ज्ञानेन्द्र पाण्डेय: कोरोना महामारी के महान संकट और कोलाहल के बीच आखिरकार देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में पंचायत के चुनाव हो ही गए। कोरोना की दूसरी लहर के दौरान इस राज्य में संक्रमितों की संख्या में जो बेतहाशा बढ़ोत्तरी हुई है उसमें इस पंचायत चुनाव की भी बहुत बड़ी भूमिका है। यूपी में पंचायत चुनाव के दौरान बड़ी तादाद में राज्य के शिक्षकों की सेवाएँ ली गई थी , बदकिस्मती से वही इस दौर में कोरोना का ज्यादा शिकार भी हुए। 780 से ज्यादा पंचायत चुनाव की ड्यूटी कर रहे अनेक शिक्षक कोरोना पीड़ित होने के बाद काल का शिकार भी हो गए। राज्य में सत्तारूढ़ पार्टी को यह उम्मीद थी कि कोरोना दौर में झटके में पंचायत चुनाव कराने का उसे फायदा मिल सकता है क्योंकि राज्य के सपा , बसपा और कांग्रेस जैसे विपक्षी दलों की कोई तैयारी है नहीं इसलिए इन हालात में चुनाव कराने का सत्तारूढ़ भाजपा को ही लाभ होगा। लेकिन चुनाव के नतीजों ने भाजपा की उम्मीदों पर पूरी तरह से पानी फेर दिया। कांग्रेस तो खैर राज्य में किसी परिस्थिति में है नहीं लेकिन राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी को पंचायत चुनाव का सबसे ज्यादा फायदा मिला। हैरानी की बात यह है कि 2019 के लोकसभा के चुनाव में राज्य के पूर्वी क्षेत्र से कांग्रेस का जिस तरह सफाया हुआ था इस बार कुछ – कुछ वैसी ही हालत पूर्वी उत्तर प्रदेश में डबल इंजन वाली भाजपा की हुई है।
लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की हालत इतनी खराब हो गई थी कि कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गाँधी अमेठी की अपनी पुश्तैनी सीट भी नहीं बचा पाए थे , कुछ इसी तरह की हार प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी संसदीय क्षेत्र वाराणसी में इस बार पंचायत चुनाव में भाजपा की हुई है .. कुल मिला कर हालात ये बने हैं कि उत्तर प्रदेश में हाल में संपन्न पंचायत चुनाव में समाजवादी का परचम जोरों से फहराया , भाजपा को अपने ही गढ़ों में पराजय का सामना करना पड़ा और निर्दलीय उम्मीदवारों ने भी खूब चौंकाया। आंकड़ों की बात करें तो कह सकते हैं उत्तर के जिला पंचायत चुनाव में इस बार सपा समर्थित 790 उम्मीदवारों ने जीत दर्ज की जबकि भाजपा को कुल 599 सीटें जीत कर ही संतोष करना पडा। कांग्रेस के साथ ही निर्दलीय और अन्य 1247 उम्मीदवारों ने जीत दर्ज की।
गौरतलब है कि राज्य में चार चरणों में संपन्न पंचायत चुनावों की मतगणना दो मई से शुरू हुई थी और अंतिम परिणाम आते-आते तीन दिन लग गए। इस तरह पंचायत चुनावों की वोटों की गिनती का काम 5 मई तक पूरा हो सका था और परिणाम की आधिकारिक घोषणा में अपरिहार्य कारणों से एक – दो दिन का समय और लग गया। इस महीने की 8 -9 तारीख ( मई प्रथम सप्ताह ) के आसपास जब अंतिम चुनाव परिणाम घोषित किये गए तब चुनाव की असलियत सामने आई। गौरतलब यह भी है कि इससे पहले तक सबकी निगाहें 3052 ज़िला पंचायत के तीन हजार बावन ( 3052 ) सदस्यों के निर्वाचन पर लगी थीं। जिला पंचायतों के यही सदस्य बाद में जो बाद में अपने-अपने ज़िलों में ज़िला पंचायत अध्यक्ष का चुनाव करते हैं। इसलिए हर राजनीतिक दल अपनी पार्टी के उम्मीदवारों या फिर पार्टी समर्थित निर्दलीय उम्मीदवारों की जीत की आस लगाए बैठे थे ।यह उम्मीद इसलिए भी जरूरी थी क्योंकि जिस पार्टी के जितने ज्यादा पंचायत सदस्य चुने जाएँगे उस पार्टी के उतने ही ज्यादा पंचायत अध्यक्ष निर्वाचित हो सकेंगे। ज़िला पंचायत सदस्यों को राजनीतिक दलों ने अपना समर्थन दिया था और अब उसी आधार पर अपनी जीत के दावे कर रहे हैं। राज्य के सभी 75 ज़िलों के परिणामों के आकलन से पता चलता है कि ज़िला पंचायत सदस्यों के चुनाव में समाजवादी पार्टी को सबसे ज़्यादा सीटें मिली हैं और उसके बाद भारतीय जनता पार्टी को इन दोनों पार्टियों को पंचायतों की कितनी – कितनी सीटों पर जीत हासिल हुई है इसका खुलासा पहले ही किया जा चुका। इस खुलासे से यह भी पता चलता है कि पंचायत चुनाव परिणाम सी सत्तारूढ़ भाजपा के खेमे में निराशा का माहौल है।
सपा और भाजपा के साथ ही बसपा को पंचायत की 381, कांग्रेस को 76 और राष्ट्रीय लोकदल को 60 सीटें जीतने में सफलता मिली है। आम आदमी पार्टी ने भी पंचायत चुनाव में क़रीब दो दर्जन सीटें जीतने का दावा किया है। जबकि बाक़ी यानी ज़्यादातर सीटें निर्दलीय उम्मीदवारों ने जीती हैं। उत्तर प्रदेश के मौजूदा पंचायत चुनाव के नतीजों का एक सच यह भी है कि तमाम तरह की संस्थागत प्रतिबद्धता के बावजूद राजनीतिक पार्टियों को इस चुनाव में वो सफलता नहीं मिल सकी है जो निर्दलीय और अन्य तबके के उम्मीदवारों को इस चुनाव में मिली है। चुनाव परिणाम के नतीजे ही साफ़ बता देते हैं कि राज्य के कुल 3 हजार पंचायत सदस्यों में पक्ष और प्रतिपक्ष के सभी राजनीतिक दलों ने मिला कर करीबदो हजार सीटें जीती हैं जबकि बिना पार्टी के अपने बूते चुनाव लड़ कर जीतने वाले पंचायत सदस्यों की संख्या 1 हजार से भी ज्यादा है। ऐसे में बहुमत तो निर्दलीयों का हुआ। देखने वाली बात है कि इनमें से कितने निर्दलीय पंचायत सदस्य राज्य और केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी का जिला पंचायत अध्यक्ष बनाने ले लिए अपनी कुर्बानी देते हैं। सत्तारूढ़ पार्टी की पूरी कोशिश यही होगी कि जिस तरह कई राज्य विधान सभाओं के चुनाव में पर्याप्त बहुमत न जूता पाने के बावजूद सत्तारूढ़ पार्टी ने अपनी ही सरकारें बनवाने में कामयाबी हासिल की है , उसी परंपरा का पालन करते हुए देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश की जिला सरकारों के गठन में भी सत्तारूढ़ भाजपा को ही सफलता हासिल होगी। कोरोना काल में एक कमाल यह भी हो तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए।