ज्ञानेन्द्र पाण्डेय: देश की सर्वोच्च अदालत यानी सुप्रीम कोर्ट ऑफ़ इण्डिया ( भारतीय सर्वोच्च न्यायालय ) ने अभी कुछ दिन पहले ही एक महत्वपूर्ण फैसला लेते हुए, आक्सीजन के देशव्यापी वितरण के लिए एक टास्क फोर्स का गठन कर यह काम उस टास्क फ़ोर्स के जिम्मे सौंपने का आदेश दिया था। सुप्रीम कोर्ट को यह फैसला इसलिए लेना पड़ गया था। क्योंकि कोरोना महामारी के चलते देश में आक्सीजन का भयानक संकट पैदा हो गया, और अस्पतालों में भारी संख्या में कोरोना पीड़ित इस वजह से मौत का शिकार होने लग गए थे, क्योंकि अस्पतालों में आक्सीजन का जबरदस्त अभाव था। केंद्र सरकार आक्सीजन की आपूर्ति और वितरण के काम के साथ न्याय नहीं कर पा रही थी , इसलिए सर्वोच्च न्यायालय को आगे आना पड़ा था।
हालांकि इसके कुछ दिन बाद ही स्थिति में धीरे – धीरे सुधार होने लगा और केवल आक्सीजन की कमी की वजह कोरोना के मरीजों की मौत के सिलसिले पर ब्रेक भी जगा । और अब तो यह भी खबर आ गई है कि भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय के नियंत्रण वाले रक्षा अनुसंधान विकास संगठन ( डीआरडीओ ) द्वारा विकसित और तैयार की गई एक दवा भी कोरोना के इलाज में काफी सहायक साबित हो रही है। जिस वक़्त सुप्रीम कोर्ट ने टास्क फ़ोर्स बनाने का फैसला लिया उस वक़्त ऐसा करना जरूरी भी था, और इसका फायदा भी हुआ। ये एक तरह से कोरोना मामले में सरकारी लापरवाही पर अदालत की एक फटकार थी , जिसने अपना असर भी दिखाया और सुस्त पड़ी सरकारी मशीनरी में जान आई थी।
सवाल किया जा सकता है कि आखिर सुप्रीम कोर्ट को इस तरह का फैसला क्यों लेना पड़ गया था क्योंकि किसी देश की अदालत का यह काम नहीं है कि वो सरकार को आदेश देती रहे। बात एकदम सही है कोरोना के मामले पर सुप्रीम कोर्ट को सरकार को इस तरह का आदेश नहीं देना चाहिए क्योंकि हमारे संविधान में यह साफ़ व्यवस्था है कि लोकतंत्र के तीन महत्वपूर्ण स्तंभों के रूप में न्यायपालिका ( अदालत ) , कार्यपालिका ( सरकार ) और विधायिका ( संसद और विधान मंडल )के अलग – अलग कार्य निर्धारित हैं, और तीनों स्वायत्त निकाय हैं तीनों में से किसी को एक दूसरे के उपर दोषारोपण करने अथवा अपने आदेश थोपने का कोई अधिकार नहीं है। संवैधानिक मान्यता के अनुरूप विधायिका को नियम और क़ानून बनाने का अधिकार है तो कार्यपालिका का काम उन कानूनों को इमानदारी के साथ लागू करना है। इन दोनों निकायों के बीच न्यायपालिका की जवाबदेही तब सामने आती है जब विधायिका द्वारा बनाए गए फैसलों को किसी वजह से लागू नहीं किया जाता या फिर उसके संवैधानिक प्रावधानों को समझने में किसी तरह की दिक्कत आती है। ऐसे मौकों पर न्यायपालिका किसी नागरिक की शिकायत या फिर समस्या का स्वतः संज्ञान लेने के बाद नियम क़ानून के तकनीकी पक्ष को कानूनी तौर पर समझाने के साथ ही उस समस्या के त्वरित समाधान के लिए सरकार यानी कार्यपालिका को आदेशित भी कर सकती है। इस मामले में भी कुछ ऐसा ही हुआ .अदालत को जब लगा कि कोरोना के हालात बेकाबू होते जा रहे हैं तो उसे ऐसा फैसला लेना ही पड़ा।
प्रसंगवश गौर करने लायक बात यह भी है कि सर्वोच्च न्यायालय ने पहली बार ऐसा कोई काम नहीं किया जिसके चलते यह कहा जाए कि उसने सरकार के कामकाज में दखल दिया है। इसके विपरीत इस सन्दर्भ में यह कहना ज्यादा सही होगा कि हमारे देश का जो संविधान लोकतंत्र के तीनों स्तंभों को स्वायत तरीके से पाने क्षेत्र के काम संपन्न करने के अधिकार प्रदान करता है , वही संविधान न्यायपालिका को यह अधिकार भी देता है कि अगर कार्यपालिका और विधायिका अपने संविधान प्रदत्त कर्तव्यों के निर्वहन में किसी वजह से पीछे रहते हैं तो न्यायपालिका उनको उनके संविधान प्रदत्त कर्तव्यों की याद दिलाते हुए ऐसा करने के लिए बाध्य करे, इस सन्दर्भ में भी सुप्रीम कोर्ट ने ऐसा ही किया और यह काम सुप्रीम कोर्ट समय – समय पर कई बार कर चुका है। आक्सीजन वितरण के ताजा मामले के अलावा इससे पहले पर्यावरण के मामले पर भी सर्वोच्च अदालत ने भूरेलाल कमिटी का गठन कर सरकार को अपने कर्तव्यों की याद दिलाई थी।
इसी तरह पूर्व केन्द्रीय संचार मंत्री पंडित सुखराम के खिलाफ भ्रष्टाचार का मामला उजागर हुआ था और सरकार उनके खिलाफ किसी तरह की कारवाई नहीं कर पा रही थी , तब तत्कालीन विपक्ष के एक सांसद की शिकायत पर सुप्रीम कोर्ट को सुखराम के खिलाफ कार्रवाई करने को बाध्य होना पड़ा था .. भारतीय इतिहास में ऐसे एक नहीं अनेक उदाहरण देखने को मिल जाएँगे जब विधायिका और कार्यपालिका की चुप्पी को तोड़ते हुए न्यायपालिका ने अपने संविधान प्रदत्त अधिकारों का राष्ट्रहित में उपयोग किया है।
इस सन्दर्भ में केंद्र सरकार का रुख चिंता का विषय है . कोरोना मामले में वक्सीन प्रकरण समेत वेंटिलेटर की कमी , आक्सीजन की कमी , रेमेदिसिवर इंजेक्शन की कमी के साथ ही कोरोना मरीजों को अस्पतालों में आईसीयू बेड मिलने की शिकायतों की भरमार रही है। इन तमाम चीजों के अभाव की वजह से असंख्य कोरोना मरीजों को उचित उपचार न मिल पाने की वजह से मौत का शिकार भी होना पड़ा है। इन परिस्थितियों में जब स्वतः संज्ञान लेकर देश की सर्वोच्च अदालत ने सरकार को ठीक ढंग से काम करने के निर्देश दिए तो सरकार को अदालत का यह कदम नागवार गुजरा है। इसी कारण वक्सीन पालिसी समेत कोरोना से जुड़े तमाम मुद्दों पर विपक्षी दलों की आलोचना का सामना कर रही केंद्र सरकार ने पिछले दिनों ही सुप्रीम कोर्ट में दायर अपने एक हलफनामे में साफ़ तौर पर यह कहा था कि इस मामले में न्यायिक दखल सही नहीं है। इस हलफनामे में सरकार ने यह भी कहा था कि कोरोना महामारी जैसे वैश्विक संकट के दौर में कोई भी सरकार देश की पूरी रणनीति चिकित्सा और वैज्ञानिक राय के आधार पर तय करती है और ऐसे में न्यायिक दखल के लिए काफी कम जगह है। सरकार के मुताबिक़ इस तरह के किसी भी अति उत्साही न्यायिक हस्तक्षेप के अप्रत्याशित और अनपेक्षित परिणाम हो सकते हैं।