अमृता प्रीतम (1919-2005) पंजाबी की सबसे लोकप्रिय लेखकों में से एक थी। पंजाब के गुजराँवाला, जो अब पाकिस्तान मे है, में पैदा हुईं अमृता प्रीतम को पंजाबी भाषा की पहली कवयित्री माना जाता है। उन्होंने कुल मिलाकर लगभग 100 पुस्तकें लिखी हैं जिनमें उनकी चर्चित आत्मकथा ‘रसीदी टिकट’ भी शामिल है। अमृता प्रीतम उन साहित्यकारों में थीं जिनकी कृतियों का अनेक भाषाओं में अनुवाद हुआ। अपने अंतिम दिनों में अमृता प्रीतम को भारत का दूसरा सबसे बड़ा सम्मान पद्मविभूषण भी प्राप्त हुआ। उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार से पहले ही अलंकृत किया जा चुका था।
अमृता प्रीतम का बचपन लाहौर में बीता और उनकी शिक्षा भी वहीं हुई। उन्होंने किशोरावस्था से ही, लिखना शुरू कर दिया था। 1957 में साहित्य अकादमी पुरस्कार, 1958 में पंजाब सरकार के भाषा विभाग द्वारा पुरस्कृत, 1988 में बल्गारिया वैरोव अंतराष्ट्रीय पुरस्कार; और 1982 में भारत के सर्वोच्च साहित्त्यिक पुरस्कार माने जाने वाले, ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया। उन्हें अपनी पंजाबी कविता ‘अज्ज आखाँ वारिस शाह नूँ’ के लिए बहुत प्रसिद्धी प्राप्त हुई। इस कविता में भारत विभाजन के समय पंजाब में हुई भयानक घटनाओं का अत्यंत दुखद वर्णन है और यह भारत और पाकिस्तान दोनों देशों में सराही गयी।
किसी ने सही कहा है कि प्रेम को सरहदों, मज़हबों और वक्त के दायरे में नहीं बांधा जा सकता है। अमृता का इश्क़ भी ऐसा ही था। जब अमृता के नन्हें हाथों में कलम थामा तो कौन जानता था कि एक दिन यही अमृता प्रीतम खुद ‘इश्क’ की परिभाषा बन जाएंगी। किसी ने अमृता को लेकर एक बार कहा था कि लोग कविता लिखते हैं और जिंदगी जीते हैं लेकिन अमृता जिंदगी लिखती थीं और कविता जीती थीं।
इश्क़ लिखने वाली अमृता को भी किसी से इश्क़ हुआ और किसी और को भी अमृता से इश्क़ हुआ लेकिन इश्क़ के इतने पास होते हुए भी अमृता ताउम्र उसके लिए तरसती रहीं। अमृता ने साहिर से प्यार किया और इमरोज ने अमृता से और फिर इन तीनों ने मिलकर इश्क की वह दास्तां लिखी जो अधूरी होते हुए भी पूरी थी।
उनकी एक कविता पढ़ें,
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शायद तेरे कल्पनाओं
की प्रेरणा बन
तेरे केनवास पर उतरुँगी
या तेरे केनवास पर
एक रहस्यमयी लकीर बन
ख़ामोश तुझे देखती रहूँगी
मैं तुझे फिर मिलूँगी
कहाँ कैसे पता नहीं
या सूरज की लौ बन कर
तेरे रंगो में घुलती रहूँगी
या रंगो की बाँहों में बैठ कर
तेरे केनवास पर बिछ जाऊँगी
पता नहीं कहाँ किस तरह
पर तुझे ज़रुर मिलूँगी
या फिर एक चश्मा बनी
जैसे झरने से पानी उड़ता है
मैं पानी की बूंदें
तेरे बदन पर मलूँगी
और एक शीतल अहसास बन कर
तेरे सीने से लगूँगी
मैं और तो कुछ नहीं जानती
पर इतना जानती हूँ
कि वक्त जो भी करेगा
यह जनम मेरे साथ चलेगा
यह जिस्म ख़त्म होता है
तो सब कुछ ख़त्म हो जाता है
पर यादों के धागे
कायनात के लम्हें की तरह होते हैं
मैं उन लम्हों को चुनूँगी
उन धागों को समेट लूंगी
मैं तुझे फिर मिलूँगी
कहाँ कैसे पता नहीं
मैं तुझे फिर मिलूँगी