्वरूप बाद में टाँय टाँय फिसस हो गया। हमने पिछले अंकों मे इसकी विस्तार से चर्चा की थी। आशा है कि यूसीसी का मुद्दा भी देर सबेर टाँय टाँय फिसस हो जाएगा।
• लेखक स्वतंत्र पत्रकार और पुस्तक लेखक है।