उत्तर-प्रदेश विधानसभा चुनाव की तैयारी के लिए पिछले कुछ दिनों में प्रधानमंत्री और भारतीय जनता पार्टी के इहलोक में तारणहार नरेंद्र मोदी, चुनावी चाणक्यगिरी में माहिर केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह,पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी, उनकी बड़ी बहन प्रियंका गांधी वढेरा समेत लगभग सभी बाहरी सियासी दिग्गज के कार्यक्रम आगे बढ़ रहे हैं। मोदी जी 16 नवम्बर को पूर्वांचल एक्सप्रेस वे का उद्घाटन करने सुल्तानपुर आये। उनके फरमान से इस एक्सप्रेस वे पर युद्धक विमान उतारने का करतब दिखाया गया। बेजान सड़क के उद्घाटन को विकास के बाप युद्धोन्माद में बदलने का माहौल बना दिया गया। संकेत साफ थे पाकिस्तान विरोधी युद्धोन्माद 16 करोड़ लोगों की आबादी के यूपी में पैदा करना है। पाकिस्तान के बहाने इस सूबा में मुस्लिम विरोध का साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण तेज करना है। यूपी एक खतरनाक सियासी खेल में फंस गया है। भाजपा विरोधी सभी सियासी पार्टियां भी चुनावी मैदान अपने हिसाब से चाक चौबंद करने में लग गई हैं। समाजवादी पार्टी के नेता एवं पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश सिंह यादव रैली पर रैली किये जा रहे हैं।
16 नवंबर को ग़ाज़ीपुर में उनकी विजय रथयात्रा रैली थी। उस पर आजमगढ़ में रोक लगाने की भनक मिलने पर आयोजकों को उसका शेड्यूल बदलने पर अनुमति मिल गई। किसान आंदोलन के तहत 22 नवम्बर को लखनऊ में विशाल महापंचायत हुई जिसमें इस आंदोलन में 700 से अधिक किसानों की मौत की जिम्मेवार भाजपा सरकार को हटाने का नवसंकल्प घोषित कर दिया गया। 14 नवम्बर को लखीमपुर से लगे पीलीभीत के पूरनपुर में संयुक्त किसान मोर्चा ने विशाल सभा करके मोदी सरकार के भाजपाई मंत्री के पुत्र के वाहन से कुचल मार डाले गए किसानों को न्याय और उनके परिजनों को 10-10 लाख रुपये मुआवजा दिलाने के समझौते को लेकर यूपी की योगी आदित्यनाथ सरकार पर वादाखिलाफी का आरोप लगाया।
भाजपा के ख़िलाफ़ माहौल में पिछले कुछ माह से अग्नि में घी डालने में लगी प्रियंका गाँधी ने 14 नवम्बर को बुलन्दशहर रैली में कांग्रेस के ये चुनाव अपने बूते पर ही लड़ने का साफ एलान कर दिया। अखिलेश यादव पहले ही कह चुके हैं कि इस बार सपा किसी भी बड़े दल से चुनावी गठबंधन नहीं करेगी। पूर्व मुख्यमंत्री और बहुजन समाज पार्टी की सर्वेसर्वा मायावती भी एकला चलो का मन बना चुकी है। इन तीनों प्रमुख विपक्षी दल के अलग-अलग चुनाव लड़ेने का क्या असर होगा यह अभी साफ नहीं है। कठिन अवश्य है पर ये असंभव नहीं कि इसी बरस मई में बंगाल चुनाव की तरह यूपी में भाजपा विरोधी वोटरों की अवामी मोर्चाबंदी हो जाए। वैसे ,किसी भी चुनाव में शामिक दलों में गठबंधन या तालमेल न भी हो तो उनके बीच खास तरह के एडजस्टमेंट की गुंजाइश रहती है।
सर्वे क्या कहता है-
हिन्दुस्तानी मीडिया में एबीपी न्यूज-सी वोटर के हालिया प्रि-पोल सर्वे की खबर फैली जिसे कुछ टीकाकार भाजपा के लिए खतरे की घण्टी मानते हैं। सर्वे में भाजपा की सीटों में बड़ी गिरावट और सपा समर्थन में उछाल की बात कह ये आँकलंन है कि भाजपा की सीटें बहुमत से बहुत नीचे सिर्फ 100 सीटों की सीमारेखा के भीतर ही रहेंगी। सर्वे में अयोध्या में मंदिर निर्माण को 14 फीसद लोगों ने ही बड़ा मुद्दा माना और 30 फीसद की नजर में कानून-व्यवस्था अहम मसाला है। 47 फीसद ने महंगाई, 15 प्रतिशत ने बेरोजगारी और 17 फीसद ने किसान आंदोलन को बड़ा मुद्दा माना। ये तीनों मुद्दे भाजपा के खिलाफ हैं।
पिछले चुनावों में मोदी जी ने रोजगार बढ़ाने के लिए मेक इन इंडिया,स्किल इंडिया आदि के जुमले बोल कर यूपी को उनके गृह राज्य गुजरात की भांति मैनुफैक्चरिंग हब बना देने के सब्ज बाग दिखाए थे। मोदी जी रैलियों में भाड़े पर जुटाए गए बेरोजगार युवा ये सब सुन कर मोदी ,मोदी , मोदी …के उन्मादी कोरस गुंजन करते थे।
हकीकत ये है कि इलाहाबाद में युवाओं ने 15 और 16 नवम्बर को नौकरियों की मांग और शिक्षक भर्ती के लिए प्रदर्शन कर 2 दिसम्बर को लखनऊ मार्च का आह्वान किया है।
महंगाई से खासकर गरीबों और महिलाओं में भारी नाराजगी है। सर्वे में 30 फीसद लोग सुरक्षा और कानून-व्यवस्था को सबसे बड़ा मुद्दा मानते हैं। यूपी में लड़कियों, महिलाओं के साथ बलात्कार और निर्दोष लोगों की हत्या के वारदात बढ़ते ही जा रहे हैं। अपराधियों के हौसले बुलंद हैं।
सी-वोटर के दिसंबर 2018 के सर्वे के मुताबिक चुनाव में भाजपा को 36 और सपा– बसपा महागठबंधन को 42 सीटें मिलने का अनुमान था। सर्वे के मुताबिक भाजपा से 3 फीसद भी वोट छिटका तो उसे सिर्फ 17 सीट मिल सकेगी। वोट पांच प्रतिशत छिटके तो भाजपा का सूपड़ा साफ होने का पूर्वानुमान लगा। 2014 के आम चुनाव में भाजपा को 43.3 प्रतिशत मत मिले थे। ये वोट अलग-अलग चुनाव लड़ने वाले सपा, बसपा और रालोद के कुल मिलाकर हासिल वोट शेयर 43.1 फीसद से कुछ ही ज्यादा थे। वोट शेयर में ज्यादा अंतर नहीं होने पर भी भाजपा के ज्यादा सीटें जीतने का कारण गैर-भाजपा दलों के वोटों का उम्मीदवारों के बीच चौतरफा बँटवारा था।
ये बात कुछ बाद में गोरखपुर, फुलपुर और कैराना उपचुनाव में बिल्कुल साफ हो गई। भाजपा विरोधी वोट का बँटवारा कम होने से फुलपुर उपचुनाव में सपा को 47 फीसद वोट मिल गए। भाजपा का वोट शेयर 2014 के 52.4 फीसद से घट 38.8 फीसद रह गया।
गोरखपुर उपचुनाव में सपा की जीत में बसपा और निषाद पार्टी के समर्थन का भी हाथ था। उस उपचुनाव में परास्त हुई कांग्रेस का वोट शेयर 2 प्रतिशत ही था। कैराना में रालोद को 51.3 फीसद और भाजपा को 46.5 प्रतिशत वोट मिले. गैर-भाजपा दलों के वोट का बँटवारा होने से 2017 के विधान सभा चुनाव में अन्य दलों के सकल 45.6 फीसद वोट की तुलना में भाजपा गठबंधन को कुछ कम 41.4 प्रतिशत ही वोट मिलने के बावजूद उसको 312 सीटें मिल गईं। विधानसभा चुनाव में सपा और कांग्रेस का गठबंधन था।
बैकग्राउंड को जानना जरूरी है-
27 जुलाई को लोकसभा में केंद्रीय गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय ने राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के आंकड़ों के हवाले से बताया हिरासत में मौत के मामलों में उत्तर प्रदेश भारत के राज्यों में पहले नंबर पर है। प्रदेश में पिछले तीन बरस में 1,318 लोगों की पुलिस और न्यायिक हिरासत में मौत हुई। इनमें अधिकतर कमजोर तबकों के लोग और मुसलमान हैं।
कुछ टीकाकारों के मुताबिक शहरी मध्य वर्ग का योगी सरकार के पाँच बरस के कामकाज और आये दिन की आपराधिक घटनाओं के कारण भाजपा से मोहभंग हो गया है। लेकिन भाजपा समर्थकों को लगता है मोदी जी के चुनावी तरकस में बहुत तीर हैं। चुनाव होने में कुछ समय बचा है और मोदी जी स्थिति संभाल सकते हैं।
सरकारी नौकरियों और शिक्षा में ‘ ऊंची जातियों ‘ को आर्थिक आधार पर 10 फीसद आरक्षण देने के लिए मोदी सरकार द्वारा संसद में पारित संविधान संशोधन अधिनियम से भाजपा के सवर्ण जाति समर्थकों को बड़ी आशाएं बंधी। उसके चुनावी असर का निश्चित आंकलन नहीं किया जा सका । मोदी जी , भाजपा की सरकार होने के बाबजूद गोरखपुर, फूलपुर और कैराना लोकसभा सीट पर उपचुनाव में
उनकी पार्टी के हार जाने के दूरगामी खतरे से अवगत थे। भाजपा ने पिछले आम चुनाव में ये तीनों सीटें जीती थीं। गोरखपुर मुख्यमंत्री योगी जी का बरसों से गढ़ रहा है.
गठबंधन का इतिहास
यूपी में सियासी दलों के बीच चुनावी गठबंधन का इतिहास गड्डमड्ड है। भारत को 15 अगस्त 1947 के दिन हासिल राजनीतिक आजादी के बाद से बरसों तक यूपी की हुकूमत में कांग्रेस का बोलबाला रहा। 1960 के दशक में कांग्रेस की हालत खराब हुई। संयुक्त विधायक दल की मिली-जुली सरकारों का दौर चला। इस दौर में ऐसी सरकार भी बनी जिसमें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की तत्कालीन राजनीतिक पार्टी , जनसंघ की तरफ से कल्याण सिंह (अब दिवंगत) ही नहीं बल्कि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) तक के विधायक गलबहियाँ डाल मंत्री बने।
इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री काल में 1975 में लागू इमरजेंसी के बाद 1977 के लोकसभा चुनाव में लोकनायक जयप्रकाश नारायण के सुझाव पर जो जनता पार्टी बनी उसके प्रत्याशी वो चुनाव यूपी में ही पंजीकृत भारतीय लोक दल (भालोद) को निर्वाचन आयोग द्वारा आवंटित चुनाव चिन्ह हलधर किसान पर लड़े थे।भालोद, यूपी के कद्दावर किसान नेता चौधरी चरण सिंह की पार्टी थी जो बाद में कुछ माह के लिए प्रधानमंत्री भी बने। जनता पार्टी का कुछ ही बरस में विखंडन हो गया। 1989 के लोकसभा चुनाव के ऐन पहले उसका जनता दल नाम से फिर से एकीकरण होने पर पहले अध्यक्ष चौधरी चरण सिंह के पुत्र चौधरी अजित सिंह ही बने। उन्होंने बाद में राष्ट्रीय लोक दल (रालोद) नाम से नई पार्टी बना ली जिसे अब उनके पुत्र जयंत सिंह संभालते हैं।
सपा बसपा गठबंधन
1993 के विधान सभा चुनाव में सपा और बसपा के बीच पहला गठबंधन हुआ। ये गठबंधन उत्तर प्रदेश में भाजपा शासन में अयोध्या में 06 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद ध्वस्त कर देने से पैदा हालात में तब हुआ जब कांशीराम जीवित थे और उनकी पार्टी में मायावती का वर्चस्व नहीं था। उस चुनाव में भाजपा की शिकस्त का एकमेव कारण सपा-बसपा गठबंधन था जो नया राजनीतिक प्रयोग था। उसकी जीत की कल्पना बहुतेरे दिग्गज नेताओं को भी नहीं थी. दोनों दलों की राज्य में सपा नेता मुलायम सिंह यादव के मुख्यमंत्रित्व में सांझा सरकार बनी।
कांशीराम कहा करते थे बसपा अपने आप में ‘बहुजन समाज’ की विभिन्न जातीय ताकतों का गठबंधन है। वे चाहते थे सपा प्रदेश की बागडोर संभाले और बसपा केंद्रीय सत्ता में अपनी दावेदारी बढाए। वे विधानसभा चुनाव में सपा को 60 फीसद और बसपा को 40 प्रतिशत सीट की हिस्सेदारी देने के हिमायती थे। वे चाहते थे लोकसभा चुनाव में दोनों की हिस्सेदारी का अनुपात बदल कर ठीक उलटा हो जाए।
मौके की ताक में भाजपा-
भाजपा को सपा-बसपा गठबंधन की सांझा सरकार रास नहीं आयी। हम उन कारणों की विस्तृत चर्चा बाद में करेंगे जिनसे अगला लोकसभा चुनाव होने से पहले ही जून 1995 में बसपा समर्थन की वापसी से मुलायम सिंह यादव सरकार गिर गई। मौके की ताक में बैठी भाजपा के समर्थन से देश में कहीं भी बसपा की पहली सरकार बन गई। भाजपा समर्थन से चार बार मायावती सरकार बनी। एक बार तो भाजपा भी उस सरकार में शामिल थी। लेकिन बसपा ने भाजपा के साथ कभी भी औपचारिक चुनावी गठबंधन नहीं किया।
बसपा ने सपा से गठबंधन टूट जाने के बाद नया प्रयोग किया। उसने 1996 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस से चुनावी गठबंधन किया। तब केंद्र में पीवी नरसिम्हा राव की कांग्रेस सरकार थी। बसपा ने तब अविभक्त उत्तर प्रदेश की विधानसभा की कुल 425 में से 300 सीटों पर अपने प्रत्याशी खड़े कर कांग्रेस को 125 सीटें ही दी थी। उस चुनाव में किसी भी पक्ष को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला। ऐसे में बसपा ने भाजपा से फिर हाथ मिलाकर सरकार बनाई। दोनों के बीच समझौता हुआ इस सरकार में उनके मुख्यमंत्री छह-छह माह के लिए बारी-बारी से बने। भारत सैन्यवादी व्यवस्था के इजरायल की चक्करवार(रोटेशनल) सरकार का वो पहला प्रयोग टिक नहीं सका। मुख्यमंत्री बनाने की पहली बारी बसपा को मिली। पर बसपा ने भाजपा की बारी ही नहीं आने दी। 17 वीं लोकसभा चुनाव के ऐन पहले वही हुआ जिसकी भाजपा को आशंका थी और जिसे रोकने के लिए मोदी सरकार ने तब सुप्रीम कोर्ट की भाषा में अपने पिंजरे में बंद तोता यानि केन्द्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) की जांच से पूर्व मुख्यमंत्री एवं समाजवादी पार्टी अध्यक्ष अखिलेश सिंह यादव को डराना चाहा। शायद ये सोच कर कि डर के आगे जीत है,अखिलेश यादव और पूर्व मुख्यमंत्री एवं बहुजन समाज पार्टी अध्यक्ष मायावती ने 12 जनवरी 2019 को लखनऊ में संयुक्त प्रेस कॉन्फ्रेंस में उस आम चुनाव में दोनों पार्टियों के गठबंधन की औपचारिक घोषणा कर दी। इसमें पूर्व केंद्रीय मंत्री चौधरी अजित सिंह के राष्ट्रीय लोक दल (रालोद) और निषाद पार्टी को भी शामिल करने की घोषणा कर दी गयी। कांग्रेस को इससे बाहर रखा गया. इस गठबंधन ने कांग्रेस की अगुवाई के यूनाइटेड प्रोग्रेसिव अलायंस (यूपीए) की अध्यक्ष सोनिया गांधी की ‘ परम्परागत ‘ लोकसभा सीट रायबरेली और तब कांग्रेस अध्यक्ष रहे राहुल गांधी की ‘ पुश्तैनी ‘ टाइप की सीट अमेठी में अपना प्रत्याशी खड़े नहीं करने का एकतरफा ऐलान कर दिया। सपा और बसपा ने गठबंधन के तहत प्रदेश की 80 लोक सभा सीटों में से 37-37 पर अपने प्रत्याशी खड़े करने का कदम उठाया, तीन सीटें रालोद और एक सीट निषाद पार्टी के लिए छोड़ दी। रालोद को बागपत, मथुरा और कैराना सीट की पेशकश की गई। रालोद अध्यक्ष अजित सिंह बागपत से और उनके पुत्र एवं पूर्व सांसद जयंत सिंह मथुरा से चुनाव लड़ते रहे है। कैराना वो सीट है जहां 2018 के हुए उपचुनाव में रालोद की मुस्लिम महिला प्रत्याशी तबस्सुम हसन ने बसपा और कांग्रेस के घोषित समर्थन से भाजपा को परास्त किया था. गठबंधन ने कहा सीटों का फायनल बँटवारा बाद में होने पर उनकी संख्या बदल सकती है।
अखिलेश यादव ने खुला आरोप लगाया था कि मोदी सरकार, सपा-बसपा पर दबाब डालने के लिए सीबीआई का दुरूपयोग कर रही है। मायावती ( बहिन ) जी ने भी कुछ ऐसा ही कहा. बहिन जी की राय में भाजपा और कांग्रेस की सोच एक ही है। उनके गठबंधन को कांग्रेस के साथ से फायदा नहीं होने वाला क्योंकि कटु अनुभव है कांग्रेस के वोट ‘ ट्रांसफर ‘ नहीं होते। उन्होंने 2022 के विधानसभा चुनाव में भी सपा-बसपा गठबंधन के बने रहने की घोषणा की।
अखिलेश यादव ने प्रधानमंत्री पद के लिए दावेदारी के बारे में पूछे जाने पर सतर्क जवाब दिया प्रधानमंत्री उत्तर प्रदेश से हो। इस अमूर्तन उत्तर को कुछ टीकाकारों की त्वरित व्याख्या में प्रधानमंत्री पद के लिए बहिन जी की दावेदारी की पुरानी-सी हसरत का समर्थन व्यक्त कर दिया गया। सपा-बसपा गठबंधन बहाल होने से प्रदेश में सियासी माहौल बदलने लगा। राज्य की आबादी में जो करीब 50 प्रतिशत अन्य पिछड़े वर्ग (ओबीसी) के लोग और दलित हैं उनका रूझान सपा-बसपा की तरफ मुड़ता लगा। उसे मुस्लिम समुदाय का भी समर्थन मिलने की संभावना लगी जो राज्य की आबादी के करीब 18 फीसद माने जाते हैं। ऐसा लगा सपा-बसपा गठबंधन बना रहा तो भाजपा को प्रदेश में 2014 के लोकसभा चुनाव की कामयाबी फिर हासिल करना नामुमकिन हो जाएगी। तब भाजपा ने 71 और उसके गठबंधन में शामिल कुर्मी नेता सोनेलाल पटेल के ‘ अपना दल ‘ ने दो सीटें जीती थीं। बसपा का सूपड़ा साफ हो गया था। समाजवादी पार्टी के पांच बड़े नेता ही जीत सके थे. कांग्रेस को भी रायबरेली और अमेठी की सीट जीतने में मुश्किल हुई थी। गैर-भाजपा दलों को सिर्फ नौ सीट मिल सकी थी।
भाजपा के कट्टर समर्थकों को लगा चुनाव आते-आते अयोध्या में राम मंदिर निर्माण का रास्ता अदालती आदेश से साफ हो जाएगा। यही हुआ भी। उनको ये भी लगा कि मुस्लिम समुदाय के कथित तुष्टिकरण के विरोध में मोदी उसकी सरकार की कश्मीर से असम तक उठाए कदमों हिंदुत्व ध्रुवीकरण तेज होगा जो भाजपा के चुनावी वैतरणी पार करने में तुरूप का पत्ता साबित हो सकता है।
कुछ टीकाकारों को लगा सपा-बसपा गठबंधन में कांग्रेस के नहीं रहने से त्रिकोणीय मुकाबला की स्थिति में भाजपा को और ज्यादा नुकसान होगा और कांग्रेस को फायदा होने से 2019 के चुनाव के परिणाम 2009 जैसे निकल सकते है। कांग्रेस ने 2009 के चुनाव में राज्य में आशातीत रूप से 22 सीटें जीती थी।
इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष और टीकाकार लाल बहादुर सिंह के मुताबिक यूपी में जनता बदलाव का मन बना चुकी है। सरकारी मशीनरी के बल पर जुटाई भीड़ और मेगा-इवेंट अब उसे बदल नहीं पाएंगे।
बौखलाई योगी सरकार ने अपनी रैलियों में भीड़ जुटाने का काम सरकारी प्रशासन को आउटसोर्स कर दिया है। जिला प्रशासन को सरकारी खजाने से जनता का पैसा फूंक कर बसों में भीड़ लाने का जिम्मा सौंप दिया गया है।
सुल्तानपुर, आजमगढ़, महोबा हर कहीं एक ही कहानी है। आजमगढ़ में अमित शाह की रैली में भीड़ जुटाने वहां डीएम ने पीडब्ल्यूडी से 40 लाख दिलवाए। इस खबर पर उच्चतम न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांत भूषण ने ट्वीट किया,” सरकारी पैसा पार्टी की रैली में भीड़ जुटाने के लिए खर्च किया जा रहा है! इस डीएम को तुरंत बर्खास्त किया जाना चाहिए। किसी दिन इन अधिकारियों की जवाबदेही जरूर तय होगी।”
यूपी में दीवाल पर लिखी इबारत अब कोई भी पढ़ सकता है। समाज तेजी से राजनैतिक रूप से ध्रुवीकृत होता जा रहा है। लोग अब अपनी पोलिटिकल पोजिशनिंग के हिसाब से हर इशू को देख रहे हैं। इसीलिए अब न अनाज बांटने से न ही हिन्दू-मुस्लिम उन्माद फैलाने से कोई लाभ होने जा रहा है न सरकारी खजाने और राज्य-मशीनरी का दुरुपयोग कर जुटाई गई भीड़ और मेगा-प्रचार या विज्ञापनों से कोई फर्क पड़ने जा रहा है।
तो क्या सच में यूपी में 2022 की तकदीर लिखी जा चुकी है और जनता 2022 में ही नहीं बल्कि 2024 में भी बदलाव का मन बना चुकी है? इस सवाल का जवाब हम चुनाव चर्चा के अगले अंक में ढूढ़ेंगे। लेकिन ध्यान रहे कि हम चुनावी भविष्यवाणी के खिलाफ है क्योंकि चुनावी फैसला करना पोलस्टर और पत्रकारों का नहीं बल्कि मतदाताओं का संविधान सम्मत विशेषाधिकार है।